Tuesday, September 29, 2009

वानर और भगवान.......

...

परम पुरुष
अवतारी सर्वज्ञ
शक्तिमान
भगवान,
मैय्या सीता को
तलाशने
गये
मगर
वानर
सहज
हनुमान..............

param purush
avtaari sarvagya
shaktimaan
bhagwaan,
maiyya sita ko
talashne
gaye
magar
vanar
sahaz
hanuman.....

Monday, September 28, 2009

स्पर्श/Sparsh.........

..

नहीं बजाती हूँ मैं
बजा रहा है मुझे
यह सितार
जुड़ गयी है
मेरी चेतना से
यह झंकार
जैसे दीपक की
बाती से
जगमग लौ..........

स्पर्श कर
इन तारों का
होती गतिमान
नयनहीन उंगलियाँ
सुन कर यह धुन
निराकार
हो जाता है
साकार.............

nahin bajati hun main
baja raha hai mujhe
yah sitaar
jud gayi hai
meri chetna se
yah jhankaar
jaise deepak ki
baati se
jagmag lou.........

sparsh kar
in taaron ka
hoti gatimaan
nayanheen ungaliyan
sun kar yah dhun
niraakaar
ho jata hai
saakaar...........

स्पर्श/Sparsh.........

..

नहीं बजाती हूँ मैं
बजा रहा है मुझे
यह सितार
जुड़ गयी है
मेरी चेतना से
यह झंकार
जैसे दीपक की
बाती से
जगमग लौ..........

स्पर्श कर
इन तारों का
होती गतिमान
नयनहीन उंगलियाँ
सुन कर यह धुन
सगुण
हो जाता है
निर्गुण.....

nahin bajati hun main
baja raha hai mujhe
yah sitaar
jud gayi hai
meri chetna se
yah jhankaar
jaise deepak ki
baati se
jagmag lou.........

sparsh kar
in taaron ka
hoti gatimaan
nayanheen ungaliyan
sun kar yah dhun
sagun
ho jata hai
nirgun...........

Sunday, September 27, 2009

इत्ती सी बात/Itti Si baat ............

..

दिन होता है
आँख
सूरज की
होती रात है
पीठ
मानव
तथापि
लखता
विभेद कर
बन
अनजान
और
ढीठ...........

बिना सोचे समझे
इत्ती सी बात को
कर देता वह अलग
दिन और रात को..........

din hota hai
aankh
suraj ki
raat hoti hai
peeth
manav
tathapi
lakhta
vibhed kar
ban anjan
aur dheeth.........

bina soche samjhe
itti si baat ko
kar deta alag wah
din aur raat ko.........

गिनतियाँ..........

..

तुम ने
जप किये
तप किये
पढ़ी नमाजें
गायी हैं प्रार्थनाएं
तस्बीह के
मनकों पर
चलायी है उंगलियाँ......

तुम तो
करते रहे हो
गिनती
क्या क्या किया ?
कितना किया ?
किस किस के लिए किया....?
फुर्सत ना मिली
तुमको
झांकने की
खुद में .........

खुदा बैठा था वहीँ
कर रहा था
इन्तेज़ार
मगर पूरी ना हो सकी
गिनतियाँ तुम्हारी........

आई थी इक आवाज़
पहुंचना है गर उस तक
लौट आना है घर तक
भूल जा अपने
जाप करोड़
पाना है अनगिनत को
डूब जा ध्यान में
सब गिनतियों को
छोड़......

(तस्बीह=माला जिस के बीड्स के सहारे अल्लाह/भगवान का नाम सुमरिन किया जता है.)

Saturday, September 26, 2009

संगम..........

....
कर्म सरस्वती
जमुना भक्ति
ज्ञान है गंगा नीर,
सजगता श्रीकृष्ण
मीरा बंद नयन
खुली आँख कबीर....

त्रिवेणी संगम से
हो जाये प्राणी !
निर्मल पावन
आत्मा और शरीर...........

Friday, September 25, 2009

संगम........

(नायेदा आपा से सुनी बात को शब्द दिए हैं )

# # #
कर्म सरस्वती,
भक्ति यमुना,
ज्ञान है गंगा नीर,
सजगता
साक्षात् कृष्ण,
बन्द चक्षु मीरा
अंखियन खुली
कबीर....

विलय त्रय का
स्व अस्तित्व में
करे यदि
मनुज गंभीर,
त्रिवेणी संगम से
आत्मा निर्मल
हो जाती है
अमीर......

Thursday, September 24, 2009

विस्मय........

..

छोड़ कर
बना बनाया
आसान मार्ग
चली थी मैं
बीहड़ की टेढी मेढी
वीथिकाओं में (या)
कदम रखते
उजाडों में
नयी राह
स्वयं की बनाते हुए,
नहीं डरा सके थे मुझे
घनघोर जंगल
ऊँचे पर्वत
उफनते सागर,
होता है विस्मय...
मुझ खोयी हुई को
कैसे खोज सकी है
मंजिल ????????????

..

Wednesday, September 23, 2009

अज़गर की लीक ...........

..

राह नहीं
यह तो है
अजगर की लीक....

लौट जा पथिक !
नज़रें तेरी
अनाड़ी
पहचान है तेरी
जुगाड़ी
छुपा बैठा है काल
निज आँगन में
यह लीक
पहुंचा ना दे तुझे
मौत के आलिंगन में .......

ऐ जल्दबाज़ मुसाफिर !
लौट जा !
लौट जा !
नहीं है यह तेरी राह
पहुँचाने मंजिल को
कदम बढ़ने
से पहिले थाम ले तू
अपने दिल को...........


.....

Tuesday, September 22, 2009

अश्रु : हिये का हार........

..

अश्रुओं से गलता है
मैल मन का
हरता रीठा जैसे
वस्त्र खार को
मत बिसरा
आंसुओं को
मेरे मित्र !
रख ले सजा के
अनमोल से
हिये के इस
हार को.......

ashruon se galta hai
mail man ka
harta reetha jaise
vastra khaar ko,
mat bisra
aansuon ko
mere mitra !
rakh le saja ke
anmol se
hiye ke is
haar ko...........

Monday, September 21, 2009

प्यासी प्यासी सी........


......

मैं तो डूबी हूँ
तेरे होने के
एहसासों में,
ये जिस्म
तुझको
रूह तक
ले आने का
इक जरिया है.....

प्यासी प्यासी सी
खडी हूँ मैं
किनारे पे ,
तू सुकूं का
बहता हुआ
इक दरिया है.......

main to doobi hun
tere hone ke
ehsason men,
yeh jism
tujhko
rooh tak
le aane ka
ik zariya hai.....

pyaasi pyaasi si
khadi hun main
kinaare pe,
tu sukoon ka
bahta hua
ik dariya hai......

Sunday, September 20, 2009

पहचान........Pahchaan.......

...
रूठ कर
शज़र से
कली ने जब
फूला लिए थे गाल*,
पहचान लिया
लम्पट पवन ने,
होना है अब
जुदा इसको
अपने सनम से.......

(*कली का फूल बन जाना-प्रतीक है गुरूर आ जाने से)

Rooth kar
Shazar se
kali ne jab
Phoola liye the gaal,(*)
Pahchan liya
Lampat pawan ne
Hona hai ab
Juda isko
Apne sanam se........

(*kali ka phool ban jana-prateek hai gurur aa jane se)

राधिका ......I

(यह कहानी लेखिका कि कल्पना पर आधारित है, किसी भी जीवित अथवा मृत नर-नारी के जीवन से कुछ घटनाओं का मिलता जुलता होना महज़ संयोग ही समझा जाये.)
_____________________________________________________________


राधिका को आदिवासियों के उत्थान के लिए काम करने के लिए हल ही में राष्ट्रपति पुरुस्कार से नवाजा गया. लगभग हर अख़बार में यह खबर थी, प्रांतीय समाचार पत्रों में तो खबर सुर्खियों में थी. लाल पहाड़ की सूती साडी पहने राधिका अख़बारों और चाय की प्याली का लुत्फ़ साथ साथ ले रही थी. नवरात्रा का पहिला दिन था, देवी माता कि पूजा कर राधिका ने माताजी महाराज का आवाहन किया था....कि वे आयें और उसके साथ पूर्ण नवरात्रा में रहे. पूजा करते समय सुधा भी भांप रही थी कि यह प्रतीक मात्र है किन्तु इसी प्रतीकातमक जुडाव के कारण वर्ष में दो अवसर आते हैं चैत्र और आसोज में जब माता को वह अपने और नज़दीक पाती है. अपनी शक्ति का पुनर्मूल्यांकन पुनराकलन कर पाती है. माँ दुर्गा को वह स्त्री शक्ति का प्रतीक मानती है, और स्वयं की शक्ति को उसके विभिन्न रूपों से पहचानती है. अचानक राधिका सोचों में डूब गयी. विगत कि स्मृतियाँ उसके मानस पटल पर चलचित्र की भांति प्रर्दशित होने लगी.
राधिका का जन्म एक आम मध्यम वित्तीय परिवार में हुआथा. तीन भाई बहनों में वह सब से बड़ी थी, उसके बाद उसकी बहन सुधा और फिर भाई अनुज का आगमन हुआ था. बात आम है मगर कहना ज़रूरी है, राधिका को बहन लाने वाली माना जाता था और माता पिता के बचे खुचे प्यार का कोई टुकड़ा उसे यदा कदा नसीब हो जाता था. हाँ स्थूलकाय गौरवर्ण सुंदरी मां से लगभग लगातार ही कड़वे बोल और नसीहतें उसे सुननी पड़ती थी. शायद दस वर्ष कि उम्र से ही राधिका ने रसोई के , घर गृहस्थी के सारे काम जान लिए थे. स्थितियां ऐसी बनी थी कि खाना पकाना, कपडे धोना, छोटे भाई बहनों को संभालना, बाप का खयाल रखना मानो उसकी मां गौरी की जिम्मेदारी कम और राधिका की ज्यादा होती थी. मां सदा कहती, "अच्छी लड़की बनो...पराये घर जाना है." "अक्ल क्या घास चरणे चली गयी, जो ऐसा किया...वैसा किया.....कब सुधरोगी. कब तुझ में अच्छी लड़कियों के गुण आयेंगे." कभी कोई चूक या कोताही होती तो मां बाप को भड़का कर राधिका को डांट पिलवाती थी, राधिका बस आंसू बहा कर रह जाती थी. मां और उसका समीकरण सगी मां-बेटी का सा कम, सौतेली मां-बेटी जैसा ज्यादा था. कभी कभी तो लगता था उसकी स्तिथि घर में एक नौकरानी से ज्यादा नहीं. राधिका बहुत सुन्दर, शालीन और जहीन लड़की थी. घर के काम को प्राथमिकता देते हुए भी, स्कूल में भी उसकी उपलब्धियां कम नहीं थी, कक्षा में प्रथम आना, गैर-पाठ्यक्रम की गतिविधियों में भी अच्छा प्रदर्शन करना राधिका की खासियत थी.
राधिका कि उम्र चौदह की हो गयी तो उसके एक रिश्तेदार मामा भी उनके साथ आकर रहने लगा, उसकी पत्नी का देहांत हो गया था, और अपनी सारी सम्पति अपनी बहन-जीजा को देकर उसने उस घर में आसरा लेना चाहा था, जो राधिका के माँ-बाप ने ख़ुशी से मंज़ूर कर लिया था.
बाप काम पर चले जाते, मां दोपहर में सत्संग में या सहेलियों से गपियाने आस-पड़ोस में चली जाती, सुधा-अनुज अपने कमरे में खेलने या पढने में व्यस्त होते, अधेड़ मामा ना जाने क्यों राधिका के उभरते अंगों से छेड़-छाड़ करने लगता, बाज़ वक़्त उसे अपने आगोश में ले लेता.....किसी तरह राधिका खुद को उसकी कुत्सित हरक़तों से खुद को बचाती किन्तु भयाक्रांत सी रहने लगी. मां-बाप की आँखों को पट्टी पड़ी हुई थी, उनको शिकायत करना फजूल था, उल्टे उसीको डांट पड़नी थी. ऐसे में पड़ोस में रहने वाला पियूष जो उसका हम-उम्र था हमराज बन गया....पियूष एक अच्छा और मेघावी लड़का था, एक अच्छा इंसान भी. यह मित्रता लगातार बढ़ते बढ़ते प्रेम में परिवर्तित हो गयी.
राधिका भी कॉलेज स्तर तक पहुँच गयी थी, पियूष भी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला पा चुका था. पियूष ब्राहमण परिवार से था और राधिका के घरवाले गुप्ता बनिए थे. दोनों ही परिवार सब कुछ समझते हुए भी, इस सम्बन्ध को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. कालांतर में एकलौता पुत्र पियूष भी घर वालों के दवाब के सामने कमज़ोर पड़ गया...और उसने राधिका से मुंह मोड़ लिया.
इधर राधिका का ग्रेजुअशन पूरा हुआ, उधर मामा की सहायता से एक सुयोग्य बनिया वर मनीष का चुनाव कर लिया गया. मनीष ने CA पास किया था और प्रैक्टिस करता था. यथोचित दान दहेज़ देकर राधिका को श्रीमती मनीष सिंघल के रूप में विदा कर दिया गया. बनिया और ऊपर से चार्टर्ड एकाउंटेंट, मनीष कि हरेक गणना बहुत सटीक और रुपयों पैसों से जुडी होती. घर का काम सँभालने के अलावा राधिका से उम्मीद की गयी कि वह घर में बच्चों को पढाये ताकि आमदनी बढ़ सके. इस प्रकार राधिका घर कि चार दीवारी और जिम्मेदारियों के घेरे में फंस कर रह गयी. ज़िन्दगी बस किचन और उस से टुइशन पढ़नेवाले बच्चों को सँभालने में ही व्यतीत होने लगी, क्या हुआ कभी कभार कोई शादी-जन्मोत्सव के भोज में अथवा मंदिर के किसी कार्यक्रम में शामिल होने राधिका बहुत ही दबाव और हड़बड़ में कभी कभार बाहर निकल पाती. मां ने पति को परमेश्वर मानने के 'सुसंस्कार' पुत्री को दिए थे, बताया था कि पति के प्रति समर्पित नारी ही सती होती है शक्तिरूपेण, भगवान को भी उसके सामने झुकना होता है. सावित्री सत्यवान जैसी कई कहानियों को बता कर मां ने अपना पॉइंट कूट कूट कर 'प्रूव' किया था और राधिका का 'ब्रेन वाश' किया था. मामा की गन्दी हरक़तों ने, माँ बाप के सौतेले व्यवहार ने और पियूष कि खुदपरस्ती ने राधिका में एक अजीब सी हीन भावना की ग्रंथि पैदा कर दी थी.

मनीष के साथ आकर राधिका ने सोचा था कि एक संस्कारवान पत्नी/गृहणी बने, पति कि आज्ञानुसार आचरण करे और पति की भरपूर सेवा तन-मन-धन से करे, शायद इसी से वह सती नारी बन अपना जीवन सफल कर पाए. दिन भर घर और टुइशन की मेहनत और रात को थके हारे मनीष को बिस्तर में खुश करना राधिका का परम कर्तव्य, स्त्री-धर्म या 'रूटीन' हो गया था. मनीष यदा कदा दोस्तों के साथ पीकर, जश्न मना कर घर लौटता और बिस्तर में उसकी गतिविधियाँ पाशविक हो जाती. प्यार मोहब्बत की बात तो दूर, मनीष तरह तरह के व्यंग बाणों से राधिका को बेंधता रहता. कभी उसके फूहड़ होने की बातें, कभी अव्यवहारिक होने का आरोप, पियूष के साथ उसके काल्पनिक शारीरिक संबंधों की बातें, उसके माता-पिता पर लांछन.....बहुत कुछ हथियार अपनाता था मनीष राधिका पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाये रखने के लिए.....अपना बर्चस्व कायम रखने के लिए.
राधिका बस पिजरे कि चिड़ियाँ बन कर रह गयी. मनीष उन्मुक्त उड़ने वाला पक्षी. दिन भर कि मशक्कत के बाद कहाँ रह पाता चुलबुलापन राधिका कि फ़ित्रत में. वक़्त के साथ मनीष को राधिका से उब सी महसूस होने लगी. उसकी आशनाई एक क्लाइंट के यहाँ काम करने वाली ज्योत्सना अरोड़ा उर्फ़ पिंकी से हो गयी.
मनीष के पारिवारिक नियमों के अनुसार बहुएं साड़ी ही पहन सकती थी, ईवन सूट तक पहनना 'allowed ' नहीं, सर पर पल्लू ज़रूरी, सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग सर्वथा वर्जित. ऐसे में कहाँ साडी में लिपटी राधिका और कहाँ लिपि पुती, शानदार हेयर-कट लिए, westerns पहने, हाय-गाय-बाय करती 'खुले' विचारों और आचारों वाली पिंकी अरोड़ा. पिंकी एक छोटे-मोटे संस्थान से 'distance learning scheme ' द्वारा MBA की हुई थी. उसने नौकरी छोड़ दी और मनीष के साथ associate हो गयी.पिंकी के खुले मार्केटिंग स्किल्स ने काम किया, नए नए काम मनीष-पिंकी combine के पास आने लगे. अचानक से मनीष-पिंकी के 'आउट-ऑफ़-स्टेशन' assignments बढ़ने लगे, कभी बैंक ऑडिट, कभी 'टेक-ओवर' के लिए ड्यू डिलिजेंस, कभी प्रोजेक्ट अप्रेजल, कभी कंपनी ला बोर्ड, कभी टैक्स मैटर इत्यादि के नाम......दोनों साथ साथ जाते. मनीष कि शामें भी ज्यादातर पिंकी के साथ गुजरने लगी. काम की बढौतरी ने काम के घंटे भी बढा दिए, छुट्टियों के दिन भी काम होने लगा. यह नयी 'consultancy ' बहुत विकासमान हो रही थी, मनीष की समृधि और शोहरत भी बढ़ते जा रहे थे. उसके व्यक्तित्व में भी एक गुरूर से भरा निखार देखा जा रहा था. राधिका कि स्थिति और बौनी होती जा रही थी. दबी जुबान से पिंकी-मनीष के संबंधों कि चर्चा-कुचर्चा भी होने लगी....मगर कामयाबी सब बातों से ऊपर होती है....धन, सफलता और लोगों की सफल-धनी लोगों से झूठी-सच्ची अपेक्षाएं इन सब बातों को पीछे छोड़ देती है. आधुनिकता और compatibility के नाम बहुत कुछ जस्टिफाई किया जाने लगता है.
मनीष ने नया बड़ा फ्लैट ले लिया था, अच्छे से फर्निश भी कराया था, गृह-प्रवेश पर सब सम्बन्धी भी गाँव से शहर आये थे. समारोह में पिंकी के रंग ऐसे थे मानो नया घर उसका हो. राधिका को बस रिश्तेदारों की देख-रेख की भाग दौड़ करते एक बेचारगी के एहसास के साथ नए घर में देख गया था.
एक दो को छोड़ कर बिना वज़ह अधिकांशतः रिश्तेदार पिंकी के प्रशंसक और राधिका के आलोचक बन गये थे. नए फ्लैट ने राधिका के कामों, जिल्लत और प्रताड़ना में ही बढोतरी की थी, उसका सुकून छिन गया था. काम के बहाने पिंकी का घर आना जाना बढ़ गया था, नए घर का एक कमरा ऑफिस -कम-गेस्ट रूम के रूप में बदल दिया गया था. . इस वातानुकूलित कक्ष में पिंकी-मनीष प्रोजेक्ट का विश्लेषण करते अथवा अपना संश्लेषण करते, करीब करीब अनुमान लगाया जा सकता था. दुखी राधिका का काम होता दोनों की स्नेक्स, सोडा, बर्फ, आदि की ज़रूरतें पूरी करना और गलती बिना गलती मनीष कि झाड़ सुन ना....जब मनीष ज्यादा ही गर्म हो जाता पिंकी राधिका कि छद्म सिफारिश कर उसे चुप करा देती थी.
राधिका एक जीवित नर्क का हिस्सा बन गयी थी. पढ़नेवाले बच्चे, माँ दुर्गा एवम् काली की पूजा घर में लगी तस्वीरें और उसकी निजी डायरी बस उसकी तकलीफों के साथी थे. माता-पिता, भाई बहन ने भी बुरे वक़्त में मुंह मोड़ लिया था, उन्हें भी उस से ज्यादा प्यारा मनीष लगता था. तरह तरह के उपहार देकर, झूठी स्निग्धता दिखा कर पिंकी ने राधिका के नैहर में भी अपनी तूती बजा डाली थी. पियूष ने भी किसी मंत्री महोदय की घमंडी बेटी से विवाह कर अपने ससुर के बल-बूते पर अपना रुतबा बना लिया था.
वह ठेकेदारी लाइन में आ गया था......मंत्रीजी का दामाद जो ठहरा. उसके पिता बृज भूषण शर्मा कक्काजी बन मंत्रीजी के लिए दलाली करने लगे थे. कपटी मामा अब खुले आम बहुत कुछ करने लगे थे घर में भी बाहर भी. रिश्तों, मान्यताओं और सामाजिकता के महलों के खँडहर राधिका के चारों ओर बिखरे पड़े थे.

राधिका ....II

राधिका सोचों में खोयी खोयी सी थी. बीते दिनों के इन दृश्यों को देखते विचरते उसका मन खिन्न सा हो गया था. सामाजिक रिश्तों की भोगी हुई सच्चाईयां उसको शूलों कि तरह चुभने लगी थी. ना जाने क्यों रोष और उदासी के मिश्रित भाव उसे घेरे जा रहे थे. सेल-फ़ोन बज उठा....स्क्रीन पर आया था "कुमार साहब कालिंग ", राधिका को लगा मन-मस्तिष्क का बौझा अचानक हल्का हो गया, स्क्रीन पर उभरे नाम मात्र ने उसके मायूस मिजाज़ को गुलज़ार बना दिया था .
"नवरात्रा शुभ हो, दुर्गे ! पूजा हो गयी." कुमार साहब बोल रहे थे.
"आपको भी नवरात्रा की शुभ कामनाएं ! आपने भी पूजा करली." राधिका चहक रही थी.
उधर से कुमार साहब का आह्लाद भरा गंभीर स्वर कह रहा था, " देवी, इसीलिए तो फ़ोन किया, सोचा दूर बैठी देवी को प्रणाम कर लिया जाये."
राधिका ने जवाब दिया, "आप नहीं सुधरेंगे कुमार साहब, क्यों शर्मिन्दा कर रहे हैं ? दूर होने से क्या हुआ आप तो सदैव इस मानवी के संग एहसास बन कर रहते हैं. देवी माँ आपको अधिकाधिक शक्ति दे, जिस-से आप के सोचों का लाभ ज्यादा से ज्यादा लोगों को मिल सके. हाँ खाने-पीने का ध्यान रखियेगा, नवरात्रा में समय पर फलाहार ले लीजियेगा. दवा भी समय पर ले लीजियेगा."
"अपना खयाल रखना, राधिका....बाय." कुमार साहब ने बात समाप्त कर दी थी.

फ़ोन को सेंट्रल-टेबल पर रखते दूसरे हाथ से अपनी साडी के पल्लू से राधिका नाम पलकों को पौंछ रही थी. अधरों पर मुस्कान थिरक रही थी, ऐसा लग रहा था मानो पूरे तन-मन में नवीन प्राणों का संचरण हो गया हो.
राधिका ने घड़ी देखी, पल्लू को ठीक किया और फिर से उसका सोचों का सफ़र आरम्भ हो गया था. मनीष कि ज्यादतियां दिन प्रतिदिन बढती जा रही थी. एक दिन मनीष कह बैठा, "शादी को ६ साल हो गये. मां-बाबूजी पोते का मुंह देखने तरस रहे हैं. तुम हो कि कुछ नहीं दे पा रही हो." कल शाम का मैंने 'Hope Inferitlity Cure Center' के डा. नसीर अहमद से appointment लिया है. उनसे राय लेंगे कि क्या किया जाय. नियत समय पर मनीष राधिका के साथ डा. अहमद के सामने था. जनरल चेक अप और सूचनाओं को नोट करने के बाद डा. अहमद ने दोनों के लिए कुछ टेस्ट्स लिखे, जो वहीँ हो सकते थे. अगला appointment सात दिन बाद का दिया गया. उस दिन मनीष अकेला क्लीनिक में गया, डॉक्टर को बोला कि राधिका की तवियत नासाज़ है इसलिए वह नहीं आ सकी. डाक्टर अहमद ने कहा कि उन्होंने सारी रिपोर्ट्स को देखा है और विचार किया है. मनीष और राधिका दोनों को ही चिकित्सा कि आवश्यकता है. राधिका की दो समस्याएं रिपोर्ट्स से पता चली है : पहली उसके ओवारिज में सिस्ट है, और दूसरी किसी नामालूम भीतरी आघात से गर्भाशय की नसें कमज़ोर हो गयी है. दोनों स्थितियों के लिए माकूल इलाज उपलब्ध है. मनीष के स्पर्म काउंट कम है, उसका भी इलाज है. मनीष ने कहा कि अगर वे यथोचित चिकित्सा कराएँ तो क्या संतान होना निश्चित है. उस पर डा. अहमद बोले, "बच्चा होना या ना होना इतेफाक है, साइंस अपने तौर पर कोशिश कर सकती है और जो इलाज चुना जा रहा है उसके नतीजे भी positive हासिल हुए हैं दुनिया में बहुत जगह. हाँ गारंटी किसी बात कि नहीं ली जा सकती." डॉक्टर अहमद ने सभी बातों को पूरे तौर पर तफसील से बताया भी, CD मदद से. मनीष को तो बस एक ही सवाल में रूचि थी, राधिका की बच्चादानी को भीतरी आघात कैसे लगे.
घर आकर बाकी सब बातों को गौण कर, मनीष ने बस इसी मुद्दे को गरमाए रखा था. आरोप-प्रत्यारोप का बेहूदा सिलसिला शुरू हो गया था, "ये कैसे हुआ, भीतरी नसें कैसे कमज़ोर हो गयी ?"......"राधिका अपने कर्मों से बाँझ बन कर रह गयी है." .....राधिका ने कभी भी मनीष के अतीत और वर्तमान पर प्रश्न नहीं उठाये थे, मगर मनीष के लिए मानो राधिका का अतीत सुखी दांपत्य जीवन के लिए बाधक था. बच्चे पैदा होने कि सम्भावना भी इतेफाकन थी, जैसा डॉक्टर ने बताया था, उसके लिए भी राधिका ही जिम्मेदार थी. ऊपर से राधिका गंवार, उसे पहनना ओढ़ना नहीं आता, बात का सलीका नहीं, बिज़नस/सोशल पार्टीज में presentable तक नहीं. कुल मिलाकर मनीष अपने भाग्य को कोसता था कि उस जैसे टेलेंटेड इन्सान को राधिका जैसी मिडल क्लास बीवी मिली. इन सब के बावजूद भी हिंसक और आक्रामक तरीके से मनीष राधिका को झूठा प्रेम जता कर भोगता रहा. बेचारी राधिका क्या समझे कि इसमें भी मनीष-पिंकी की कुछ साजिश थी. इस दौरान मनीष ने ना जाने कितने कागज़ किसी ना किसी बहाने राधिका से दस्तखत करा लिए. पतिव्रता नारी राधिका...... उसको क्या मालूम कि ये कागज़ उसके समस्त संचित धन और शादी को को हड़पने के लिए एक चाल के तहत बनाकर उसके दस्तखत कराये गये हैं. यही नहीं, कुछ दिन बाद उसे तलाक का नोटिस रजिस्टर्ड डाक से मिला, उसके तो पाँव तले ज़मीन खिसक गयी. शाम को मनीष जब घर आया, राधिका बहुत रोयी धोयी. मनीष ने उसे अपने साथ लिपटा मुआफी मांगी और कहा कि यह नोटिस उसने आवेश में वकील से दिला दिया था......मनीष कार्यवाही को रुकवा देगा. .........और ना जाने कैसे मनीष ने मेनेज किया, एक दिन मनीष ने तलाक़ कि डिक्री राधिका के हाथ में थमा, उसे अविलम्ब उसके घर से दफा हो जाने को कहा.

राधिका को दुनिया उलटती नज़र आने लगी. उसने मनीष से बहुत अनुनय विनय किया किन्तु पत्थर दिल मनीष पर कोई असर नहीं हुआ.
उसकी दुनिया तो उस चारदीवारी में सीमित हो गयी थी, मदद के लिए पुकारे तो किसे पुकारे. पिंकी ने जल्दी जल्दी उसका समान दो सूटकेसों में पेक किया, उसे हज़ार हज़ार के पांच नोट दिए और कहा कि नैहर चले जाये, वह कोशिश करेगी मनीष को समझाने की. वह टैक्सी तक राधिका को छोड़ने भी आई. आँखों में आंसू लिए राधिका पीहर कि चौखट तक पहुंची. शायद इस बीच, फ़ोन पर उसके आगमन की खबर मनीष/पिंकी ने वहां दे दी थी. मां ने कहा, "तुझी में दोष है, मनीष जैसे पढ़े लिखे होनहार लड़के को देख कर हम ने बहुत धूम-धाम से तुम्हारी शादी की, तुम्हारी पिछली गलतियों ( पियूष के साथ प्रेम) को भी छुपाया....तू शुरू से ही अच्छी लड़की नहीं थी, हम क्या कर सकते हैं, हमारे समझाने से बेचारे ने तुम्हे ६ सालों तक निभाया. दो चार दिन की बात और है, तुम्हे उसके बाद अपनी व्यवस्था खुद ही करनी होगी. हमें तो यह चिंता सता रही है सुधा को कौन ले जायेगा, बिरादरी में तुमने हमें किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रखा."
बाप उसको देख कर अन्दर जा कर बैठ गया था.....सुधा और अनुज भी इधर उधर हो गये थे. मामा कह रहा था, "अपने कर्मों का फल खुद को ही भुगतना होता है." राधिका को बिना 'ट्रायल' के 'गिल्टी' घोषित कर दिया गया था. राधिका ने आंसू पौंछे और मुड़ गयी. कुछ देर बाद रेलवे स्टेशन पर थी राधिका.
प्लेटफार्म पर बहुत गहमागहमी थी, एक ट्रेन जो मुंबई जाने के लिए तैयार खडी थी, लगभग छूटने को थी. कुली ने कहा-"मेमसाब ! ऐ सी डिब्बे में " बिना सुने समझे ही राधिका ने हामी भर दी. कुली ने कहा कौन सा कूपे---क्या यही ? फिर राधिका कि बेहोशी कि हामी. कुली ने समान कूपे 'बी' में सेट किया. अपना मेहनताना लिया....कि ट्रेन स्टार्ट हो गयी. कोई पंद्रह मिनट के बाद गाड़ी ने स्पीड पकड़ ली थी. राधिका
कूपे के बाहर आई, देखा ट्रेन दौडी जा रही थी और डिब्बे के दरवाज़े पर कोई नहीं था, उसने दरवाज़ा खोला और बाहर को झुक गयी, इतने में किसी बलशाली हाथों ने उसे अन्दर कि ओर धकेल लिया. उस व्यक्ति ने दरवाज़ा बंद किया और कहा, "आप कूपे 'बी' में ही है तो....मैं फ्रेश होने चला आया था, अनायास मेरी नज़र आप पर पड़ गयी.....ना जाने क्या हादसा हो जता .....आप अपनी जान गँवा देती या अपाहिज हो जाती. चलिए अन्दर बैठ कर बात करते हैं." राधिका सूखे पत्ते के माफिक कंप रही थी, गला सूख रहा था....आँखों के आगे अँधेरा सा छ रहा था. कूपे में सहारा देकर उस व्यक्ति ने राधिका को लिवा लिया और बैठा दिया. मिनेरल वाटर कि बोतल से गिलास में पानी ढाला और राधिका कि जानिब बढा दिया. "पानी पी लीजिये." कह रहा था व्यक्ति. राधिका ने कुछ घूँट भरे और गिलास को हाथों में थाम बैठ गयी, सूनी सूनी आँखों से देखने लगी. उन्होंने गिलास को राधिका के हाथ से लिया और कहा, "आपको आराम की सख्त ज़रुरत है, आप लेट जाईये इसी लोअर बर्थ पर." चद्दर बिछी हुई थी, उस व्यक्ति कि आवाज़ में ना जाने कैसा जादू था, राधिका चुप-चाप लेट गयी. व्यक्ति ने चद्दर उढा दी और कहा कि आप बिलकुल महफूज़ हैं, किसी भी तरह कि फ़िक्र ना करें.....मैं सब संभाल लूँगा. टिकेट एक्जामिनर आया, उस ने उस व्यक्ति को बहुत आदर से नमस्कार किया.....वह व्यक्ति बोला यह भी उनके साथ हैं, अचानक प्रोग्राम बना, तवियत नासाज़ है इसलिए सोयी हुई हैं, पेनाल्टी सहित रुपये लेकर इनकी टिकेट भी रायपुर तक कि बना दें. नाम श्रीमती आर कुमार लिख दें. आवश्यक कार्यवाही के पश्चात् टी टी ई चला गया. एक कौने में बैठ वह व्यक्ति 'रीडर्स डाईजेस्ट' के पन्ने पलट रहा था. अचानक राधिका उठ बैठी.
"मुझे रंजन कुमार सिंह कहते हैं लोग. मेरा कार्य क्षेत्र फिलहाल रायपुर-मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ नहीं बना था उस समय) है. मुझे लोग 'कुमार' के नाम से जानते हैं. रायपुर में मैंने कई गतिविधियाँ शुरू कर रखी है पढाई लिखाई, आदिवासियों के उत्थान, उन्नत खेती इत्यादि के विषय में. आप घबराइए नहीं मुझ से जो बन पड़ेगा आपकी सहायता के लिए करूँगा. मुझे खुल कर सारा माज़रा बताइए."

कुमार साहब के शब्द बिलकुल ठोस और अपनत्व कि पुट लिए हुए थे. कनपटियों के पास सफ़ेद बाल उनकी प्रौढ़ अवस्था को बता रहे थे....मोटा सा काले फ्रेम का ऐनक बता रहा थे कि वे एक पढ़े लिखे इंसान है. रौबीला चेहरा आत्मीयता लिए हुए था. कुल मिला कर उनकी उपस्थिति के स्पंदन एक सुकून और सुरक्षा का वातावरण उस कूपे में पैदा कर रहे थे. उनकी 'साल्ट एंड पेप्पर' दाढ़ी मोंछ एक मुस्कान लिए थी. उनकी आँखों में अनकहे आश्वासन भरे हुए थे. पहली बार राधिका को एक मर्द की उपस्थिति में शांति का अनुभव हो रहा था.

राधिका ने कुछ कहा, कुमार साहब ने कुछ सुना......जब जब राधिका चुप हुई, कुमार साहब ने कभी पानी, कभी बिस्किट और कभी सांत्वना भरे शब्द राधिका को पेश किये. कुछ शब्दों में कुछ स्पंदनों से राधिका ने आप बीती बता दी थी और कुमार साहब ने सुन ली थी .

कुमार साहब कह रहे थे, "राधिकाजी जो कुछ आपके साथ हुआ किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं हुआ, किन्तु एक बात अच्छी हुई कि आप आज एक नयी शुरुआत खुद के लिए कर सकती है. प्रभु ने आपको हिम्मत और सहनशीलता दी है. आप ने शिक्षा, मनोविज्ञान और दर्शन जैसे विषयों में बी.एस.सी.(ओनर्स) कि डिग्री गोल्ड मैडल के साथ हासिल की है. बचपन से आपने घर को मेनेज किया है. छोटे छोटे बच्चों को पढ़कर आपने साबित कर दिया है कि आप ने अपनी शिक्षा को व्यवहार में लागू किया है. आपके लिए बहुत सी संभावनाएं फूल मालाएं लिए स्वागत को खडी है....बस आपकी हामी चाहिए." राधिका को स्वयं को भी अपने इन गुणों का एहसास नहीं था. वह तो मंत्र मुग्ध सी कुमार साहब को सुन रही थी.
"देखिये हर अच्छे कम में समय लगता है, हमें अपनी लग्न और मेहनत उसमें लगनी होती है. प्रभु जब हमारी इमानदारी और दृढ संकल्प को देखते हैं तो हमें यथा समय यथेष्ठ फल से नवाजते हैं. हमें बस धैर्य धारण करना होता है और उस पर विश्वाश बनाये रखना होता है." कह कर कुमार साहब ने पानी के कुछ घूँट भरे.
"आपके लिए मेरे दीमाग में एक प्लान है......हम लोग एक स्कूल चलाते है आदिवासी बच्चों के लिए....उसमें एक अध्यापिका कि आवश्यकता है....रहने कि व्यवस्था स्कूल के पास ही हो जायेगी, मेहनताना इतना मिलेगा कि एक इन्सान सादगी से खा पी सकता है. हाँ एक शर्त है आपको हमारी बात माननी होगी."
कुमार साहब इतना कह कर चुप हो गये थे. राधिका आसमंजस में थी, कि ऐसी कौन सी शर्त है जो यह व्यक्ति रखनेवाला है इस उपकार के एवज में. कहीं यहाँ भी पाखंड का बोलबाला है.
राधिका बोली, "जी, आपकी सब बातें मेरे लिए उचित ही लग रही है, किन्तु यह शर्त वाली बात...बिना इसका खुलासा हुए कैसे कह सकती हूँ कुछ." राधिका को लग रहा था कहीं यह व्यक्ति उसकी मजबूरी का फायदा उठाने के लिए भूमिका तो नहीं बना रहा.

कुमार साहब मानो राधिका के मन को पढ़ रहे थे, कहने लगे, "राधिकाजी ! हमें आपकी यह बात बहुत अच्छी लगी कि आप हामी भरने से पहले शर्त जानना चाह रही है. देखिये हमारा इरादा आप पर बहुत बौझा डालने का है.....आपको अपनी मास्टर्स कि पढाई जारी करनी होगी...पत्राचार द्वारा....उसमें भी आपको पूर्ववत् सफलता पानी होगी.....उसके बाद आपको पीएचडी भी करनी होगी. इन सब के लिए आपको कुछ छात्रवृति और कुछ ऋण हमारे संस्थान से मुहैय्या कराया जायेगा. अंधकार को वो ही दूर कर सकता है जो खुद रोशन हो. हमें आशा है हमारी यह शर्त आप को मंज़ूर होगी." फिर उभरा उनका अपनत्व भरा स्वर, " यह कोई अंतिम बात नहीं, यदि आपको नहीं मुआफिक हो तो थोड़ी बहुत तबदीली भी की जा सकती है, आप सोच कर जवाब दीजिये. तब तक मैं खाना लगाता हूँ.
राधिका को लगा उसे कोई देव-वरदान मिल गया हो. उसने कहा, "सर ! आप जो कुछ कह रहे हैं वह शर्त नहीं मेरे पुनर्निमाण कि योजना है, जिसमें शिरकत करना मेरा सौभाग्य होगा."
खाने कि भूख अचानक जग आई थी. लग रहा था भूत के सारे अक्षर मानो उसके जीवन के श्याम पट्ट से मिटने लगे हों और नयी तहरीर लिखि जा रही हो. राधिका को अँधेरी सुरंग के बाहिर रोशनी कि एक लकीर दिखने लगी थी.

खाना खाने के बाद, राधिका लोअर बर्थ पर और कुमार साहब ऊपर कि बर्थ पर सो गये थे. नारी का मन मस्तिष्क बहुत संवेदनशील होता है. नारी पुरुष के मनोभावों को उसकी नज़रों, उसकी बातों, उसकी भाव भंगिमाओं से ताड़ लेती है. राधिका को महसूस हो रहा था कि कुमार साहब जैसे इंसान कि उपस्थिति किसी गैर-मर्द के साथ अकेले रात बिताने का खौफ नहीं एक बहुत ही सुकून और सुरक्षा का सोपान है, जिसे आत्मा महसूस कर सकती है.
दूसरे दिन रायपुर स्टेशन पर कुमार साहब को लेने उनके सचिव गजेन्द्र जोगी आये थे. कुमार साहब ने कहा, "गजेन्द्र ! ये राधिकाजी हैं. हमारे साथ कम करेंगी. इन्हें महिला प्रखंड में शान्तिबेन से मिलवा देना. इनसे जो बात हुए है ये ही तुम्हे बता देंगी और उन्हें भी. नयी हैं, इनका पूरा खयाल रखना. हाँ मुझे तुरत ही विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने जाना है, इसलिए मैं अपने कोटेज को चला जाऊंगा ताकि तैयार हो कर वहां समय पर पहुँच सकूँ." गजेन्द्र जीप से राधिका को शन्तिबेन के पास ले जा रहे थे और कुमार साहब अपनी गाड़ी से कोटेज को प्रस्थान कर रहे थे. हाँ उन्होंने राधिका से, "All the best." ज़रूर कहा था उसी गरिमामय मुस्कराहट के साथ.

कुमार साहब का स्वयंसेवी संगठन "आदिवासी मित्र" का हिस्सा बन गयी थी राधिका. यथा समय उस ने MA Phd किया, अपने आपको हृदयतः कुमार साहब के विचारों के क्रियान्वन में लगा दिया. कुमार साहब के प्रति उसके मन में अगाध प्रेम भर गया था. समय समय पर उनसे बहुत कुछ सीखा था उसने....ध्यान कि विधियां....प्राचीन संस्कृति और अध्यात्म का आधुनिकता से सामंजस्य करते हुए अध्ययन, मानवीय संबंधों के भावनात्मक और विवेकपूर्ण पहलुओं का संतुलन, समाज सेवा के myths और वास्तविकताओं का विश्लेषण. राधिका का मन अधिकाधिक कुमार सर के आसपास रहने का होता. उसने उनकी पुस्तकों का संपादन करने का कार्य भर भी स्वयं पर ले लिया. यदा कदा कुमार साहब के अस्वस्थ होने पर उनकी देखभाल करने में उसको बहुत सुकून मिलता. ना जाने क्या क्या कल्पनाएँ खुद को कुमार साहब से जोड़ कर करने लगती.....मानो श्यामपट्ट पर लिखती और मिटा देती.....इस लिखने और मिटाने में भी कितना अनिर्वचनीय सुख मिलता राधिका को.
२००९ के राष्ट्रपति पुरुस्कारों में राधिकाबेन को छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए सफलता पूर्वक शिक्षा, रोज़गार, नशामुक्ति, सांस्कृतिक सुरक्षा इत्यादि कार्यक्रमों में असाधारण उपलब्धियों के लिए चुना गया था. राधिका रविशंकर विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र कि प्रोफ़ेसर भी लग गयी थी और रायपुर को केंद्र बना नाना प्रकार की जनोपयोगी गतिविधियों में स्वयं को लगाये हुए थी.
राधिका ने एक बार फिर सेलफोन कि जानिब मुस्कुरा कर देखा मानो कुमार साहब को मुखातिब हो रही हो. वह कुर्सी से उठी और ड्राईवर को कहा कि गाड़ी निकाले, विश्वविद्यालय जाना है.




Saturday, September 19, 2009

दुष्प्रलाप........./Dushpralap.......

1)
गज की
संपुष्ट देह...
राजसी चाल
देख
भूंकते है
स्वान,
लख
दृश्य यह
कदापि
थूकते नहीं
इन्सान...........

Gaj ki
Sampusht deh
Rajasi Chaal
Dekh
Bhunkte hain
Swan,
Lakh
Drishya yah
Kadapi
Thookte nahin
Insaan..........

2)
घट नहीं सकता
सन्मान गज का
स्वानों के कुप्रलाप से,
क्यों चिंतित होता है मन
दुर्जनों के दुष्प्रलाप से.

Ghat nahin sakta
Sanmaan gaj ka
Swanon ke kupralap se,
Kyon chintit hota hai man
Durjanon ke duspralap se.......

Friday, September 18, 2009

अवतार........./Avtaar.........

असत्य को मिटा
सत्य को किया
स्थापित
हुए हैं ऐसे
अपने
कई
'अवतार'................

अफ़सोस !
नाम पर उनके
ठगी
प्रपंच
अन्धविश्वाश
बैर
विरोध की
रचना कर रहा
मूढ़
संसार.......

Asatya ko mita
Satya ko kiya
Sthapit
Hue hain aise
Apne
Kayi
Avtaar.........

Afsos !
Naam par unke
Thagi
Prapanch
Andhvishvas
Bair
Virodh ki
Rachna kar raha
Moodh
Sansaar.....

Wednesday, September 16, 2009

एक नसीहत सुबहा की/ Ae Naseehat Subaha Ki....

देख कर
उजास मेरा
गिरा दिया क्यों
होकर बेफिक्र
दीये को
कचरे की पेटी में,
बना कर
बेगाना........

Aek Nasihat Subaha Ki
Dekh kar
Ujas mera
Gira diya kyon
Ho kar befikr
Diye ko
Kachre kee peti men
Bana kar
Begana............

अरे नादाँ !
अँधेरा तो
किया करता है
पीछा हमेशा
उगते सूरज का,
यह तो है
झगड़ा रोज़मर्रा का,
नामुमकिन है
इसको मिटाना
अंजाम है यही
यही है
ठिकाना.........

Are Nadan !
Andhera to
Kiya karta hai
Peechha hamesha
Ugate suraj ka,
Yah to hai jhagda
Rozmarra ka
Namumkin hai
Isko mitana
Anzam hai yahi
Yahi hai
Theekana.......

चाहते हो
गर खैर
भोली नज़र की,
जोड़ दो उसको
एहसासों से
तजुर्बों से
जो दे रहा है
तुझको
ज़माना................

Chahte ho
Gar khair
Bholi nazar ki,
Jod do usko
Ehsasosn se
Tuzurbon se
Jo de raha hai
Tujhko
Jamana.......

शब्द और अर्थ / Shabd Aur Arth.......

सुन गर्जन
मेघों का
नाहर क्रोधित
करे निनाद,
ताने छतरी
नृत्य करे है
हर्षित हर्षित
मोर.............

शब्द एक
शब्दार्थ भिन्न,
गृहण करे
कुछ और
कोई और ..........

Sun garjan
Meghon ka
Nahar krodhit
kare ninaad,
Taane chhatri
Nritya kare hai
Harshit harshit
Mor...........

Shabd aek
Shabdarth bhinn
Grahan kare
Kuchh aur............
Koyi aur...........

बात बात का फर्क......

राजस्थान से हमारे कुछ रिश्तेदार हैदराबाद आये हुए हैं. उनमें एक ठाकुर फतह खान साहब हैं और उनके साथ में आये हैं चौधरी कुशला राम जी. दोनों ही धरम भाई बने हुए हैं, याने दोस्त हैं. भाईपे की यह परंपरा पीढियों से चली आ रही है. ब्याह,निकाह,जनम, जनाजा, सभी कामों में दोनों परिवार ऐसे शिरकत करतें हैं मानो एक ही हों. मानो क्या बस एक ही हैं. आज कल रात में गप्पों कि महफिल जमती है, राजस्थान के किस्से, कहावतें, नात, भजन, हंसी मजाक ना जाने क्या क्या बातें होती है, घर के बुजुर्ग हम से ज्यादा रूचि लेते हैं, मगर हमें भी मरुधर के एहसास सुख देते हैं. वहां से आये बुजुर्गवारों के पास तरह तरह के किस्सों और घटनाक्रमों की बातों का अकूत खजाना है......दोनों ही उम्रदराज़ हैं, ज़िन्दगी की रोज़मर्रा की ज़रूरतों से परे.....कुशलाराम जी भी रोजा रख रहे हैं, इस बार ही नहीं बरसों से. ठाकुर साहब भी सुना है महा शिवरात्रि का व्रत रखतें हैं. कल उन्होंने एक गज़ब किस्सा सुनाया जिसे आप से शेयर करना चाहूंगी.

कुछ बातें आपको किस्सा शुरू करने से पहिले बता देती हूँ ताकि आप को किस्से का ज्यादा लुत्फ़ मिल सके. राजस्थान के आम गाँव में हिन्दू, मुस्लिम और जैन बहुत ही प्रेम से रहते हैं. हिन्दुओं में ब्राहमण, राजपूत, जाट, सुनार, माली, बनिए आदि और अनुसूचित जाति के लोग होतें हैं. मुसलमानों में कायमखानी/मोहिल/भाटी/राठौर आदि राजपूत मुस्लिम, छीपा(रंगरेज़), तेली, कसाई, मिरासी/ढाढी /मंगनियार ( musicians), बुनकर, बिसाती आदि होते हैं, कुछ मुल्ला मौलवी याने सयेद/शेख भी. कुल मिलाकर सब लोग आपसी प्रेम में रहते हैं. जो आज़ादी से पहिले बहुत ज्यादा था......भाषा, तौर तरीके काफी कुछ मिलते हैं, थोडा बहुत पोशाक में फर्क होता है मगर सब बातों को सोचा जाय तो लम्बा चौडा फर्क नहीं महसूस होगा. मुसलमानों में मृत्यु के बाद चालीसा सींचा जाता है, याने कब्र कि हर सुबह विजिट करते हैं और जल छिड़कते हैं. जरख एक जंगली जानवर होता है, जो रोही (जंगल) में रहता है, पालतू खाजरू (भेड़ बकरी आदि ) को उठा ले जाता है.
सफी तेली के बाप का इन्तेकाल हो गया. ज़नाजे में सब शामिल हुए. वालिद्सहिब के पार्थिव शरीर को धार्मिक संस्कारों के साथ गाँव के काजी (मौलवी) की हाजिरी में खेतों के बीच बने कब्रस्तान में दफना दिया गया था. सफी रोज़ सबेरे चालीसा सींचने जाता था.चोमासा (बरसात के चार महीने) था. पास ही में नोला राम जाट अपने खेतों में दिन रात काम करता था. एक दिन सफी मियां देखते हैं कि कब्र खुदी पड़ी है, और वालिद साहब कि डेड बोडी नदारद है. नोला राम ने कहा, "मैं धोरे( टीले) पर खडा था, देखा कि एक जरख लाश को उठा कर भागे जा रहा है, मैं दौड़ा भी, मगर जरख हाथ नहीं आया."
सफी मियाँ बात को सहज ले, उस से पहिले ही काजी साहब जो साथ में थे लगे कहने, "चौधरी तौबा तौबा, मरहूम कासिम साहब बहुत ही सच्चे इंसान थे, ईमान वाले, अरे उन्हें तो फ़रिश्ता ले गया है, तुम बकवास करते हो, जरख कहाँ से आएगा यहाँ."

बात अच्छी थी और इज्ज़त बढानेवाली थी सफी मियां के मन को भी भा गयी और काजी साहब ने भी कोई 'future prospects' (भेंट/जगात/खैरात) के अंजाम होने की संभावनाओं को घटना में देख लिया था.
अब चौधरी नोला राम ठहरे स्पष्टवादी, भिड गये, काजी साहब से, लगे कहने, "जरख ही था जी, मैंने अपनी आँखों से देखा है, सफी भाई को ठगने का आपका मंसूबा है काजीजी, कुछ तो भगवान से--- खुदा से डरिये."
मौलवी ने बहुत अच्छे से सफी की ब्रेन वाश कर दी थी इस बीच, सफी भी जोर देकर कहने लगा--" काजीजी ठीक ही कहते हैं, अब्बा मरहूम बहुत ही नेक इंसान थे, फ़रिश्ता उन्हें जन्नत को ले गया."

अब एक ही बात के दो निर्वचन होने लगे, नोला राम और सफी में जिद-बाद होने लगा, काजी दूर रह कर तमाशा देखने लगा. इतने में सेठ घेवर चन्दजी छाजेड (जैन ओसवाल बनिया ) और सेठ किशन लाल जी राठी (हिन्दू बनिया) वहीँ दिशा-मैदान (सुबह का नित्यक्रम) निपटा कर आ गये थे . पूसा ढाढी, इब्राहीम छीपा, नाथू ब्राहमण, नसीबन दादी बिसातन सब जमा हो गये थे . वाकये को सबने सुना. सारे लोग आश्वस्त थे की काजीजी अपना खेल खेल रहे हैं, और आने वाले वक़्त में लगातार आमदनी का जरिया बना ने जा रहे हैं, मगर बोले कौन. भावनातमक बात जो थी. सफी के पिताजी अभी अभी गुज़रे हैं, वह दुखी है. बात बढ़ गयी तो ना जाने कहाँ तलक जायेगी. बात ठंडी हो जाये तब सफी को समझाया जा सकेगा. नसीबन दादी समझदार थी, उसने सोचा कि इस विवाद का खात्मा किसी तरह यहीं कर दिया जाय, फिर अकेले में सफी और उसकी बीवी नुसरत को समझाया जायेगा.

"घेवरजी-किशनजी आप समझदार साहूकार है, सारी कौमें आपको इज्ज़त देती है....आप बताएं कि क्या कहा जाय......कैसे इस बात का निस्तार किया जाय." नसीबन बोली और शायद कुछ इशारा भी किया.

सेठ लोगों ने कहा--- "भाईयों, बैठो, मरहूम कासिम साहब का गुणगान करें, सफी जैसा बेटा कहाँ मिलता है, खूब सेवा कि उसने अपने अब्बा हुज़ूर की. नुसरत भी कितनी अच्छी बहु, कासिम भाई को अपने बाप से बढ़कर मानती थी. मौलवी साहब भी बहुत विद्वान् है. झगड़ा किस बात का. नोला राम भी सही कह रहा है, और काजीजी भी. सुना है तुम ने :

बात बात रो आंतरो, बात बात रो फरक !
थे कहो फरिसतो म्हे कहवां जरख. !!

(बात बात का अंतर होता है, बात बात का फर्क होता है. आप जिसे फ़रिश्ता कहते हैं उसी को हम जरख कहते हैं. ......याने फ़रिश्ता जरख का रूप धरकर आया था.)
चलो भगवान दिवंगत आत्मा को शांति दे. सफी तुम उनके सब काम अच्छे से करो और काजीजी हम लोग आपके घर गेंहू की बोरी, चीनी का कट्टा, घी का गुन्वलिया भिजवा देते हैं. कासिम मियां हमारे दोस्त थे, सफी हमारे बेटे के समान है, इस से कुछ खर्चा ना कराएँ."

काजी भी देखा बहुत कुछ मिल गया, बात बढेगी तो यह भी नहीं मिलेगा, और सफी भड़क गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे. बोला, "ऐसा मंजर कभी कभी देखने को मिलता है, हम सब को खामोश रहना है, कब्र को ठीक से बंद कर दिया जाय, किसी ना किसी सूरत में मरहूम कासिम मियां यहाँ सोये हुए है, बस हम सब देख नहीं पा रहे हैं ."

आम सहमति बन गयी थी. सभी असलियत को समझ रहे थे. इस तरह समझदारी से एक बेबुनियाद विवाद का हल निकाला गया था.


अक्षर नवीन/.Akshar Naveen.................

श्यामपट्ट
एवम्
खड़िया हैं
निमित मात्र,
जान लो
समझ लो
चाहे
इन पर लिखे
लेखों को.........

नयनों !
करना है यदि
अध्ययन तुम्हे
नव विद्या का,
मिटाने होंगे
आलेख प्राचीन
लिखने हेतु
अक्षर नवीन.............

Shyampatt
Aevam
Khadiya Hai
Nimit Matra,
Jan lo
Samajh lo
In par likhe
Lekhon ko...........

Nayanon !
Karna hai yadi
Adhyayan tumhe
Nav vidya ka
Mitane honge
Aalekh Pracheen
Likhne hetu
Akshar naveen......

आगे पीछे............

# # #
स्वीकार लिया
पावों ने
आगे पीछे
चलना,
करने लगते
यदि वे
विवाद
बकवाद,
गति
बन जाती
एक सपना....

Sunday, September 13, 2009

ज्ञान............


जब परदा
पड़ता
ज्ञान पर
अविद्या लेती
आकार
इसी स्थिति को
नाम हम
देते हैं
अंहकार.......


उत्पन्न
होतें
मानव
मन में
अविद्या के भाव
बन जाता
तद्प्रभाव से
विकारयुक्त*
स्वाभाव.......

*(राग,द्वेष, इर्ष्या,मोह, लोभ आच्छादित)

निर्दयी/ Nirdayi ?

दिए शत्रु के
ज़ख्म का
करता समय
भराव..............
कहता
वक़्त को
निर्दयी
कैसा मनुज
स्वभाव..........

diye shatru ke
zakhm ka
karta samay
bharav.....
kahta
waqt ko
nirdayi
kaisa manuj
swabhav......

सीमा निर्धारण.......

सीमा निर्धारण
आवश्यक
जब मन में
बसे विकार,
सीमा रहित
प्रत्यक्ष है
विशाल गगन
निर्विकार..............

Seema nirdharan
Aavashyak
Jab man men
Base vikaar,
Seema rahit
Pratyaksh hai
Vishaal gagan
Nirvikaar..............

Thursday, September 10, 2009

अपने पंख पसार....

# # #
देखा था
नीड़ बसी
चिड़ियाँ ने
गगन का
विस्तार,
पाकर उसको
निर्विकार,
चली थी
उड़ वो
अपने पंख
पसार....

स्वांग :आशु कविता........

इंसान जीने को
समझले गर स्वांग,
स्वांग में ले आए
हकीक़त जीने की
आने लगेगी खुशबू
हर पल
जीने के करीने की.........

खेल है ज़िन्दगी
कोई खेला इसे
हंस के होकर
ग़मों से परे,
सुनाये किसी ने
नाले चन्द
दर्द भरे,
लगायी मरहम किसी ने
किए हैं किसी ने घाव हरे.......

सलीका जीने का
सीखना है गर
दिल को जोड़ले तू रब से,
फूटेगी ख़ुद-बा-ख़ुद
तवस्सुम तेरे लब से,
ऐ अंधेरों में भटकते राही !
खड़ी है रोशनी
नवाजने को
तुझको कब से.......

Wednesday, September 9, 2009

अमृत/Amrit...........

विष
प्रत्क्ष्यतः
प्राप्य है
अमृत नहीं
दृष्टव्य है.......

अमृत कहाँ ?
अमृत कहाँ ?
थक गये
अज्ञानी
टटोल टटोल,
समझ पायें
ज्ञानी
मर्म को,
विष
अमृत का खोल.....

Vish
Pratakshyatah
prapya hai,
Amrit nahin
Drishtavya hai.......

Amrit kahan ?
Amrit kahan ?
Thak gaye agyani
Tatol tatol,
Smajh payen
Gyaani
Marm ko,
Vish
Amrit ka khol.......

Tuesday, September 8, 2009

मुल्ला की हाज़िर-जवाबी उर्फ़ गणित मुल्ला का

मुल्ला नसरुद्दीन भी अपने दोस्त प्रोफ़ेसर विनेश राजपूत की संगत में रह कर हाजिरजवाब हो गये. हर भूल का कोई ना कोई जस्टिफिकेशन मुल्ला निकाल ही लेते हैं.

अभी उस दिन की बात है. मुल्ला नसरुद्दीन का बाज़ार में किसी से झगड़ा हो गया. वह शख्स बड़ा नाराज़ था. उसने गुस्से में आ कर मुल्ला से कहा, "ऐसा झापड़ रसीद करूँगा की बत्तीसों दांत जमीन पर गिर जायेंगे. पूरी की पूरी बत्तीसी धूल चाटेगी."

मुल्ला को भी ताव आ गया. बहुत ही जोश-ओ-खरोश से बोला नसरुद्दीन, " अबे तू ने समझा क्या है, हम ने अगर कस कर एक झापडा मारा तो चौसठों बाहिर आ गिरेंगे." ( दो गुना दावा ठोंकना होता है ना.)

एक तीसरा आदमी,जरा ज्ञानी किस्म का, वहीँ खडा था. उसका ज्ञान वाला कीड़ा कुलकुलाने लगा. बहुत कोशिश कर के भी चुप नहीं रह पाया. ऐसे ज्ञानियों को जो मन में आया अगर नहीं बका जाये तो गैस हो जाती है, घुटन सी महसूस होने लगती है. उनको कुछ ऐसा लगता है की गेम हाथ से गया. हाँ तो जनाब 'तीसरे आदमी' मुल्ला के मुखातिब होकर बोले, " मियां बड़े एहमक हो, इंसान के कोई चौसठ दांत होतें हैं क्या ? तुम ने बायोलोजी में आदमी के शरीर की बनावट (anatomy) वाला सबक ठीक से नहीं सीखा, इतना तो खयाल करो इन्सान के बत्तीस दांत होते हैं चौसठ नहीं."

मुल्ला, विनेश सर का दोस्त.....पट्टे का खिलाडी. दाग दिया उसने, " अमां अपने दामन में झांक ! गणित में फ़ैल हुआ लगता है, अरे हमें तो पहिले ही से मालूम था कि तुम बीच में कूद पड़ोगे, इसलिए बत्तीस के दुने चौसठ, एक ही झापडा में दोनों के गिरा दूंगा."

(मुदिता दी : 'तीसरे आदमी' को गणित सिखानी है, आपको रेफर करूँ क्या ? हाँ अगर शागिर्द बहुत हो गये हों, काम बढ़ाना हो तो मुल्ला को रख लीजिये एकाध बैच दे दीजियेगा.....कितने ज़हीन हैं मुल्ला आप जानती ही है. )

आदमी अपनी मान्यताओं के लिए कारण खोजता जाता है, कारणों के थप्पे लगाये जाता है ताकि मान्यताएं टूट ना जाये, फूट ना जाये. कुछ ना कुछ जोड़-तोड़ बिठाए जाता है. आदमी से भूल हो जाये तो भी उसे जानते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करता, अपनी भूल के लिए भी कारण खोज लेता है, तर्क खोज लेता है...... भूल को स्वीकार करना साहस से ज्यादा एक प्रैक्टिकल बात है....जिस ने भूल को स्वीकार कर लिया उसके भूल रहित होने के चांस ज्यादा है. हाँ मुल्ला कि तरह के ज़हीन लोग अपनी मान्यताओं को कुछ इस तरह से मेन्टेन करते रहते हैं और गलतियों को जस्टिफाई भी कर लेते हैं, सिर्फ शोर्ट टर्म बेनेफिट के लिए. आखिर मैं उन्हें ही पछताना होता है : खुदा मिला ना विसाल-ए-सनम.

Monday, September 7, 2009

चाकी/Chaaki........

ना जाने क्यूँ
ऐ चाकी
इतरा रही है तू
पीस के
गरीब दानों को,
ना जाने किस सुर में
गूंजा रही है तू
अपने गानों को.......

घिस रहा है
तेरा भी तन मन
पछताएगी तू
जिस दिन
टांचा जायेगा
तेरा भी बदन.....

Na jane kyun
Aey Chaaki
Itra rahi hai tu
Pees ke
Gareeb daano ko,
Na jane kis sur men
Goonja rahi hai tu
Apne ganon ko....

Ghis raha hai
Tera bhi tan-man
Pachhtayegi tu
Jis din
Tancha jayega
Tera Bhi badan.......

(Inspired by a Rajasthani Wisdom)

ऐ महक !/Aey Mehaq !

शब्द ये तेरे,
दे सकते क्या
सत्य को अवलम्ब ?
दर्पण तेरा क्या
दर्शा पाता
अरूप का प्रतिबिम्ब ?

Shabd tere,
De sakte kya
Satya ko avalamb ?
Darpan tera kya
Darsha pata
Arup ka pratibimb ?

Swaang......

Insaan jeene ko
Samajhle gar swang
Aur swang men le aaye
Haqiqat jeene ki
Aane lage khushboo har pal
Jeene ke kareene ki.........

Khel hai zindagi
Koyi khela ise hans ke
Hokar gamon se pare
Aur sunaye kisi ne
Naale chand dard bhare
Kisi ne lagayi marham
Kisi ne kiye hain ghav hare.......

Saleeka jeene ka
Sikhna hai gar
Dil ko jodle tu rab se
Footegi khud-ba-khud
Tavssum tere lab se
Ae andheron men bhatkate rahi !
Khadi hai roshani
Nawazne ko kab se.......

Saturday, September 5, 2009

क्या देखते हो................

तरसती निगाहों में क्या देखते हो
बरसती घटाओं में क्या देखते हो

सुनना ओ समझना गवारा नहीं है
लरज़ती सदाओं में क्या देखते हो

दिल हुआ जानम पत्थर तुम्हारा
तड़फती इन आहों में क्या देखते हो.

चलना नहीं साथ तुम को गवारा
सरकती इन राहों में क्या देखते हो.

बहारों से तुम दुश्मनी कर रहे हो
मचलती फिजाओं में क्या देखते हो.

खामोशी आवाज़ दे रही है खुदा को
गरज़ती दुआओं में क्या देखते हो.

'महक' से यह महफिल रोशन हुई है
थिरकती शम्माओं को क्या देखते हो.

बावरी उमर/Bawri Umar......

कंघी से
दांत
और
आईने से
नज़र,
लेकर
उधार
इतराए
क्यों
बावरी
उमर.........?

Kanghi se
Daant
Aur
Aaine se
nazar,
Lekar
Udhaar
Itraye
Kyon
Bawari
Umar........?

मुरलीया/Muraliyaa........

काटते हैं
गिरा कर,
दाजते
दागते
छेदते हैं
गरम सलाखों से,
संभाल पाता है तब
अनहद के सुरों को
बन कर मुरलीया
यह थोथा बांस.....

Kaat.te hain
Gira kar,
Daajte
Daagte
Chhedten hain
Garam salakhon se,
Sambhaal pata hai tab
Anhad ke suron ko
Ban kar muraliyaa
Yah thotha bans........

Thursday, September 3, 2009

दमन / Daman.......

दबी थी जब
नन्ही सी
एक चींटी,
काटा खाया था
उसने,
होकर व्यथित
तुझ को..............

ऐ दोस्त !
मत कर दमन
निज सोचों का,
पीड़ित हो
डस ना ले,
सोच तेरे ही
तुझ को.............

Dabi thi jab
Nanhi si aek chinti,
Kat khaya tha
Usne,
Hokar vyathit
Tujhko............

Aey Dost !
Mat kar daman
Nij sochon ka,
Peedit ho
Dass na le,
Soch tere hi
Tujh ko..................

Wednesday, September 2, 2009

क्या करेगी ? /Kya Karegi ?

Nahin hai roshan
Antar-man
Shamma
Kya karegi ?

Boya nahin
Beej koyi
Barish
Kya karegi ?

Soya hai tu
Gafalat men
paigam-e-aaftab liye
Kiran
Kya karegi

Jad ko seenchne ki
Kar mashakkat
Aey Dost !
Pattiyon pe giri
Fuhaar
Kya karegi ?

नहीं है रोशन
अंतर-मन,
शम्मा
क्या करेगी ?

बोया नहीं है
बीज कोई,
बारिश
क्या करेगी ?

सोया है तू
गफलत में,
पैगाम-ए-आफ़ताब लिए
किरण
क्या करेगी ?

जड़ को सींचने की
कर मशक्कत
ऐ दोस्त !
पत्तियों पे गिरी
फुहार
क्या करेगी ?



Tuesday, September 1, 2009

आंसुओं के फूल............

दर्द के
अनमोल दरख्त पर
नहीं होते सिर्फ
कसकों के शूल
करुणा के पलों में
विरह की रुत में
उन्माद के क्षणों में
बरसते हैं
उस से
आंसुओं के फूल...........

Dard ke
Anmol darakht par
Nahin hote sirf
Kasakon ke shool
Karuna ke palon men
Virah ki rut men
Unmad ke kshanon men
Barste hain
Us se
Aansuon ke phool..........

सबसे बड़ा भय/Sab Se Bada Bhay..........

फिरता है जंगल में शेर
मंडराता है नभ में बाज़
रेंगता है राह में विषधर नाग
भय सब से बड़ा है भूख
जो नहीं बैठने देता
पशु को बाड़े में
पक्षी को नीड़ में
पाँव को घर में....................

Firta hai jangal men sher
Mandarata hai nabh men baaz
Rengta hai raah men vishdhar naag
Bhay sabse bada hai bhookh
Jo nahin baithne deta
Pashu ko baade men
Pakshi ko need men
Paon ko ghar men............