Wednesday, December 29, 2010

पतन...

# # #
हुआ था पतन
राजा रावण
शक्तिशाली का
अतिशय दर्प से,
दुर्योधन
योद्धा बलशाली का
अतिशय लोभ
एवम्
ईर्ष्या से,
राजा बाली का
अतिशय दान से
उत्पन्न
अहंकार अति से...

चारित्रिक विकार त्रय
लोभ,क्रोध एवम् मद,
चढ़ा देते हैं
रंगीन ऐनक
आँखों पर,
देखने लगता है
मनुज
जिस से
व्यक्तियों,
घटनाओं एवम्
संबंधों को
उन्ही रंगों में..

मानव मन
हो जाता है
सम्मोहित
एवम्
जाता है
भटक
नकाराताम्क
मृग मरीचिका में
जिससे होना
विमुक्त
हो जाता है
लगभग
असंभव..

(गीता में वर्णित 'रजोगुण' के निर्वचन पर आधारित एक दार्शनिक वार्ता से प्रेरित)

Sunday, December 26, 2010

मान्यताएं और सत्य....

बिना सोचे समझे बरसों तक मानते रहे हम कि धरती चपटी है....सूरज धरती के चारों तरफ चक्कर लगाता है...सूरज आता है उगने के लिए और चाँद भी... इत्यादि. हमारे धर्म ग्रंथों में भी ऐसी ही बातें कही गयी है. कोई चार दशक पहले तो इन बातों पर गरमा गरम बहस होती थी. मज़े की बात यह है कि इन सब बातों के बेसिक्स पर लगभग सभी धर्मों की आम सहमति थी. उपग्रहों, राकेटों, अन्तरिक्ष यात्रियों ने आँखों देखा हाल बता दिया, तस्वीरों में कैद भी कर दिया, लगभग चुप्पी हो गयी, मगर आज भी गाहे बगाहे मिल ही जाते हैं लोग जो साबित करते हैं कि धरती चपटी है वगैरह, बड़े जिद्द के साथ. तरह तरह के प्रमाण भी देते हैं, कोई चुप रहे तो उसकी हार की मुनादी कर सुख़ भी पा लेते हैं ऐसे लोग. क्या किया जाय ?

# # #
देखा गगन है निराकार
किन्तु
रोपे खूंटे मानव ने
करने दिशाओं की सृष्टि,
होता नहीं कभी भी
उदय या अस्त सूर्य,
परन्तु
नहीं स्वीकारती
सटीक सत्य को
जुडी प्रत्यक्ष से,
खंडित मानव दृष्टि..

होते नहीं कभी भी
समय के कालखंड :
भूत अथवा भविष्य,
होता है शास्वत
वर्तमान मात्र
है वस्तुतः
यही रहस्य..

आदी है मानव
समय को करने
परिभाषित
घटनाओं से,
करता है सञ्चालन
समूह का वह
असंगत
भ्रमपूर्ण
वर्जनाओं से..

Saturday, December 18, 2010

चन्द सौरठे

चन्द सौरठे

(चूँकि इस विधा में मेरा यह प्रथम प्रयास है, भाषा राजस्थानी ब्रज मिश्रित साधुक्कड़ी अपनाई है. तकनीकी भूल होना स्वाभाविक है, सुधिजन जिनको इस विधा की जानकारी है कृपया तकनीकी गलतियां पॉइंट आउट करें और उनके सुधार के लिए सुझाव दे सकें तो मेहरबानी होगी, सादर ! ----महक अब्दुल्लाह खान.)

किसकी जाणू जात, किण किण री सेवा करूँ,
बस थांरो मानूं साथ, जग महकूँ मैं फूल सी.

(किसके बारे में दरयाफ्त करूँ और किस किस की खिदमत करूँ, हे अल्लाह बस तेरा ही साथ मानती हूँ, इसीलिए इस कायनात में फूल के समान महकती हूँ.)
****
करता तणा संसार, माणस थारो-म्हारो करे,
पड़े बगत की मार, जोग जोड़े करतार स्यूं.

(प्रभु की दुनिया है यहाँ, फिर भी मनुष्य 'मेरा है- तेरा है' करता रहता है (भूल कर उसको), जब वक़्त की मार पड़ती है तो इंसान भगवान् से नाता जोड़ने लगता है.)

आखर पढ़ कर दोय, बात करे कुरआन की,
भीतर भीतर रोय, लाल बुझक्कड़ मौलवी.

(दो अक्षर क्या पढ़ लिए मौलवी कुरआन की बातें करने लगा, चूँकि उसे पूरा ज्ञान नहीं इसलिए अन्दर अन्दर रोता है वह तुक्केबाज़ मौलवी.)

गाँठयो हल्दी सूंठ, नांव पंसारी धर दियो,
बिना अक्ल रो ऊंट, पंडत कुहावे खोड़ में.

(हल्दी और सौंठ की चन्द गांठे लेकर बन्दा बैठ गया बाज़ार में और अपने को पंसारी कहने के लिए इन्सिस्ट करने लगा, जैसे की अविकसित इलाके में बेअक्ल सा बरहमन भी पंडित कहलाता है.)

कदमां में अगन जले, धुंवों भयो घणघोर,
रगड़ रगड़ आंख्यां मले,लपट उठी है डूंगरा.

(कदमों के करीब आग लगी हुई है, धुंआ है चारों जानिब, आँखे मल मल कर कोई मूर्ख इंसान पहाड़ पर उठी लपट को निहार रहा है.)

Friday, December 17, 2010

प्रेम : नायेदा आपा रचित

# # #

# # #
होता है प्रेम
कितना
सप्रहणीय..

होते हैं प्रतीत
कष्ट भी
सुखद,
प्राप्य होता
परित्याग में भी
आनंद,
और होती है
वांछा
समर्पण सर्वस्व की...

होते हैं जब
गुंजरित
संस्वर
द्वि-प्राणों के,
होते हैं प्रस्फुटित
पुष्प
ललित कलाओं के....

प्रीति के
मनोरम क्षणों में
हुआ था घटित
जन्म सृष्टि का,
उदगम रागों का,
उत्पति सौंदर्य की,
प्राकट्य शक्ति का
एवम् एक्य
प्रकृति
और पुरुष का...

Monday, December 13, 2010

चन्द दूहे :

# # #

दुई मिल दुनिया ये बनी दुई को मत तू भूल
बदली हवा है वक़्त की अरु बने नये उसूल.

नौ मासन अवधि बड़ी, रह्यो गर्भ में गोय
बिना मात पैदा भयो तब तू स्वयंभू होय.

बदर गयो है जुग जगत को काहे मचाये शोर
कर इज्ज़त तू नारी की समझही अपनी ठौर.

आधी दुनिया कहि कहि कब सौं तू चिल्लाय
हक़ की बतियाँ ज्यों उठे भैंसों सम पंगुराय.

दिन लद गये बल-बाहु के जब से बनी मशीन
मर्द गर्द चाटत रहे जब महिला बनी प्रवीन.

Sunday, December 12, 2010

दर्पण : अंकित भाई रचित

# # #
जीवनहमारा है
एक दर्पण,
निशि-दिन हम
जमने देतें है धूल
इस उजले दर्पण पर;
नहीं करते कभी
प्रयास
हठाने का उसको
और
हो जाता है दर्पण
अंधा,
होतें है जब जब हम
सामने दर्पण के,
कोई और तो क्या
देख नहीं पाते
स्वयं हम
पूर्ण प्रतिबिम्ब अपना...

जब भी हम
सोचें औरों को,
और करें
व्यर्थ और भौंडी
आलोचना उनकी,
ठहरें तनिक
और करें पूर्व उसके
सामना
उजले दर्पण का...

दर्पण
मिथ्या ना बोलेगा
जैसा है
वैसा ही
भेद वह
खोलेगा,
आओ
अपने मन को हम
दर्पण बनायें,
भले बुरे
सारे कर्मों को
देखें और
दिखायें...

Thursday, December 9, 2010

काला और गौरा : नायेदा आपा की रचना

# # #

बढ़ गया हो आगे
इन्सान कितना ही,
कायम है उसमें
जड़ताएं और
नफरतें ,
पैमाने वही है
मापने के....

प्रभावित हैं
हम
भी कि
गौरा अभिनेता
'ह्यू ग्रांट' करता है
महसूस ‘थ्रिल’
नीग्रो कॉल-गर्ल के
साथ यौनाचार में,
गौरों की देखादेखी
चाहे अमेरिका हो
या यूरोप
हम भी अपना रहेँ है
सौंदर्य के
प्रतिमान उनके
मान्यताएं उनकी
‘तकनीक’ उनकी...

हमारे
दिल-ओ-जेहन में
भरा है
कूट कूट कर,
शख्सियत गौरी ही
होती है
काली कलूटी शक्ल से
बेहतर,
भूल जातें हैं
हम अपने
श्याम सलौने को
और
बाज़ार संस्कृति के
अन्धानुकरण में
खो जाते हैं
विज्ञापनों की
दुनियां में,
या होतें है शिकार
इस मनोवृति को
‘एनकैश’ करने वाले
बाजारी बहुरूपियों से....

कालों के प्रति
अपना रहें है
हम भी हिकारत,
न जाने क्यों
सींच रहे हैं
हम
अपने ही खातिर
नफरत..

अपना रहें है,
गुडिया उनकी
गौरी-चिठ्ठी,
सींक की तरहा
दुबली-पतली
सुनहले बालों वाली,
'बार्बी'
जो बन चुकी है ‘बेंचमार्क’
हमारे नारी सौंदर्य का.
भूल कर
खुजुराहो,अजंता, एलोरा,
भुवनेश्वर, कर्नाटक आदि में
अंकित,
भारतीय सौंदर्य को....

बनाई थी
'बार्बी' बनाने वालों ने
हमारे लिए भी
काली 'बार्बी',
बिकी नाहीं थी जो ---
हम कालों के देश में भी
और
बदलनी पड़ी थी
उत्पादक को भी
विपणन नीति (मार्केटिंग स्ट्रेटेजी),
जम गयी है जड़ों तक
हम में
दुर्भीती (फोबिया) गौरेपन की,
मिलता नहीं किसी भी
वैवाहिक विज्ञापन में
काली लड़की का उल्लेख
चाहिए सब को
सिर्फ गौर-वर्णा...

उत्पादक और विज्ञापन
उकसा रहे हैं
इस हीन ग्रंथि को,
भूल रहें है हम
और दे रहें है बढ़ावा
रंग भेद और नस्लवाद को,
बापू के आंदलनों की
हुई थी शुरुआत
जिसके लिए
दक्षिण अफ्रीका में,
दिया था जन्म जिसने
सत्याग्रह को,
गाँधी,
सत्याग्रह
और
आज़ादी हमारी....

अपसंस्कृति
बाजारवाद
की
भुला रही है हमारे
मिटटी के खिलौनों को,
वो मिटटी के लौंधे
और
उनसे बने
हाथी,घोड़े और गुडिया,
लकड़ी का घोड़ा
और कपडे की गुडिया,
दिए जा रहें हैं हम ही
हमारी पौध को
हत्यारे,हिंसक और
प्रतिस्पर्द्धी
खेल खिलौने,
चाहे ‘मिस यूनिवर्स' का हो खेल,
गेम 'AK 56 का
या
खेला रसिंग कोर्स का...

हमें चाहिए
आर्थिक बदलाव
और
सोचों में पश्चिम की
स्पष्टता और ‘फेयरनेस',
ना कि
अपसंस्कृति,
कालेपन से ‘फेयरनेस'
और अपने बच्चों में
हिंसा, प्रतिहिंसा और
भयावह प्रतिस्पर्द्धा के
संस्कार……

वक़्त है अब भी की
हम जागें
और
अपने भारत के लिए
एक आदर्श
प्रारूप बनायें....

Tuesday, November 23, 2010

लास वेगास.....

# # #
आह !
कैसी रोशनी है यह ?
हो गयी है दिन
रात यहाँ की,
सब कुछ तो
चमक रहा है
उजला उजला,
चलो किसी
केसिनो में
करलें याद
कौरवों-पांडवों को,
मुफ्त की शराब,
अधनंगी
नाचनेवाली के
अंग्रेजी ठुमके,
खुशी चंद डॉलर जीतने की
झुंझलाहट हारने की
और
कभी कभी निस्पृहता
जो रूहानी नहीं
औलाद है बोरियत की
हताशा की,
सडकों पर रंगीनियों का
फेशन परेड,
असल की नक़ल,
चाहे वेनिस शहर हो
ताजमहल या
कुछ और,
शानदार होटल
और
अजूबे
तरह तरह के,
पैबंद है
मखमल के
जुए की टाट पर,
पहले से सोचे
'एहसास' कहलाते हैं
'एक्साईटमेंट'
सब कुछ है
'टेम्परेरी' यहाँ
'नथिंग' 'परमानेंट',
करुँगी फिर भी
हर पल
साथ तेरे एंज्वाय,
मुझे भी
लगता है अच्छा
यह थोडा सा
बदलाव...

पूछते हैं
इस उजाले से,
क्या खिला सकते हो फूल,
जगा सकते हो
सोये हुए
अलसाये हुए बदन
जो बहा कर पसीना
करेंगे तामीर,
बना सकते हो
भाप दरिया-समंदर के
पानी को,
जो बरसेंगे
बन कर बादल,
पिघला सकते हो
बर्फ पहाड़ों की,
बदल सकते हो
रुख हवा का,
कर सकते हो
अंकुरित
बीजों को....?

Monday, November 22, 2010

Solitude and Attitude:By Nayeda Aapa


This poem is an adapt from the oft-quoted poem of Ella Wheeler Wilcox (1850-1919)a Wisconsin born theatrical personality attracted to spiritualism,theosophy and mysticism.
The title of this poem is SOLITUDE but a far more fitting title would have been ATTITUDE. Ella conveys that whatever attitude one decides to adopt is precisely what one will attract in his life. Think Sad and you attract emptiness. Think mirth and the world will laugh with you.
There are umpteen poems on SOLITUDE in world literature of all the languages. Most of these speak of melancholy and negative attitude whereas this poem and one by Late H.V. Bachchan talks about 'Positive Attitude and Approach'. Most of us might have enjoyed the writing of Bachchanji and now i feel pleasure in sharing this one by Ella with all friends, here.

# # #
हंसो ! हँसेगी दुनिया संग तुम्हारे,
रोवो! रोना पड़ेगा तुम को बस अकेले.
दुनिया के स्वयं अपने भी कष्ट है अनगिनत,
आस है उसको भी आनन्द और प्रमोद के कुछ क्षणों की.
गाओ ! देंगी प्रत्युत्तर पर्वत श्रृंखलाएं भी,
भरोगे यदि आहें हो जाएँगी विलीन पवन में वो भी.
खुशियों के होती है गूंज एवम् प्रतिध्वनी,
किनारा करेंगे सब कोई मर्माहत कराहें सुन कर तुम्हारी.

आनंदित रहो,चाहना होगी संसार को तेरी,
शोकाकुल होने से जायेंगे पलट सब और लगा देंगे फेरी.
खुश रहो, बहुतेरे होंगे मित्र तुम्हारे,
दुःख को रोने से मोडेंगे मुंह वोह सारे.
चाहिए सब को परिमाण प्रसन्नता का ,
उदासी की जरूरत है किसको ?
मधुर सोम-रस पान के लिए ना होगा इंकार किसी को,
किन्तु कड़वाहट का घूँट पीना होगा अकेले तुम को.

दावत दो, भर जायेगा पूरा मंडप तुम्हारा,
उपवास करो, छोड़ चलेगे संग सब तुम्हारा.
सफल होना और देना, देता है मदद जीने में,
मगर कोई भी नहीं देता साथ किसी के मरने में.
आमोद के कक्ष में स्थान है विशाल पंगत को,
मगर दर्द के संकड़े गलियारों से गुजरना होगा.
तनहा तनहा, एक एक कर ,हम सब को.

(एक भावानुवाद )

Sunday, November 21, 2010

सपने:मन मीत मेरे : नायेदा आपा की कृति

# # #

चाँद निकला
और
छुप गया था
बादलों में,
ख्वाहिशों से घिरी
रात को
इंतज़ार था
सहर का,
महताब
ना सही
आफताब
तो भर देगा
उजालों की
सौगातों से
बेवक्त धुंधली हुई
जिंदगी को.....

ठहर गयी थी,
ठिठक गयी थी
मैं,
देख रही थी
रुक रुक कर
खुद को,
होने लगा था
एहसास
वो तो बन्द आँखों का
सपना था,
खुली आँखों से देखा
जिसको
क्या बस
वो ही
अपना था ?

सपने होतें है
एक हकीकत,
हकीकत से भी
बढ़ कर
एक हकीकत,
तुम बदल देते हो
दुनियावी हकीकत को,
तोड़ और मरोड़ देते हो
उसको,
मगर सपने
महज सपने होते हैं
रहतें है वे वैसे ही
जैसे कि वो होतें है....

कुछ भी कहो
कुछ भी सहो
सपनो को रहने दो
जिंदगी में,
उन्ही से निकली
खुशबू
महकाती है
हकीकतों को...

जब भी होती हूँ उदास
होते हैं सपने
संगी मेरे,
नुमायिंदे हकीकतों के
करतें है परेशान
जब जब मुझ को
बनते है सपने
सहारे मेरे,
तुम्हारी शायद तुम जानो
मैं
बन कर पुजारन सपनो की
सीख रही हूँ
जीना हकीक़तों को.....

देखती हूँ
खुली आँखों से
वही सपना
जो मुरझा गया था
कैद होकर
बन्द आँखों में....

सच मानो...
अब
यह जिंदगी
पुरजोश होकर
खिला रही है
जिला रही है
मेरे मन मीत
सपनो को....

Saturday, November 20, 2010

बात एक रात : by नायेदा आपा

# # #
छोडो ना कहो ये नज़्म-ओ-ग़ज़ल , यह शब तो यूँ ही गुज़र जाएगी,
चुप बैठ के देखो नयनन में, ये रात सुहानी ठहर जाएगी...

गम के फ़साने सुनाते हो क्यूँ , अंखियन अश्कों से भर जाएगी,
बंजारिन सी फ़ित्रत है मेरी, सरो-सुबहा उठी और चली जाएगी.

रातों का क्या यूँ ही बीत जाये, सूरज के संग कल तो सहर आएगी,
तूफ़ान मस्ती के उठे दिल में , पर मिलन-घड़ी किस पहर आएगी

मेरे जानिब आहिस्ता आहिस्ता बढ़ो , खुदा की खुदाई भी दर जाएगी,
कुचलो ना फूलों को जो बिछे सेज पर, नाज़ुक पत्तियां है बिखर जाएगी.

मानते हैं सनम दरिया उफना, फिर फिर के हर इक तो लहर जाएगी,
फल धीरज के होते मधुर सजन, जल्दी में बात बिगड़ जाएगी.

Friday, November 19, 2010

प्रणाम गुरुओं को : नायेदा आपा रचित

( यह नज़्म आपा ने शिक्षक दिवस पर लिखी थी)
# # #
वंदन माँ का,
जो सर्वोपरि है
सब गुरुओं से,
पढाये हैं जिसने
पाठ जीने के.
खुद से व औरों से
प्रेम करने के....

प्रणाम! गुरुओं को
बदौलत जिनके
मिलती रही है
रोशनी इल्म की,
और
उन अनजाने
गुरुओं को,
जिन्होंने मांगे
बिन मांगे
लुटा दिये हैं
हम पर
ज्ञान के अनमोल मोती ,
जो हमारे खजाने को
बनाते हैं
और
भी बुलंद,
महफूज़ खज़ाना जिसे
ना कोई लूट सकता है,
ना चुरा सकता है कोई....

सलाम ! मेरे ‘उस्ताद जी’ को
जिन्होंने सिखाया
हमारी जड़ें है यंही,
हमारे बुजुर्गों कि राख/अस्थियाँ
इसी जमीं में है यहीं……
बात रूह की हो तो
पत्तों को नहीं
देखो जड़ों को,
पत्तों का क्या
झडतें है हर पत्तझड़ में
होतें हैं नए हर बसंत में ....
सलाम उनकी नमाज़ों को
सलाम उनकी अजानों को
सलाम उनके ललाट के ‘टीके’ को
जो किसी भी पुजारीजी के
तिलक से नहीं था
कम बुलंद....

प्रणाम! अंकित के उन
‘पगले उस्तादजी’ को
जो छोड़ कर
कुटुंब अपना
रह गये थे
इस पार,
क्योंकि उन्हें
ना थी मंज़ूर
चन्द महत्वकांक्षी
राजनीतिबाजों की
खिंची हुई लकीरें...

संत-दरवेश उन्ही
उस्तादजी को
जो दिखते थे
मस्जिद में
वक़्त-ए-नमाज़
बुहारते हुए फर्श,
और शिव मंदिर में भी
धोते हुए आँगन,
करते हुए अर्पण
पावन बेल-पत्र
दूध और जल....
जिन्होंने नात-शरीफ
और
भजन थे एक से सुर में गाये
और
फिर शांत हो
चुप हो गये……
आज तक ना जान सकी मैं
यह चिर मौन उनका,
हिन्दू था या मुस्लिम,
या महज़ ज़ज्बा-ए-इंसानियत ?????

पाये-लागूं,
चोटीवाले
बरहमन मास्टरजी को
जिनकी बीवी ‘धर्म-बहन’ थी
पगले उस्तादजी की,
कट्टर पंडित के घर में
‘उस्तादजी’ के लिए
बर्तन अलग थे,
मगर
दिल दोनों के बस
एक और नेक थे....

पगले उस्ताद
‘साले’ थे उनके
और
पंडितजी थे ‘बहनोई’,
लड़ पड़ते थे
गाँव में
हर किसी से
एक दूजे के लिए,
दोनों थे गुरु
एक दुसरे के,
ना जाने घंटो
करते थे चर्चाएँ
क्या क्या,
दोनों ने जीकर खुद
पढाया था हमें सबक
‘सह-अस्तित्व’ का..

प्रणाम उन सब
देशी-विदेशी,
प्रोफेसर्स और टीचर्स को,
जो गुरु कम और
ज्यादा थे
प्रोफेशनल
मगर थे तो गुरु………...
थोडा 'borrowed'
थोडा 'acquired'
ज्ञान मिला था उनसे,
तराशा था जिन्होंने
सोचने समझने की
ताकत हमारी को....

'Reading', 'Listening',
'Assertiveness', Liberal attitude,
'Firmness','Fairness','
Politeness' और ‘Selfishness’
सिखाई थी उन्होंने,
सिखाया था
साँसे लेना
आज की बदलती हवा में
रहना अडिग तूफानों में,
विज्ञान
संकल्पों और विकल्पों का ,
संतुलन
‘Logical Brain’ और
‘Loving Heart’ का ,
और मासूम सा
अधूरापन भी,
जो कायम रखता है
आज भी यह ज़ज्बा कि,
हम है जिज्ञासु विद्यार्थी
और
सीखना है हमें निरंतर ....

और अब :
श्रीकृष्ण वन्दे जगदगुरुवम !

Wednesday, November 17, 2010

एक दोस्ती 'ढेले' और 'पत्ती' की : नायेदा आपा रचित

# # #

एक था
'ढेला'
एक थी
पत्ती

‘ढेला’ था
अति निष्ठुर,
संवेदनाहीन,
अहंकारी.
‘पत्ती’ थी
डाल से टूटी,
सूखी हुई और
अति झगडालू.
दोनों थे पड़ोसी
नहीं रखते थे
वास्ता एक दूजे से.

हवा का
तेज़ बहाव था उस दिन,
पत्ती झोंकों के संग
बन गयी थी
चकरघिन्नी ,
ऊपर-नीचे,
नीचे-ऊपर,
यहाँ चोट वहां चोट,
पुकारे पत्ती
परेशान
रोती-बिलखती
‘ढेले’ को :
बचाओ! मुझे बचाओ.
ढेले ने फेरा था
मुंह उपेक्षा से
हँसता रहा था
पत्ती की
बद-हाली पे.

रफ़्तार हवा की
हुई थी
कुछ कम,
पत्ती गिरी थी
पास 'ढेले' के
पूछे पत्ती :
क्यों हो इतने
निर्दयी,
मुझे लगती रही थी
चोटें
और
हँसते रहे थे
बेशर्मी से तुम.

'ढेला' कहे:
नहीं मतलब मुझे
किसी से
और
दोस्ती !
पत्ती से ?
नहीं देती शोभा मुझे.

'पत्ती'हुई थी
रुआंसी
लगी थी
कहने:
सब दिन होते नहीं
समान,
'ढेले' क्यों करते तुम
व्यर्थ अभिमान,
'ढेला' 'पत्ती' को
दुत्कारे और डांटे,
अकड़ में हो चूर
लेने लगा था खर्राटे.

बादल गरजे थे
घन-घोर,
चमकी बिजलियाँ
लगी थी होने
बारिश पुरजोर.
धेला सह ना सके
थपेड़े जल के
भय हावी हो उस पर
मिट जाने के
ग़ल जाने के.

चिल्लाये 'ढेला' :
पत्ती मुझे बचाओ !
ढक लो ना मुझ को
खुद से
सह लो ना मेरे लिए
बारिश को,
प्यारी दोस्त मेरी !
मुझे बचालो!

“गलो , मरो….
नहीं मतलब
मुझे
भी.”
बोली थी पत्ती.
'ढेला' रहा था
छटपटाता गलता
होती रही थी
उसकी दुर्गति.

थमी थी बारिश,
'ढेले' ने ली थी
सांस राहत की
लगा था
कहने 'पत्ती' को:
सब दिन होतें नहीं
सामान
कहती हो तुम ठीक,
हम है पड़ोसी
हम है दोस्त,
रहें मिलजुल
बस बात यह
सटीक.

'ढेले' ने बढाया था
हाथ
और 'पत्ती' ने कुबूला था
साथ.
लगे थे दोनों
मिल-जुल रहने
प्यार और
सौहार्द के पहने गहने.

तूफ़ान जब जब
आन घेरता
'ढेला' छुपा लेता 'पत्ती' को
अपने तले,
और
जब भी होती
बारिश
'पत्ती' का प्यार 'ढेले' पर
छतरी बन पले.

हो गये थे
स्वभाव दोनों के
परिवर्तित,
बारिश-तूफ़ान
और
अन्य आफतों से
हो गये थे दोनों
सुरक्षित.

ज़िन्दगी खूबसूरत है...

# # #
सहज
स्वाभाविक
सार्थक है जो
रूह-ओ-जिस्म की
ज़रुरत है,
संयोंग,
संश्रय,
संसर्ग से ही
ज़िन्दगी
खूबसूरत है...

Tuesday, November 16, 2010

गणना. : नायेदा आपा की रचना

# # #
सुशिष्य
बुद्ध का,
भिख्खु एक
परम विद्वान्,
ज्ञाता
व्याकरण का,
सूत्रों का,
मन्त्रों का......

कुशल कवि,
प्रकांड पंडित,
शब्द विशारद
देता था उपदेश
अपनी
औजस्वी वाणी
लुभावनी
शैली में,
हुआ करता था
इकठ्ठा मजमा
और
होते थे आनन्दित
जन-जन
सुन कर
भिख्खु के
प्रभावशाली
धर्मोपदेशों को,
पर
ना जाने क्यों
नहीं होता था
घटित
परिवर्तन
कहीं भी,
भिख्खु था
प्रसन्न
गिन कर
श्रोताओं को,
लख कर
बेतहाशा भीड़ को....

देखा करते थे
गौतम सबकुछ
शांत चित्त से,
बुलाया था
तथागत ने
एक दिन
भिख्खु को और
कहा कहा था
कुछ यूँ,
भंते ! करके
गणना
मार्ग पर
दृष्टव्य
धेनुओं की,
क्या हो सकता है
कोई
स्वामी उनका....?
होना है
राज्य धम्म का
मनुज हृदयों पर,
चित्कार
'धम्मम' 'धम्मम' की
बढा सकती है
मात्र संख्या
दर्शकों की ,
नहीं पैठ सकती
किन्तु
मानव मस्तिष्क
एवम्
हृदयों में...
भिख्खु !
करो आत्मसात
तुम
धम्मम को,
करो अवतरित
उसे जीवन में अपने
परे शब्दों से,
लेगा तभी
जन-मानस
सच्ची प्रेरणा
और
होगी संपूर्ण
तुम्हारी देशना...

Monday, November 15, 2010

'सत्य' : नायेदा आपा रचित

# # #
'सत्य'
अनाच्छादित
प्रकाशित
आच्छादित
धुन्धलित,
मधुर है
श्रवण में,
विकट है
वहन में....

उसका है
अप्सरा से भी
अधिक
सौंदर्य
एवम्
स्वरसंगत से
अधिक
माधुर्य.....

होता है सच
हिम से
कहीं अधिक
सुकोमल
सुकुमार,
प्रस्तर से भी
अधिक
जिद्दी
कठोर....

तड़ित कि भांति
उसकी
तीव्र दृष्टि
असत के
अंधेरों को
भेदे,
सूर्य-देव तुल्य
शक्ति उसकी
सबल मिथ्या को
पराजय दे....
किया जिसने भी उसकी
हत्या का
षडयंत्र
हुआ विनष्ट वोह
अजेय कोप
उसके
से
तदनंतर....

Sunday, November 14, 2010

असलियत यूँ खुली....किस्सा मुल्ला नसरुद्दीन का.

(यह किस्सा बिलकुल काल्पनिक है और एक लोक कथा पर आधारित है...इसका किसी भी जिंदा या मुर्दा इन्सान से कोई ताल्लुकात नहीं है..कोई भी समानता अगर नज़र आये तो इसे महज एक संयोग समझा जाये या ऐसा सोचनेवाले/समझनेवाले का भ्रम. इसका उदेश्य बस ज्ञान वर्धन और स्वस्थ मनोरंजन है.)

हमारी यूनिवर्सिटी के फिलोसोफी डिपार्टमेंट के हेड हुआ करते थे डॉक्टर हफिज्ज़ुल्ला काज़मी साहेब. बड़े ही जहीन, विद्वान और शरीह इन्सान थे काज़मी साहेब, किसी शाही खानदान से ताल्लुक रखते थे और शौकिया प्रोफेसरी करते थे. हाँ अपने इल्म और काम के लिए बिलकुल समर्पित थे. एक दफा उनकी मुलाक़ात एक पढ़े लिखे, स्मार्ट इन्सान से किसी सफ़र के दौरान फ्लाईट में हो गयी...बन्दा प्रेजेंटेबल था..बातें भी लच्छेदार करता था..उसने काज़मी साहेब को बुरी तरह इम्प्रेस कर दिया. काज़मी साहब ने तहेदिल से उनसे गुज़ारिश की थी कि वेह जब भी हैदराबाद तशरीफ़ लायें उनके मेहमान बने...

ये नवपरिचित सज्जन थोड़े अभिमानी से लगे थे काज़मी साहब को मगर उन्होंने सोचा यह उनका जोशीला अंदाज़ है. उनकी ठसक उनको उनकी शख्सियत का एक पोजिटिव हिस्सा लगी. चलिए उन्हें एक नाम दे देते हैं, ताकि किस्से को फोलो करने में आसानी हो.हाँ तो इनका नाम था जनाब कसीस.

कसीस साहब का भाषाओँ पर बहुत अच्छा आधिकार था...और उन्होंने खूब पढ़ा था हर भाषा में. लगभग सभी करेंट अफेयर्स पर वे बात करने में माहिर थे. रख रखाव भी अच्छा था...वेल ड्रेस्ड...मजाल कि अचकन पर तनिक सा सल नज़र आ जाये. कह रहे थे सउदी से आये हैं..वहां किसी तेल कंपनी में मुलाजिम है..मगर अदब में बहुत इंटरेस्ट रखते हैं, मज़हबी बातें भी खूब करते थे कसीस साहब...खासकर इस्लामी और सूफी फिलोसोफी पर. कहते थे कि हिन्दुस्तानी मूल के थे उनके पूर्वज. बंटवारे से पहले शायद ब्रिटेन में बस गये..और फिर ब्रिटिश पासपोर्ट पर चले आये सउदी. अविभाजित भारत कि लगभग सभी भाषाएँ धडल्ले से बोलते थे, हर भाषा ऐसे बोलते थे जैसे मादरी जुबान हो. हर भाषा में उन्होंने नज्में लिखी थी, जिन्हें सुनकर प्रोफेस्सर काजमी बहुत प्रभावित हुए थे. बात बात में कसीस साहब ने पूछा था कि क्या प्रोफ बता सकेंगे कि कसीस मूलतः भारत के किस प्रान्त से हैं... कसीस हर भाषा इस तरह बोलते थे कि प्रोफ सहह्ब नहीं बता पा रहे थे कि वे कौन है. उन्होंने सोचा कसीस साहब कि मेहमानवाजी भी होगी, और अपने सारे कॉस्मोपोलिटन दोस्तों की मदद यह तय करने में भी ले सकेंगे कि कसीस क्या चीज है. तभी उन्होंने उन्हें हैदराबाद आने का न्योता दिया था.

कसीस आ धमके उनके बंगले पर. रोज़ तरह तरह के पकवान बनते...खातिर होती कसीस साहब की ..कोई दिन सिन्धी भाषा का होता...सिन्धी दोस्त आते..कसीस इतनी अच्छी सिन्धी बोलते और सिंधियों जैसे मैनर्स दिखाते कि सिन्धी यारों को कहना होता : कसीस साहब सिन्धी है, प्यार से कहने लगे 'चनिया' है. यह माज़रा बंगाली, गुजराती, तमिल. तेलगु, पंजाबी, राजस्थानी, कश्मीरी, मलयालम, उर्दू, खड़ी बोली, उड़िया, कन्नड़ इत्यादि सभी भाषाओँ और भाषा भाषियों के साथ हुआ. बंगाली कहे भई यह तो शत प्रतिशत बाबू मोशाय है, क्या हुआ सूत पहन रखा है आज..लगता तो ऐसा ही है कि ढीली धोती और पंजाबी (कुरते) में है, गुजराती कहे यह तो आपणो गुज्जू भाई छे, मारवाड़ी कहे कि यो भायो तो धरती धोराँ री रो बाशिंदों है...पश्तो वाले कहे कि यह खबिश तो 'पठान' है, पंजाबी कहे चाहे इस पार का हो या उस पार का-मुंडा पंजाबी है..जब 'चप्पो चप्पो' करके तेलगु बोलता और तेज़ मिर्ची खाता तो आंध्र वाले कहते यह तो अपना 'गुण्डी' है...केरला के लोगों ने कन्क्लूड किया कि जब इसने 'अछुथंड' (गाड़ी के चक्के का धूरा) कैसे कठिन शब्द को समझ लिया और मछुआरे नाविक का मलयालम गीत गाकर सुनाया-राजा रवि वर्मा कि पेंटिंग्स के सौन्दर्य सौष्ठव का वर्णन ठेठ मलयालम में कर दिखाया..भाई यह तो 'मल्लू' है. बस इसी तरह सब के अनुभव रहे. यह तय नहीं हो पाया कि कसीस असल में कौन है..

ऐसे में हमारे 'सर' ने सोचा, जिस बात का कोई भी हल ना निकाल सके उसका हल उनके दोस्त मुल्ला नसरुद्दीन निकाल सकते हैं.

काज़मी साहब के दौलत खाने में एक ग्रांड पार्टी का आयोजन है, शरीक हैं॥बिल्डर छग्गू मल छंगवाणी(सिन्धी), प्रोफेसर अचिन्त्यो बनर्जी (बंगाली)व्यापारी जिग्नेश भाई मेहता (गुजराती), बसप्पा रायचूर (कन्नड़), जी। सुन्दरम (तमिल), डा. आर. लेंगा रेड्डी (तेलगु), सरदार परमिंदर सिंहजी पटियाला (पंजाबी),...प्रोफ विनेश कुमार सिंह (राजस्थानी), डा, ऐ. सी. मोहन कुमार (मलयाली) डा. गोबिंद झा (मैथिली) पंडित सरजू पाण्डेय (बनारस से) ....अन्य कई मित्र और हमारे नायक मुल्ला नसरुद्दीन.

कसीस सब से मुस्कुरा कर मिलते हैं प्रत्येक व्यक्ति से...अपनी नकली सी असली बतीशी निपोरते हुए..सामने वाले की भाषा बहुत ही लछेदार अंदाज़ में अच्छी तरह बोलते हुए...सभी सोचते हैं कि बन्दा उनके यहाँ का है...घुमते घुमते किस सो चार होता है मुल्ला से...मुल्ला से वह फर्राटेदार हैदराबादी उर्दू में बात करता है...मुल्ला बहुत इम्प्रेस होते हैं...और उस से फ्रेंडली हो जाते हैं...दोनों ही साथ साथ सकोच के पेग पेग चढाते हैं...एक स्टेज आती है...दोनों झूम रहे होते हैं....मुल्ला कस कर मय जूतों के अपना पांव कसीस के पांव पार जमा देता है...बहुत जोर से दबाता है मुल्ला पांव को लगभग उसी जोर से जिस से अमीर गरीब को दबाता है...मस्तान/गुंडा आम पब्लिक को...और शायद कुछ गाली जैसा भी होले से मुल्ला बोल देता है कसीस को...बस कसीस शुरू हो जाता है अपनी मातृभाषा में गली गलोज भरी बातें मुल्ला को सुनाने...मुल्ला कहता है सुनिए साहिबान भाई कसीस 'कंजरों' वाली भाषा बोल रहे हैं...'कंजर' है वो...कहने का मतलब चोट लगने प़र इन्सान अपनी औकात प़र आ जाता है...उसके सारे मुल्लमे उतर जाते हैं...वह अपना असली स्वरुप दिखा देता है. सभी लोग मुल्ला का लोहा मानने लगते हैं. कसीस को भी ख़ुशी होती है कि कोई तो ऐसा मिला जो उसको समझ सका. मुल्ला और कसीस फिर साथ साथ कबाब के साथ शराब पीने लगते हैं...पार्टी अपने शबाब पर हो जाती है.

Saturday, November 13, 2010

दिल की सच्चाई : एक अंदाज़े मोहब्बत -- by नायेदा आपा

(मेरी एक अन्तरंग सहेली फोर्मल तालीम नहीं के बराबर पा सकी. उसकी निकाह एक ऐसे आदमी के साथ हुई जो बाहिर मुल्क से बहुत कुछ तालीम और इल्म हासिल कर के आया. वह, एक नेक और जहीन इन्सान है, अपने वर्क फील्ड में बहुत ही कामयाब है, एक जिम्मेदार औलाद, खाविंद, बाप, दोस्त और शहरी है..........उसके लिखे ड्रामे पाकिस्तान टीवी चेनल्स पर कई दफा एयर हो चुकें हैं, उसके लिखे गीतों में भी कशिश,रवानी और गहराई
है. वे लोग एक 'सुखी और सम्पूर्ण' दम्पति है. मुझे अपनी दोस्त को खुश पा कर बेहद ख़ुशी होती है. उससे हुई अन्तरंग बातों को मैंने इस नज़्म में ढालने की कोशिश की है...........जिंदगी की यह सच्चाई शायद कईओं के दिल छू सके.)

# # #
वो मेरा दोस्त है,
मेरा हमदम,
मेरा खुदा,
मैं भी उसकी दोस्त,
हमदम-ओ-खुदा हूँ.

बनाया, सजाया
और संवारा है
खुदा के करम से
हमने
अपने ख्वाबों की
दुनिया को
इन चार हाथों से.....

मैं समझ ना पाती
बहुत सी उसकी बातों को,
और ना ही ज़रुरत है
समझने की उनको,
मुझे तो लगता है
बस अच्छा
देखना उसे बोलते हुए,
छूता है मेरे दिल को
अंदाज़-ए-बयां
और
लहजा उसका...

आँखों की जुबां उसकी,
समझती हूँ महज़ मैं ही,
दुनिया उसे पढ़े सराहे,
यह खुशकिस्मती है 'हमारी'
सुकूं भरी इस तरहा
जिंदगानी है हमारी...

उसका सबसे बड़ा नाविल,ड्रामा,
गीत, ग़ज़ल और कहानी
बात है वोह
हमारे गाँव के खेतों की,
जिसे वोह अपने उसी..
ना ना उससे बेहतर,
अंदाज़ में कहता है...बार बार.
जिंदगी एक मुरब्बा(खेत) है,
हम दोनों जिमिन्दार(किसान),
मैं चला रहा हूँ हल
और बिखेरे जा रही हो
बीजों को तुम,
मैं बांधे अंगौछा
कमर पर,
कर रहा हूँ निराई,
बंटा रही हो हाथ तुम मेरा
और गाये जा रहे हैं
संग संग 'हीर'
मैं और तुम...
झूम रहा है मानो यह
आलम सारा,
यह लहलहाती फसलें,
सुनहली फूली सरसों,
हरे बूटे,
वो झेलम का किनारा,
ज़िन्दगी यह अपनी नहीं तो
क्या है...

इन्सान कहीं भी होकर आ जाये,
कुछ भी बन जाये,
अपने जमीं, अपनी माटी की,
जो सचाई सदियों से है कायम,
उसे कैसे झुटला सकता है कोई,
जिंदगी के खेतों में,
प्लास्टिक के बीज
कैसे बो सकता है कोई...

जब जब होता है
वो किसी उलझन में,
सुलझाता है उसको
आकर मेरे बाहों में,
जवाब कठिन से कठिन सवालों के
पा जाता है मेरी पनाहों में,
उसकी हर नज़्म की
पहली तनकीद
होती है मेरी,
उसके हर शे'र की
पहली दाद भी
हुआ करती है मेरी,
मेरी आँखों में उसकी हर ,
ग़ज़ल बसती है,
क्या हुआ महफ़िल में,
तालियाँ
औरों
की बजती है....

मेरे साथ चाय का एक गरम प्याला
देता है उसको-मुझको
नयी जिंदगी,
घर का बना खाना,
नन्हों का साथ,
फुरसत के सुबहा शाम,
और सांझी बंदगी.....
होती है अलावा इसके भी जो दुनिया,
क्या नहीं है हमें वोह भी मुहैया ?
खुश रहना,
हंसना हँसाना
हमारी फ़ित्रत है,
हमारे लिए यही है जन्नत,
यही कुदरत है....

रिश्तों को 'रिलेशनशिप'कहतें है,
मैंने अब जाना.......
'गोइंग अराउंड'
और 'ब्रेक ऑफ' के मायनों को भी
पहचाना,
'लोंगिंग' की छोटी लम्बाई को भी नापा,
लफ्जों की इस नुमायश की गहराई को भी
मैंने मापा,
दिल से पढ़ा...
दिल से जाना...
दिल से माना,
जिंदगी का कुछ भी भेद
ना रह गया
अब अनजाना
जीने के लिए जरूरी है
सांसो का आना ओ' जाना,
गिनने वालों का
छोटा होता है जमाना.
मुझे किसी दरवेश की
इस बात में है हासिल है
बेंतेहा 'जोय'
ढाई आखर प्रेम का
पढ़े सो पंडित होय...

Friday, November 12, 2010

गणित उम्र का : कहाँ से है शुरू:नायेदा आपा रचित

(बुद्ध का समझाने का तरीका अनूठा था...."example is better than percept" वाला.....स्थिति सामने ले आते......खुद समझो......उस वक़्त कहने का भी सही अर्थ पहूंचता लोगों के जेहन में.....राजा प्रसेनजित और गौतम बुद्ध की मुलाकात को इस रचना का विषय बनाया है......मात्रा/छंद की भूलों को क्षमा करें...)
________________________________________
# # #

प्रसेनजित सम्राट सुपरिचित बुद्ध-दर्शन को आये थे,
चर्चा करने तथागत से, निज ह्रदय जिज्ञासु लाये थे.

विग्रह ना हो सत्संग में पल भर, भिक्षु सर्व सहमाये थे ,
यद्यपि उत्सुक और उत्कंठित, मन सब के ललचाये थे.

वयोवृद्ध ध्यानी भिक्खु को धम्म कार्य से जाना था,
चारण स्पर्श कर गौतम का, आशीर्वचन ही पाना था.

होने वाला था सूर्यास्त, व्यग्र भिक्खु था जाने को,
हो विवश हुआ उपस्थित, प्रभु अनुमति को पाने को.

राजन ! जाना अति-दूर मुझे है, सन्देश बुद्ध का देने को,
कई माह की मेरी योजना, हूँ हाज़िर हूँ शुभ-स्पंदन लेने को.

भिक्खु पचहतर साल उम्र का,बुद्ध चरण का स्पर्श करे,
भंते ! संबोधन पाकर, उर में हर्ष अभिव्यक्त अतिरेक करे.

बोले गौतम-हे भंते! कितने वर्ष आपकी आयु है,
मात्र चार वर्ष बोला भिक्खु , विस्मित भूप स्नायु है.

आश्चर्य चकित हुआ नृप, क्यों बुद्ध ने इसे स्वीकार किया,
वृद्ध के मिथ्या वचनों का क्यों नहीं कोई प्रतिकार किया.

रुक ना सका भूप उद्विग्न-नहीं लगता चार वर्ष का यह,
गणना पद्धति है अन्य यहाँ, बुध फरमाए सहज ही यह.

बुद्ध के सुवचन:

जब तक मनुज उतरे ना ध्यान में, प्राप्य उसे प्रकाश ना हो,
उम्र देह की है तब तक, चाहे गणित आकाश-विकाश का हो.

अलोक पाकर अंतर का जब, झलक स्वयं की पाता है,
तन्द्रा में तो गयी उम्र, फिर नया जनम वह पाता है.

भिक्खु के साल इकहतर तो अज्ञान निद्रा में बीत गये,
वर्ष सहस्त्र कईओं के तो यूँही तन्द्रा में रीत गये.

इस भिक्खु ने चार वर्ष से, निज प्रतिबिम्ब को दर्शा है,
राजन ! इसीलिए इसने अपनी इस लघु वयस को स्पर्शा है.

*********************

उलझन में था नरेश सौभागी, मुक्ति दाता पास खड़े,
अश्रुपूरित भूपति विभोर, सिद्धार्थ बुद्ध के पांव पड़े.

प्रसेनजित बोला भगवन ! अब तक था यह भ्रम मेरा,
जीवित हूँ रहा हूँ श्वास चलना फिरना बस क्रम मेरा.

आज आपने दर्शायासत्य, मैं भूप नहीं एक मुर्दा हूँ,
अपने ही ‘स्वयं’ के ऊपर मैं, अज्ञान तिमिर का पर्दा हूँ.

बुद्ध सुवचन :

राजन! धन्य हो, जाना तुम ने सत्य यही जीवन का है,
जागरूक हो!शुद्ध बनो तुम, कृत्य यही सुजीवन का है.

***************

ध्यान ज्ञान पर चल प्रसेनजित, पुन: जन्म को पाता है,
आत्म-लक्ष्य को पाकर नृपति, स्वयं-पति बन जाता है.

Thursday, November 11, 2010

हुनर और गुरुर...



(यह रचना नेनो नहीं है, एक लोक कथा को बुना है मैंने अल्फजों में...पुनरावलोकन भी किया, कई जगह पुनरावर्ति है शब्दों की, बोलचाल में कम में आनेवाले अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल भी हुआ है... जो तकनीक की नजर से थोडा ख़राब लग सकता है किन्ही पारखी नज़रों को, मगर नज़्म की मांग है, मेरे जेहन और कलम ने क़ुबूल की है. कुम्हार को हमारे यहाँ 'प्रजापत' भी कहा जाता है..ब्रहमांड निर्माता प्रजापति ब्रह्मा की तर्ज़ पर...हर बात में छोटा-मोटा दर्शन है. आशा है आपका स्नेह मेरी इस लम्बी पेशकश को भी मिलेगा..महक का सलाम !)
# # #
घड़े
घोड़े
मूरत बनाता है
कुम्भकार !
'परफेक्ट'
'जीवंत'
'अद्वितीय'
मिलते हैं
'कम्प्लिमेंट्स'
अति उदार....

फूल कर
हो जाता है
कुप्पा
कुम्हार,
लगता है
सोचने
हर लम्हा
जादूगर हूँ मैं
करता हूँ मैं,
कमाल है मेरी
उँगलियों में,
सम्पूर्ण सृजक हूँ मैं..
बस लिए
यही चिंतन
बनाता है
घड़े
घोड़े
मूर्तियाँ,
फर्क आ जाता है
उनमें
लगती है फीकी
अब उसकी
कृतियाँ...

लोग आते हैं
कहते हैं
चू रहा है घड़ा
लंगड़ा सा है घोड़ा
कृत्रिम सी है मूरत,
नहीं मिलती है
इसकी
राधाकीशुन से सूरत...

कहता है
प्रजापति
"जलते हैं लोग
समझ नहीं पाते हैं लोग
जो करता हूँ मैं
कर सकता है
भला कोई..
लग गयी है
देखो बुरी नज़र
हुनर को मेरे,
मैं तो वैसे ही गढ़ता हूँ
सब कुछ
साँझ और सवेरे..."
किन्तु
मन का चोर
ज्यूँ मुंडेर पर बैठा मोर,
कहे जाता है
कुछ तो गलत है भाई
है 'समथिंग रोंग',
और पीसती है उसकी
लुगाई...

और
करती है
'कनक्लुड'
कुम्हारी
आफत की मारी
'ट़ेन्स्ड-स्ट्रेस्ड'
शौहर की भुक्तभोगी
बीवी
बेचारी...

नहीं खाती
हुनर को
नज़र बुरी किसी की,
तारीफ
करती है
हौसला अफजाई
कलाकार की,
मगर
समा गया है गुरूर
फ़ित्रत में
कुम्हार की,
कट गया है मरदूद
माटी से,
जगह मिलन के
हो रही है
बातें तकरार की...
समझो
प्रजापत
बात व्यवहार की,
कृति मांगती है
मन-तन का एकत्व
बात यही है
सार की...

होने लगी थी
फिर से
भावों की वृष्टि
बदल गयी थी
हमारे नायक की
दृष्टि,
होने लगी थी
मित्रों
पूर्ववत सृष्टि...

एक विनती : प्रभु से -मौला से:नायेदा आपा रचित

(चातुर्मास व्रत त्यौहार और भक्ति का काल होता है......लगभग सभी परम्पराओं में हिन्दू, बौध, जैन और मुस्लिम......जन्माष्ठमी, अंनंत चतुर्दशी,शरद नवरात्रा, रमजान,पर्युषण-समवत्सरी, दस लक्षण आदि........तो एक छोटी सी प्रार्थना प्रभु से, मौला से.)
______________ॐ_______________७८६______________ॐ_____________

यह मेरी जिंदगी,प्रभो !
किस मोड़ पर खड़ी है
मंझधार में है नैया
सर पर आफतें खड़ी है...

धुल बेपयाँ इस पर
ज़माने ने जमा दी है
निशान उंगली के कहीं हैं
खरोंचे भी लगा दी है....

वक़्त के थपेड़ों ने
धुन्धला इसे बनाया है
सुहाती है ना रोशनी
अक्स बेनूर हो आया है....

बने फिरतें हैं चारागर
जाल फरेबों का बिछाया है,
दे-दे मरहम-ए-जख्म मौला !
तेरा ही बस इक साया है...

Tuesday, November 9, 2010

शैय्या से शमशान:अंकित भाई की एक रचना

# # #

जीवन,
एक साँझा नाटक,
देह और आत्मा का,
जिसे खेल रहें है
हम सब,
संसार के,
विशाल और वृहत
रंग मंच पर....

अपनी रचनाओं में
मैंने,
शैय्या के सुख़
पाने या
ना पाने की
की है बातें
अथवा
शमशान को
बनाया है
मंजिल अपनी...
मेरी हर
ख़ुशी और
गम रहे हैं
बस
भटकते
शैय्या से
शमशान तक....

क्यों
ना जाना
हे प्रभो!
जीवन है कुछ और
वासना और
मृत्यु के
सिवा....

क्यों भूल गया मैं
हे विभो !
जन्म को
प्रेम को,
सौहार्द को,
हर्ष को,
आनंद को,
शक्ति को,
मुक्ति को,
तृप्ति को,
प्रकृति को,
गीत को,
संगीत को,
अगणित तथ्यों को,
जीवन के सत्यों को,
तुम को,
स्वयं को.....

Monday, November 8, 2010

प्रकृति से एकत्व : नायेदा आपा रचित

# # #

रुला देती थी
जिंदगी
जब भी,
लगती थी
साथ छोडती
छाया भी अपनी,
नज़रें औरों की लिए
हिकारत के नज़ारे ,
दुनियां मेरी
नज़र आती थी
गिरती हुई
औंधे
मुंह,
मैं...
छोड़ देती थी
देखना
दूसरों की नज़रों में....

देखा करती थी
पेड़ को,
जो छाया,
फल और
फूल देता है
दरियादिली से..
बिना किसी
आसक्ति के...
महसूस करती थी
धरती को
जो बनाती है बूटा
बीजों को..
कर के अंकुरित,
बिना सोचे
तनिक भी-
किसने बोया है ?
भोगेगा कौन ?
बिलकुल माँ के
दुलार की तरहा...
जो प्रेम करती है
अपने बच्चों को
बिना किसी अपेक्षा के ...
और
क्षमा भी करती है
यदि कर देता है
बालक कोई
व्यथित उसके
ह्रदय को....

सुनती थी
चहचहाना
पक्षियों का,
जो घोलता है माधुर्य
भोर के मधुरिम
माहौल में,
पंछी गातें हैं जो
मौज में अपनी,
बिना किये परवाह
किसी दाद
और
वाह-वाह की....

छू लेती थी
कोमल सुन्दर फूलों को
जो मुस्काते है
रहते हुए संग काँटों के भी..
फैलाते हैं महक
बिना किसी
लालच के,
निबाहते हैं मैत्री
प्रवंचक भ्रमर से भी...

देखती थी मैं
कल-कल बहती
नदिया को
जो बिना किसी
व्यवधान और कुंठा के
बही जाती है
मिलने समंदर से
जो रहता है
बहुत सुदूर
और
किये जाती है हरित
साथ देनेवाले
खेतों और बगीचों को,
देती है जो ताकत अपनी (बिजली)
पड़ोसियों को
और
बुझाती है प्यास
जाने-अनजानों की....

निरखती थी मैं,
हिम-आच्छादित पर्वतों के
शिखरों को
जो आत्मसम्मान में
सिर उठाये
खड़े होतें हैं
अडिग

और
अपने ऊपर
आस-पास
देते है जगह
वृक्षों को,
बर्फ को,
जीवों को,
हमारे आराध्य
देवी-देवताओं को
और
स्वयं की खोज में निकले
ऋषि मुनियों को....

प्रकृति के साथ यह मैत्री
ले आती थी पुन:
मुझे
निकट स्वयं के,
जगा कर मुझ में
प्रेम और करुणा
दे जाती थी मुझे
एहसास
इन्सान होने का...
आज मैंने बसा लिया है
प्रकृति को खुद में,
वृक्ष,
पंछी,
धरती,
नदिया,
पर्वत हैं
अंतर में मेरे ,
सामने मेरी आँखों के
और

समाये हुए
मेरी साँसों में,
दे रहे हैं
प्रेरणा मुझे
हंसने की,
आनन्द
जीने का
शक्ति
जीवन की,
पहचान
खुद की
और
प्रेम
शर्त-रहित बिलकुल,
स्वयं के प्रति भी
एवम्
समस्त चेतन-अचेतन के
प्रति भी...

यह हर्ष है
एक उत्सव ,
मानव-प्रकृति के
मिलन का,
और है प्रतिफल
दैविक योग का
जो है
संगीतमय,
अजर,
अमर,
शास्वत...

Sunday, November 7, 2010

समापन क्रंदन का : नायेदा आपा रचित

(दुनियावी रिश्तों के ओबजर्वेशन पर आधारित एक रचना)
# # #

ना मैं
मसीहा हूँ
और
ना हो तुम
संकीर्ण
सोचों के
एक खुदगर्ज़ इन्सान...
हो गयी है
आदत
मुझ को तेरी
तुझ को मेरी..
(फिर)
क्यों हँसते है
हम पर
ये अजनबी,
बहुत हुए
गिले तेरे,
शिकवे हमारे
और
जग की हँसाई....
आओ न छोड़े
औढ़े हुए
सवालों को,
रूठने और
मनाने को,
सतही उसूलों को,
आँखों से बहते
वक्ती आंसुओं को,
चन्द अधूरे सत्यों को,
थोड़े बेमानी झूठों को,
पहन लें फिर से नकाबें,
करें समापन
इस क्रंदन का,
हो जाएँ
संग फिर से…

जिंदगी के
दौर में,
दो और दो
हो सकतें हैं
पांच भी,
बर्फ की छुअन
दे सकती है
ठंडक भी
तपती हुई
आंच भी...
कौन है जिसने
पूर्णता है पायी,
अवतारों को भी तो
कमजोरियां सतायी,
फिर हम तो है
अदम और हव्वा
की औलादें,
हम से है
किस बात की
भरपाई......

Wednesday, November 3, 2010

चिंता और चिंतन:By नायेदा आपा/अंकित भाई


# # #
हो जाती है ‘चिंता’,
कुछ लोगों को
हो जातें है वे
चिंतातुर और चिंताकुल,
जब भी कुछ हो जाता है घटित ऐसा,
जो हो लीक से हट कर,
बुरा हो या अच्छा,
दे देतें है विस्तार उसे ,
औढ़ा देतें है चद्दर चिंता की
समाज पर---मानवता पर,
स्वयं तो होतें है विचलित,
और करतें है प्रयास
औरों को कम्पित करने का,
होतें है ऐसे हमारे
‘चिंता कुमार’,
हाथ में रहता है जिनके
एक आवर्धक शीशा (मेग्निफयिंग ग्लास),
रहतें है देखते जिस से,
न सिर्फ ख़बरें अख़बार की
बल्कि
इर्दगिर्द होने वाली
छोटी मोटी घटनाओं को भी,
चिंता कुमार
यदि हों साक्षर
और
हो यदि वे
स्थानीय लेखक और कवि
तो करेला और नीम चढ़ा,
या
होती है यह कहावत
चरितार्थ,
खा गया बिच्छु बंदरिया को,
फिर देखिये अल्फाज़ इन के
लगने लगेगा
उलट रही है दुनियां
आनेवाली है क़यामत....
हुआ था कुछ ऐसा ही
दो दिन पहले,
निर्मूल भय का
बाज़ार गर्म था
फैलाया जा रहा
अजीब सा भ्रम था,
जब हुआ था आरम्भ
वैज्ञानिक महा-प्रयोग का
परमाणु क्षेत्र में,
जेनेवा की प्रयोगशाला में
विश्व के वैज्ञानिक मिल कर
खोज रहें है नए आयाम (Dimensions)
करने सिद्ध ‘बिग बेंग' के सिद्धांत को,
कर रहें है अनुसरण
‘बोसोन’ अनुसन्धान का
जनक थे जिसके वैज्ञानिक सत्येन्द्र(१९२४…..).
अनावृत करेगा रहस्य
यह ऐतिहासिक प्रयोग
ब्रह्माण्ड की रचना का
और
करेगा मार्ग प्रसस्त
उर्जा क्षेत्र में नयी संभावनाओं का,
फैला दी थी
प्रलय प्रेमी ‘चिंता कुमारों’ ने
आशंकाएं सृष्टि के विनाश की
चर्चा थी आम और खास में
क्या होगा ?
क्या होगा अब ?
महाविनाश ?
लग रही थी खबर यह चटपटी
अच्छी चंद लोगों को,
क्योंकि थी यह करीब
वर्षों से जमे उनके अंध-विश्वासों के,
नहीं जानना सोचना पड़ रहा था
उन्हें करने प्रसारित प्रतिपादित इस झूठ को,
बन गया था नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सा,
विवेकपूर्ण विश्लेषण
महान वैज्ञानिक और चिन्तक
एपीजे अब्दुल कलाम का भी,
सोचा था मैंने उस दिन,
हमें आवश्यकता है 'चिंतन' की
ना कि 'चिंता' की...
हो सकता है कल्याण हमारा
‘चिंतकों’ से ना कि ‘चिंता कुमारों’ से, जो
राय चंदो (जो बिना समझे अपनी राय दे देतें है) की तरहा
ये पास भी मिलतें है दूर भी.
याद आ रही है ‘नारी शिक्षा अभियान’ के
आरम्भ में
ऐसे ही एक चिंता कुमार की
काव्य अभिव्यक्ति:
“रेशमी सलवार दुपट्टा ऊँचा है,
मत जैय्यो इस्कूल, मास्टर लुच्चा है."

Sunday, October 31, 2010

क्या कहिये : by नायेदा आपा

(आपा की अतिसाधारण रचनाओं में से यह एक है, जिसे वे कई दफा एक मामूली सी तुकबंदी कहा करती है)

# # #

नासमझों की किसी महफ़िल में,
यूँ अपनी कहानी क्या कहिये.

आँखों से बरसते है आंसू
दरिया की रवानी क्या कहिये.

भूल गये सब कुछ है वोह,
फिर बात पुरानी क्या कहिये.

म़र म़र के जीये जाते है वोह,
दास्ताने जवानी क्या कहिये.

फितरत में बसी मायूसी जहाँ,
किस्से खुशियों के क्या कहिये.

रस्सी को समझतें नाग है वोह,
हिम्मत की कहानी क्या कहिये.

बहना सतहों पर मंज़ूर जिन्हें
उन्हें गहरा पानी, क्या कहिये.

प्यार की मंजिल नहीं बिस्तर
मीरा थी दीवानी क्या कहिये.

पहचाने नहीं जब मिलने पर,
रघुपति कि निशानी क्या कहिये.

सोये रहतें दिन में गाफिल,
उन्हें जागी जिन्दगानी क्या कहिये.

वोह दब जातें हैं कागज से,
फूलों की गिरानी क्या कहिये.

जो भटक रहें है जिस्मो में,
उन्हें बात रूहानी क्या कहिये.

आँखों पर ग़मों के परदे है,
उन्हें शाम सुहानी क्या कहिये.

जागीर लिखाये बैठें हैं वोह,
जिन्द आनी जानी क्या कहिये.

जेहन के दरीचों को बन्द रखे
उन्हें मासूम नादानी क्या कहिये.

बैठे घनघोर अंधेरों में,
सोचों की गुमानी क्या कहिये.

Saturday, October 30, 2010

जिंदगी को मकसद दो: By अंकित भाई

(अंकित भाई कि यह प्रेरक कविता हमारे विद्यार्थी जीवन , व्यावहारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में सदैव प्रेरक रही है...आज इसे अंकित भाई के लिखे 'प्रील्यूड' के साथ आप से शेयर करते हुए ख़ुशी हो रही है।)
________________________________________________

यह रचना मैंने अपने student life में, एक दिल छूनेवाले article को पढ़ कर लिखी थी.
इस प्रबुद्ध 'फोरम' पर इसे शेयर करते हुए मुझे ख़ुशी हो रही है, यद्यपि समय के साथ मेरे सोचने का अंदाज़ कुछ कुछ बदल गया है........लेकिन 'basics' वही है.

# # #
जिंदगी को मकसद दो,
और
दिल-ओ-दिमाग को जज्बा,
भर लो खुद को,
ऊँचाइयों के सपनो में...

गर ना हो मकसद कोई
जीने का,
पैदा होगा नहीं तुझ में एकत्व,
रहेगी बिखरी बिखरी सी
ताकतें तुम्हारी,

रहोगे बिखरे से तुम भी,
रहोगे टूटे हुए से
रहोगे टूटते निरंतर,
और
बीच राह
रेंगते रेंगते
गिर पड़ोगे
खो कर वजूद अपना...

पाना है शख्सियत को,
करलो एकजुट
खुद की जेहनी,
और
जिस्मानी
ताकतों को,
हो जाओ समर्पित
लक्ष्य को,
पाया जाता है
मात्र ऐसे ही,
स्वतंत्रता को,
स्व-पहचान को....

भूली भटकी मानसिकता में
जीने वाले,
होतें है एक भीड़ अराजक सी,
करते हैं बातें
थोपे हुए अनुशासन की,
होतें है स्वर उनके
विरोधी स्व के,
खिल सकता नहीं
संगीत सप्तक,
जो हो पाए
शक्ति जीने की...

देखोजमीं में दबे
बीज को,
कैसे संजो अपनी
सब ताकतों को,
उठता है ऊपर जमीं पर,
प्यास देखने सूरज को
बानाती है उसको अंकुर...

तोड़ता है खुद को
इसी प्रबल इच्छा-शक्ति से,
और चला आता है बाहिर
छोटेपन से...

बनो तुम भी
तरह बीज के,
बढ़ो ऊपर की ओर
संजो कर सारी
ताकतों को,
आएगा जरूर
वह पल,
पा सकोगे जब तुम
अपने स्वयं (सेल्फ) को....

मगर
सावधान !
लक्ष्य जीवन का ठोस हो,
सकारात्मक(positive) हो,
तुम्हारा अपना हो,
बासी ना हो,
उधार का ना हो,
और
जिद्द में कुछ अलग बनने का
क्रम ना हो....

चुन लो बस
एक 'सोलिड' सा मकसद,
छुअन जिसकी हो कोमल
नन्हे पंछी के पंखो सी,
जगा लो प्यास गहरी
उसे पाने की,
हो यही सफ़र तुम्हारा
जीवन जानने का,
जीवन जीने का....

Wednesday, October 27, 2010

वो हसीन लम्हे... :By नायेदा आपा

# # #
ढलती रात में
आँखों से नींद का
उड़ जाना,
नज़्म लिखने की कोशिश
और
कलम का ना चलना,
सोचा किया था
क्यों ना दुप्पटे को
बार-बार आँखों तक लाते
समेत लिया जाये
बीते हुए लम्हों को,
गुजर जाये शायद
शब-ए-फुरकत,
कर जाये मुखातिब
उनको
नज़रों के मेरे
यह सूरज सुबह का..
ना आये ना तुम सुबहा
फैलाया आँचल मेरा,
निरखा फिर से उन बीते
हुए नन्हे से प्यारे से
सुनहले पलों को
जो उस दूर बड़े देश के
छोटे शहर में
बिताये थे संग हमने.....

देख रही थी
बर्फ गिरने के वक़्त
बहिर निकल खुद को
सफ़ेद जिन्न बना लेना,
घर के शीशों के पार
धीरे धीरे चलती जिंदगी को देखना,
मेरे सर के ‘splitting’ दर्द से
तेरा घबरा जाना,
होले होले
मेरे सर को दबाना,
छुअन से दर्द का
गायब हो जाना,
गरम काफी के लिए
कड़कडाती ठण्ड में
दूर दूर तक चले जाना...

तुम्हारा बहिर
और
मेरा घर का जिम्मा लेना,
साथ बैठ चाय के प्याले के संग
'सिंगल इनकम' में जीने का
बजट बनाना,
रिश्तेदारों की ‘Din’(डबल इनकम)
पर तकरीरें करना,
बार बार मेरी डिग्रीयों का हवाला देना,
चुपके चुपके हमारी तकदीरों पे जलना,
पीठ पीछे हमारी बेवकूफियों का
मखौल उड़ाना,
मसालों कि खुशबू के संग
मुलुक का 'किचन' में चले आना,
हिंदी-पाक दोस्तों का साँझा हुल्लड़ मचाना,
घर के खाने का विलायती डिशों को हरा देना.
मेहदी हसन, लताजी, रेशमा,नूरजहाँ,जगजीत-चित्रा को
एक ही तहजीब का हिस्सा बताना,
जुदा कहने वालों से तेरे और वाहिद का जोरों झगड़ना,
सपनों में कराची, ढाका और जयपुर को एक संग देखना,
तुम्हे सजदे में झुका और मुझे मंदिर में पूजते देखना.....

फूलों के त्यौहार की उत्तेजना,
या 'Cherry Blossom' का मादक गुलाबीपन,
मोहब्बत,खूबसूरती और दोस्ती की बातें,
नए नए रंगीं नज़ारे देख
मेरा चेह्काना और चिल्लाना,
तुम्हारा शालीनता पर
बेहूदा सा ज्ञान देना,
फिर मेरे संग मुझ सा हो जाना,
बाँहों के वो गरम घेरे,
नज़रों की वो रूहानी ठंडक.
मेरे आंसुओं को पोंछते तेरे नर्म हाथ,
मुझे सहारा देते तुम्हारे शाने,
तेरे इंतज़ार में बैठी मैं,
तुम्हारी बिस्तर ना छोड़ने कि जिद्द,
वो सांझी रोशन हुई दीवालियाँ,
वो सांझे मनाये ईद,
शख्स, घटनाओं और सोचों पार
रुके बिना लम्बा सा विवेचन,
नाना अलंकारों से सम्बन्धियों का
चर्चन,रंगन और अर्चन....

सुहाने अपनायत भरे छोटे
शहर को छोड़ने का ग़म,
बड़े शहर में ऊँचे उठने
और
खुद को साबित करने का दम,
हडसन दरिया के किनारेटहलना,
बैठ कर वहीँ भाजी परांठे खाना,
'Brooklyn heights' का वो पहला घर,
धीमीं चालों के आदी को
न्यूयोर्क की तेज़ी का डर,
वही तबस्सुम वोहि हंसी तुम्हारी,
खिलती संजीदगी में डूबी
रुखसार कि 'dimples' तुम्हारी....


यह छोटे छोटे अनगिनत लम्हे
मानो लाल-ओ-गुहर अपनी जिंदगी के,
लगता है जैसे नात शरीफ हो
आपनी भाव भरी बंदगी के...

परछाईं..../Parchhayin...


# # #
हुआ करती थी
जब
शिखर पर
मैं,
दीखते थे
साथी
अनगिनत
मेरे,
गिरी जो
आज
जमीं पर,
संग मेरे
मेरी परछाईं
भी ना है..

Hua karti thi
Jab shikhar par
Main,
Deekhte the
Saathi
Anginat
Mere,
Giri jo
Aaj jamin par
Sang mere
Meri Parchhayin
Bhi naa hai....

Tuesday, October 26, 2010

प्रतिछाया.../Pratichhaya..

# # #
चलती रही
जीवनपर्यंत
बन कर
प्रतिछाया
उसकी,
पाले एक
प्रत्याशा,
देखेगा
वह
मुझको
कभी तो
मुड कर..


# # #

Chalti rahi
Jeevanprayant
Ban kar
Pratichhaya
Uski,
Paale aek
Pratyasha,
Dekhega
Woh
Mujhko
Kabhi to
Mudkar...

Jeevanprayant=Ta-umr, Pratichhya=Saaya, Pratyasha=Ummeed.

Sunday, October 24, 2010

शादीमर्ग.../Shaadimarg...

(सर क्लास में इस बात को कहा करते थे...मैंने कोशिश की है इस नेनो में कहने की)

# # #
देखकर
हरकारे को
रुक गयी
साँसें
उनकी,
हुए थे
शादीमर्ग
महबूब,
के दिया था
जवाब
मेरे ख़त का...

(शादीमर्ग=अचानक हर्षातिरेक से मरने वाला)

(Sar padhaate padhaate is baat ko chutile andaz men kaha karte the, maine koshish ki hai ise nano ke jariye kahne ki..)

Dekh kar
Harkaare ko
Rook gai
Saansen unki,
Huye the
Shadimarg
Mehboob,
Ke diya tha
Jawaab
Mere khut ka...

Shaadimarg =achanak hud se jyada khush hone ki wazah se marnewala.

गिरहें धागे और चदरिया: By अंकित भाई

(इस कविता को सोचने और लिखने के क्रम में में inspire हुआ मैं तीन रचनाओं से जिनका जिक्र आप से करना लाज़मी समझता हूँ. वे है मधुर भाई की रचना 'अनजान' का एक शे'र,रहीमजी का दुहा और गुलज़ार साहिब की नज़्म 'गिरहें'.)

# # #

कहा था
जुलाहे ने
गिरहें
मेरे जोड़े
धागों की
नहीं दिख पाती
कपडे में,
नहीं बता सकता हूँ
तरकीब उसकी,
बाँट सकता हूँ
मगर
तजुर्बा मेरा.....

लेता नहीं
मैं कभी
धागे कच्चे,
होती है
जब भी टूटन
खोता नहीं मैं
आपा अपना,
बंट कर
करता हूँ
एक सा
टूटे हुए
सिरों को
लगाकर
पानी थोड़ा
घुमा फिरा कर
थोड़ा,
लगाता हूँ
फिर गिरह
एक मज़बूत सी,
काट देता हूँ फिर
वो हिस्सा...

जो रह जातें है
बाहर गिरह के,
फिर कर के
गीला
पानी से
सूखा लेता हूँ
तुरंत
और
लगता हूँ बुनने
लगातार फिर से ,
लगा के
ताना बाना
लगन से.....

शागिर्द हूँ मैं
कबीर का
करता नहीं
कोताही,
नहीं करता
जाया मैं
वक़्त बेशकीमती को
सोचने में
बात टूटने की
या
बस देखने
गिरह को...

रहती है
नज़र मेरी
महज बात
इस पर,
अच्छी हो
बुनाई
चदरिया की
और
झोंक देता हूँ
अपना सब कुछ,
बुनने में
उसी को ...

अपनाकर
नजरिया
इमानदार
देखने दिखाने का,
देखा करिए आप
चद्दर पूरी को,
ना कि हिकारती
नज़र से
सिर्फ गिरह को,
बड़ी देन थी जिसकी
जोड़ने में
बिखरे टूटे धागों को...

तानो-बानो की
बुनाई में
होती ना
अगर गाँठ
ना होती
यह चद्दर मनभानी,
आती फिर
क्या काम खड्डी मेरी ...?
क्या लड़ने लड़ाने
बिला वजह
आप और
हम को...

करना
मंज़ूर हमें
वुजूद गिरह का
चद्दर की
खूबसूरती में,
देखना इसी हुस्न
जुड़ जाने में हुए
घटित को,
समझना
अपनी ही तरह*
चदरिया को,
बदल देगा
नज़रें और नजरिया,
देखेंगे आप
बस उसको ही,
ना की गिरह को
और
जोड़ को ,
खयाल रखना
ज्यों की त्यों
धर दी थी
झीनी झीनी चदरिया
एक अनपढ़-ज्ञानी
फकीर ने
गुजरे ज़माने में....

ऐ मेरे शायर दोस्त,
कहा उस सयाने से
जुलाहे ने,
फर्क सिर्फ है
नज़रिए और नज़र का,
नज़ारा है वही,
हकीक़त है वही,
होती है तकलीफ आपको
बीती बातें
भुलाने में
मापा करते हैं
आप तभी
हर शै को,
अपने ही
पैमाने में....


*इन्सान के जिस्म में भी कई गिरहें/गांठे/जोड़ हैं.......और सोचों में भी.
हम क्यों न जुलाहे की बातों को समझें, चदरिया सच में नायाब हो सकती है.

Saturday, October 23, 2010

कैसा नाता है : नायेदा आपा

# # #

(यह नज़्म 'psychology' विषय पढने के दौरान possessiveness पर की गयी एक केस स्टडी में हासिल हुए फीड-बेक परबेस्ड' है.)
# # #
तुम
से कैसा
नाता है
यह मेरा...

तुम होते हो तो
मिलता है लुत्फ़
सताने में तुझको,
जाते हो
जब तुम दूर थोड़े
आता है मज़ा
गिराने में
नज़रों से तुझको...

लेता है नाम
जब
कोई तेरा
थोड़े प्यार--इसरार से,
लग जाती है
आग जाने क्यूँ
मेरे उजड़े से
दयार
में.....
मैं तेरी हूँ या नहीं
भूल जाती हूँ मैं,
तुम सिर्फ मेरे हो,
बस खयाल यही
रहता है
मेरे इख्तिसार में...

जन्म से
खोया ही खोया है
मैंने....
जो भी है पास
उसे जकड़ने की
हो
गयी है अब
आदत सी मेरी,
जानते हुए कि
नहीं है मेरा
कुछ
भी...
खालीपन
बेबसी
और
जलन

हो गयी है
फ़ित्रत सी मेरी,
सब एहसास मेरे
बस है उपरी,
सोचें मेरी
हो गयी है
बेहद संकड़ी...

मालूम है मुझे कि
देने को तुम्हे
नहीं है कुछ
पास में मेरे,
मेरी हर मुस्कान
रंग
--तौहीन
हो गयी है,
कासे कहूँ
यह दुखवा हमार,
मुझको बस
ऐसी ही मोहब्ब्त की
आदत सी हो गयी है....

यही मेरा
बस इक पल का
सुकूं--तस्कीं है,
जिंदगी मेरी
इक बे-मंजिल का
सफ़र हो गयी है...
घुट रहा है दम तेरा
मेरे आगोश में
लज्ज़त तेरी
शख्सियत--सरफ़रोश में
थम गयी है.....

ईसर की
कई तकरीरें है
पास मेरे
फ़साने वफाओं के भी
बहोत लिखे हैं मैंने,
लफ़्ज़ों का एक
भंवर काफी है
डुबोने तुझ को
मोहब्बत में
मरनेवालों की
कहानियां बहोत
पढ़ी है मैंने....

भाग कर मुझ से
जाएगा कहाँ तू,
मालूम है मुझे
मुझ तक ही
लौट के आएगा तू......

मेरे अन्दर
कराह रहा है कोई,
दर्द भरे नालों से
ये आसमां गुंजार रहा है
आँखों में मेरी खौफ है
जगहा नींद के,
बैचैनी और अकेलापन
मुझ को
बेमौत मार रहा है...

जीना चाहती हूँ जिन्दगानी
मगर

बातें मेरी यारों
बस मौत सी है,
महबूबा हूँ मैं तुम्हारी
ऐ सनम
सोचें मेरी
महज़ एक सौत सी है...

आओ निकालो ना
इन
अंधेरों से मुझ को
रोशनी से नहला नहला
कर दो रोशन मुझ को...

मैं भटकी हुई हूँ
अपने ही वीरानों में
ले चल मुझे ए दोस्त !
मोहब्बत के रंगी
मयखानों में,
मुझ से पहली सी
मोहब्बत
मेरे महबूब न मांग,
मांग ले दुआ मेरे खातिर
किन्ही
मस्जिद-ओ-बुतखानों में

(इख्तिसार=gist/सारांश. शख्सियत=व्यक्तित्व,सरफ़रोश=आत्म बलिदान करने वाला. ईसर=स्वार्थ त्याग. दयार=घर/जगह, तौहीन=अनादर.)

Friday, October 22, 2010

शोर.../Shor

# # #

हुई हूँ
घिरी मैं
अनगिनत
आवाजों से,
शोर इतना है
ऐ मेरे महबूब !
पुकारूँ तो
पुकारूँ
तुम को
कैसे.....?

hui hun
ghiri
main
anginat
aawazon se,
shor itna hai
aey mere mehboob !
pukarun to
pukarun
tum ko
kaise....?

फजूल के शिकवे : by अंकित भाई

# # #
महाजे-शौक से
आती है
रुदादे-जंग क्यूँ,
खल्के-खुदा
तेरी पनाहों में,
मैं आया तो था.

उठाया था
पहला पत्थर
मेरे मोहसिन ने,
वरना तू-ने
मुझ को
बचाया तो था.

प्यासे की
जुस्तजू में था
ख्वाब इक
बहर का,
सपना सिदफ का
गौहर को
आया तो था.

रास्ते के
पत्थरों ने
खुद आकर दी थी
चोटें
पांवों को,
वरना मैं भी
संभल के
चल पाया तो था.

वक़्त ने
दे दिया था
मौका
डसने का,
आस्तीन का
सांप
कबसे यंही
पल पाया तो था.

जब देखा
सहन में गिरे
पत्थरों को,
शजर घर के
लदे थे
अनारों से
खयाल ऐसा कुछ
आया तो था.

भर गया था
आँगन उसका
फलों के ढेरों से,
मैं ना चख सका तो क्या
वो फरजन
मेरा हमसाया तो था.

रोशनी के
जवां लम्स ने
छोड़े थे अँधेरे..
दिलों में,
जुगनुओं के
जमघट ने
गीत रफाकात का
गाया तो था.

क्यूँ करते हो
शिकवे फजूल के
खुद से,
नज़र बुलंदियों पे
रखने
की
फ़ित्रत ने
साजो-दस्तर
गिराया तो था.



महाजे-शौक=Battlefield of desires, रुदादे-जंग=News of war, मोहसिन=Well-wisher,
लम्स=touch, साजो-दस्तर=turban(पगड़ी), शजर=Tree, फरजन=wise person, हमसाया=neigbour, बहर =ocean,समंदर जुस्तजू=in search, सिदफ=mother of pearl(सीपी) ,गौहर=pearl, रफाकत=peace and happiness(सुख-शांति) , खल्के-खुदा=O lord! Master of Universe.




Thursday, October 21, 2010

ज़ज़ीरा...

# # #
घेरे हुए है
डरावना
समंदर
देखो
भोलीभाली
सरसब्ज़
जमीं को,
बसा है
इन्सां की
रूह में
ज़ज़ीरा एक
ख़ुशी-ओ-सुकूं का,
घिरा हुआ
आधी-अधूरी
जीई गई
ज़िन्दगी के
खौफों से...

ज़ज़ीरा=island , सरसब्ज़= verdant

(Inspired by a write of famous American novelist, short story writer and poet, Herman Melville-1819-1891.)

Tuesday, October 19, 2010

यादों के साये : नायेदा आपा की ग़ज़ल

# # #
तनहा वो चमन में जब जाता होगा.
तस्सवुर में उसके कुछ तो आता होगा..

उसको निस्बत रहती है महज हक़ीक से,
खयालों में ख्वाबों को भी लाता होगा....

माना कि मसरुफ रहा करता है वहां,
निकह्तें फुर्सत की सीने से लगाता होगा...

हंस हंस के महफ़िल गुंजाता है तो क्या,
रात की तन्हाई में वो सिसकता होगा...

सपनों को अपने सजाता है मेरी सूरत से,
आँख खुलने से मेरा खयाल ही आता होगा...

दूर मुल्क और गैरों में थिरकना भी तो क्या,
उसका साज-ए-दिल तराने मेरे ही गाता होगा...

लिखते रहतें है नग्मात उसकी यादों में,
दिल पे वो साये यादों के बसाता होगा...

तस्सवुर=कल्पना, निस्बत=लगाव, हक़ीक=वास्तविकता,
मसरुफ=व्यस्त, निकह्तें=खुशबूएं।

सच और झूठ

# # #
मिल गए थे
अनायास
सच और झूठ
चौराहे
किसी पर,
सच था
नंगे बदन,
और
बाँधी हुई थी
झूठ ने
इक लंगोटी,
पूछने लगा था
झूठ
सच से,
"अरे
नहीं आती
हया
तुझ को
फिरते घुमते
नंग धडंग
बेझिझकी से ?"
बोला था
सच,
"झूठ निर्लज्ज़े !
बनाएगा
जब तू
घर अपना
मेरे मन को,
ज़रुरत होगी
ढकने की
मुझे भी
अपने
इस
कंचन से
तन को."

Monday, October 18, 2010

स्वभाव और कर्म...

# # #
चम्मच भर
चीनी,
च्यूंटी भर
नमक,
रंग रूप
एक सा,
कौन किस से
कम....?
बोली थी
जिव्हा :
स्वभाव ही की
बात है,
शक्लों में
रखा है क्या,
कर्मों पीछे
जात है...

'सत'

# # #
बस
खोला ही था
दरवाज़ा,
बिना कुछ पूछे
बिना कुछ कहे
चली आई थी
भीतर वो,
फ़ैल गई थी
कारपेट पर,
फिर
बिछ गई थी
बिस्तर पर,
कपड़े तक
ना उतारने दिये
जालिम ने,
लिपट गई
निगौड़ी
रौं रौं से मेरे...
रात का वक़्त,
सूना घर,
कहा था उस से मैंने
चली जा,
रहना साथ
मर्द पराये के
नहीं है ठीक,
क्या समझेगा
तुम्हारा 'वो' ,
आया था
अचानक
बादल एक,
ढक दिया था
उसने
मुखड़ा चाँद का,
हो गया था
अँधेरा सा,
इस बीच
ना जाने
चली गई थी
कहाँ वो,
बादल बढा था
तनिक सा,
चली आई थी
फिर से
चंचला,
कहा था मैंने
अरी चांदनी !
चली गई थी
कहाँ तू,
कहा था उसने
कहीं तो नहीं...
रहती हूँ
मैं तो
हर पल
संग अपने चाँद के,
अरे भोले मानुष !
अभी भी नहीं
समझे तुम,
अरे मैं तो
रहती हूँ
टटोलती
'सत'
तुम से
मर्दों का...

Sunday, October 17, 2010

किरकिरी...

# # #
नहीं थकी थी
आँख
दुनिया के
दोषों को
देखते
देखते,
हुई थी
किरकिरी को
उत्सुकता,
करली थी
उसने
एक 'अन प्लान्ड विजिट'
आँख की,
करने
निरीक्षण
एवम
प्रयवेक्षण
उसकी क्षमता का,
आँख हो गयी थी
लालम-लाल
गुस्से में,
किन्तु छोटी सी
किरकरी
डरती क्यों ?
आखिर में
रोने लगी थी
सर्वशक्तिमान आँख
होकर
परेशान,
तब छोड़ा था
पीछा उसका,
उस धूल के
नन्हे से
कण ने...

विशाल-लघु...

# # #
नहीं
कुचल
सकता
विशाल
तिमिर
गजराज सा,
दीपक की
चींटी सम
लघुतम
जलती हुई
लौ को....

Saturday, October 16, 2010

रास्ता और मंजिल...

(मेरी कतिपय प्रस्तुतियां, सामान्यतः पेश होने वाली कविताओं जैसी नहीं है....इन्हें गद्य रचना भी समझा जा सकता है तकनीकी तौर पर)
# # #
पूछ बैठा
बैल तेली का
कोल्हू से,
"यारां !
चल चुके हैं
हम
अब तक
मील
कितने....?"
जवाब था
कोल्हू का,
"धीरज
रख साथी !
जब होंगे
ख़त्म
तिल सारे,
आ पायेगी
तभी तो
मंजिल
अपनी...."

Friday, October 15, 2010

भेद...

# # #
चमचमाता
हीरा
समाया
धूल में,
लिपटा उससे
और
अँधा हो गया...
गन्दला सा
बीज
लिपटा
उसी धूल से,
खोल कर
आँखें अपनी
उठ आया
ऊपर
और
बन गया
जद,
तना.
डाल,
पत्ते,
फूल
और फल...
क्या
भेद
यही है
पात्र-अपात्र का,
प्रेम-अप्रेम का,
सजीव-निर्जीव का......?

अनोखा प्यार : अजीब इज़हार...

# # #
लगी कहने
शम्मा :
मेरे महबूब
मेरे अज़ीज़
मेरे डोरे !
किन्ना प्यार
करूँ हूँ
मैं तौ से,
देखो ना
बसाया है
तौ को
भीतर अपने....
भुक्तभोगी डोरा
मिमियाया :
बतिया तो नीमिन तोहार,
ऐ मेरी शम्मो !
ऐ मेरी मल्का !
जलूं हूँ
तब ही तो
मैं
तिल तिल के...

उदासी, ख़ुशी और सापेक्ष..



उदासी...

#
पीले हुए
पत्ते
हुआ
चेहरा
माली का
भी
पीला....

ख़ुशी...
# #
हुए फल
पीले
चेहरा
माली का
हुआ
लालम
लाल....

सापेक्ष..
# # #
रंग एक
प्रभाव दो
सापेक्ष
कितना है
यह
जीवन...

Thursday, October 14, 2010

अंतर और अंतर....

# # #
ताम्बे के
कलश ने
कहा माटी के
घड़े से
यार ! मेरे में भरा
नीर
रहता है
इतना गरम
क्यूँ...
और
तुझ में रहा
पानी
हो जाता
इतना शीतल
क्यूँ...
बोला था घड़ा :
सुन सरदार !
मैं देता हूँ
जगह
जल को
अंतर
अपने में
और
रखता है तू
उसको
अपने से
अंतर में...

Wednesday, October 13, 2010

पाँव दूजों के....

# # #
पर्वत के शिखर पर
चढ़ गयी थी
छोटी सी चींटी,
झाँका था उसने नीचे :
लगा था हाथी कुत्ते जितना
ऊँट मानो हो खरगोश
और इन्सान मानो खिलौना,
बहुत खुश थी चींटी
लगी थी सोचने
ना डरूं में अब तो,
डर से मरुँ ना अब तो,
बहम था बस मेरा
कोई भी तो नहीं बड़े,
देखा आज मैंने
असल रूप उनका,
बढाती कदम तेज़ी से,
उतारी थी नीचे चींटी,
लगने लगा हाथी पहाड़ सा
ऊँट हाथी सा
इन्सान शैतान सा,
घबरा गयी थी बेचारी चींटी
पूछ बैठी थी पर्वत से :
पल भर में यह फर्क कैसा ?
मुस्कुराया था पर्वत,
लगा था कहने :
पहले नज़रें थी तुम्हारी
मगर
पांव थे मेरे,
और अब ?
नज़रें भी तेरी
पांव भी तेरे....:)

Monday, October 11, 2010

बरहना....../Barhana


# # #
अरी सुई !
क्या हुआ तुझे
हासिल
बींद कर
दिल
फूलों के,
समा गया ना
धागा तो
भीतर
और
तू..... ?
रह गयी ना
बस,
बरहम
बरहना
बेहया
बेहूदी सी...

(बरहम=अप्रसन्न, बरहना=नंगी, बहाया=निर्लज्ज, बेहूदी=अशिष्ट)

Ari Sui !
Kya hua tujhe
Hasil
Beendh kar
Dil
Phoolon ke,
Samaa gayaa na
Dhaga tau
Bheetar
Aur
Tu.......?
Rah gayi na
Bas
Baraham
Barahana
Behayaa
Behoodi si....

(Baraham=displeased/disarranged, barahana=nude, behayaa=shameless, behoodi=absurd.)

Sunday, October 10, 2010

भ्रम पहचान का...

# # #
हरी हरी इतराई
दूब ने
किया व्यंग :
अरे ओं लम्पट झरने !
क्या तू है संतान
पवन की,
बहता रहता
कल कल..कल कल
रहे उछलता
पल पल...पल पल,
होता नहीं
स्थिर कभी भी...
मंद मंद
मुस्काया था
वह निर्मल झरना,
प्रेम से बोला :
वाह ! की है
सटीक पहचान
तू ने तो, :)
मैं तो हूँ
बेटा पर्वत का,
जो नहीं बदलता
करवट तक भी....

एक सोच...

# # #
मुश्किलें,
मुसीबतें ओ,
तकलीफें
बढा देती है
हौसला
इन्सां का,
जलता है
कपूर
ज्यों ज्यों,
फैलती है
बढ़कर,
खुशबू
उसकी...

Saturday, October 9, 2010

पीठ पीछे ...

# # #
पूछ बैठा
झोंका
हवा का
पेड़ के
वाचाल
पत्तों से,
"अरे !
आता हूँ मैं
जब ही
करते हो
क्या तभी
चर्चा-विचर्चा
तुम सब ..?"

बोल उठे
पत्ते,
"आदत नहीं
हमें
कानाफूसी की
पीठ के पीछे..."

Friday, October 8, 2010

अनुभूति..

$ $ $
पिंजर और घर
अब मोहे
लगने लगे है
एक से,
है विमुक्त
होने को
आत्मा,
मिथ्या
बंधन
प्रत्येक से...

Tuesday, August 24, 2010

विस्मृत...

$ $ $
विस्मृत हुई है
छवि तुम्हारी,
हो तुम बस एक
स्वप्न निशा का,
हो गयी चेतन
सजग आज मैं,
पाकर ज्ञान
गंतव्य
दिशा का....

Tuesday, August 17, 2010

पैगाम...(Extempore)

# # #
पैगाम-ए-उल्फत हम
पहुंचाते रहे,
इलज़ाम हम पे
वो लगाते रहे,
चल दिये थे 'महक' जब हम
महफ़िल-ए-ज़िन्दगी से
किस्से ख़ास-ओ-आम
याद आते रहे......

निशाँ....(Extempore )

# # #
निशाँ मेरे
अश्कों के
देखो इन
दीवारों पे है,
चंद अक्स
मेरी खिजा के
बहारों पे है....

Monday, August 16, 2010

हमसाया..

# # # # #
साथ
ना दे रहा
जब,
अपना ही
साया,
होगा कौन
ऐ 'महक',
हमारा
हमसाया...

Thursday, August 12, 2010

अजनबी से मुलाक़ात ना हुई होती....(आशु ग़ज़ल)

#######################

उस अजनबी से मुलाक़ात ना हुई होती
ज़िन्दगी यूँ हमारे साथ ना हुई होती.

चाहतों के भरम ना दूर हुए होते जानम
मोहब्बत की जो असल बात ना हुई होती.

गुमां था के जानते हैं सब कुछ हम तो
सोचते हैं आज किताबात ना हुई होती.

जल के रह जाती ये फसल ज़िन्दगी की
प्यासे खेतों पे यह बरसात ना हुई होती.

रोशनी मिलती 'महक' को ना कभी भी
मुखातिब जो अँधेरी रात ना हुई होती.

रौंगटे......(Extempore )

##########

बेजुबाँ
ना थी वो
बे अक्ल भी नहीं
सी लिए थे
होंठ उसने
पहन ली थी
ख़ामोशी....

ज़ुल्म सह कर
चुप रही
घुटती रही
जलती रही,
माशरा बेपरवाह था
छाई थी मानो
बेहोशी...

बाप ने सौदा किया था
खुद अपनी
औलाद का,
पहली से थी
वोह बिटिया,
किस्सा है यह
हैदराबाद का.....

माँ सौतेली ने
था बचाया
उसको
उस लम्पट
शेख से,
बेवा बनकर
बख्श दी थी,
ना जनी थी
जिसको
कोख से....

बह रहा था
दरिया खूँ का
उस ज़ालिम के
जिस्म से,
मिटा डाला था
आज उसने
जुल्मी को
इंसानी
किस्म से..

जुनूँ था के
दे रही थी
हैवाँ को वो
गहरी चोटें,
चंडी बनी थी
नेक खातून
हो रहे खड़े थे
रौंगटे...

Monday, August 9, 2010

ऊर्जा...

########
शुमार है
रजा
उसकी में
हमारी
ऊर्जा ,
पोशीदा
हर इक
फिजा में है
उसकी
ऊर्जा,
पहचाननी है
खुद में
हमको
उसकी
उर्जा,
जो है
हम में
वह नहीं है
महज़
उसका
कर्जा......
हमारी ही है
हमारी है
यह बेशुमार
उर्जा...

Wednesday, August 4, 2010

अकेले में...

# # #
टूटे हुए खिलौने भी
जी को
बहलाया करते हैं,
दिल के अधूरे अरमां
वो भी पूरे
किया करते हैं,
खिलखिलाते हैं
'महक'
सर-ए-वज़्म यूँ ही,
दरिया-ए-अश्क
अकेले में
बहाया करते हैं...

Tuesday, August 3, 2010

आक्रामक

# # #
नीरीह बन
मैं
सहती जाती हूँ
सब कुछ
बहुत कुछ,
लेकिन
भंग होती है
जब परिसीमा,
विखंडित
हो जाता है
धैर्य मेरा
और
हो जाती हूँ मैं
आक्रामक
लगभग
अचानक...

ऐ ज़िन्दगी..


# # #
निभाई है खूब यारी
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
चोट दी है करारी
तू ने ऐ ज़िन्दगी !

हंस के मनाया था
जब जब तू रूठी थी,
जी भर के रुलाया है
तू ने ऐ ज़िन्दगी !

आगोश में थी जब तक
छुअन में था अपनापन,
सताया है वक़्त-ए-जुदाई
तू ने ऐ ज़िन्दगी !

चाहत पे मेरी पर
होता था गुरूर तुझ को,
आज सब कुछ भुलाया है,
तू ने ऐ ज़िन्दगी !

साथ जीए जाने के वो
अहद अनगिनत,
बेदर्दी से तोड़े हैं आज,
तू ने ऐ ज़िन्दगी !

रूह की बातों को
तू जाने भी तो कैसे,
साथ जिस्म का ही दिया है
तू ने ऐ ज़िन्दगी !

मिलेगी 'महक' फिर से,
फैलेगी वो हर सू,
फूल बस एक ही तो मुरझाया है
तू ने ऐ ज़िन्दगी...

Monday, August 2, 2010

बेखबर....

# # #
कोई
खबर नहीं
बेखबर हैं
हम,
जो होना है
होगा
बेअसर है
हम,
हर लम्हे
जीए जा रहे हैं
'महक',
लुत्फ़-ए-सुकूं से
तर बतर हैं
हम....

भीड़ में पहचान अपनी...

(बस आपके बीच होने की तमन्ना यहाँ ले आती है, ना ज्यादा पढ़ रही हूँ, ना ही कमेंट्स दे रही हूँ...बस यही एहसास ख़ुशी दे रहा है आप सब के साथ हूँ....मुआफ कीजियेगा.)


# # #
भीड़
भीड़ होती है
हुसैन सागर के
किनारे की
कनाट प्लेस के
गलियारेकी
टाईम्स स्क्वायर की
गली-चौबारे की...

भूल कर
पहचान अपनी
दौड़े जा रहे हैं
पुतले से सब कोई
ना जाने
किस जानिब....

मेरे हमदम आईने !
सिर्फ
तू ही तो है
जो करा रहा है
पहचान मेरी
मुझ से,
घर की
समाज की
दुनियाँ की
इस जानी अनजानी
बेतरतीब
भीड़ में.......

Thursday, July 29, 2010

साँसों का सफ़र...

(दिल नहीं मान रहा था, आपकी महफ़िल में महक हाज़िर है..कभी कभी आउंगी...आप सब को मेरा सलाम और शुभकामनाएं !)

# # #
साँसों का
ये सफ़र
'महक'
कितना
सुहाना है,
मिल जाये
कब
मंजिल
हम को
बस क्या
ठिकाना है...

Wednesday, June 23, 2010

कैसा था वो मंज़र सुबहा का...

# # #
कैसा था वो मंज़र सुबहा का...

सैर के बाद
रेबोक और नाईक पहने
चबा चबा कर
अंग्रेज़ी बोलते
या साहित्यिक
हिंदी उर्दू में
बतियाते
रीमलेस ऐनक लगाये
फ्रेंच कट दाढ़ी
मोटी तौंद वाले
चंद विचारवान
जिम्मेदार शहरी
भद्र लोग
कर रहे थे
चर्चा
बाल मजदूरों के
शोषण पर,
गरमागरम थी
चर्चा,
हर कोई अपने
महान विचारों को
कर रहा था पेश.....

एक ने कहा
हमें इन मजलूम बच्चों को
अपने बच्चों की
नज़र से देखना होगा,
दूसरे ने कहा
ये भी इन्सान है
इन्हें भी पढने लिखने और
आगे बढ़ने का हक है.
तीसरा भावुक हो रहा था,
अरे इन्ही में तो
बसते हैं भगवान्,
चौथे को शिकायत थी
सरकार से
जो इन बाल मजदूरों के लिए
कुछ भी नहीं कर रही.
पांचवे को तो हो रही थी
कोफ़्त
अल्लाह ताला से
क्यों पैदा किया
इन्हें गरीब के घर.
एक महाशय
कोर्पोरेट जगत के थे
कंपनी के खाते में
हर महीने
विदेश जाते थे
बताया था उन्होंने,
मग्रिबी मुल्कों में
बात कुछ और है
वहां बच्चों और बूढों की
कद्र यहाँ से 'मोर' है .
देखा इतने में
एक दस वर्ष का मासूम
लगभग इसी उम्र के
मालिक का
बोझिल बस्ता
स्कूल बस तक
ढ़ो रहा था,
सुबहा सुबहा ऐसा ही
एक बालक
मलकानी की थप्पड़ खा
रो रहा था
सन्डे का दिन था
मोर्निंग वाकर्स भी
थे फुर्सत में
टाइम पास का
अच्छा सब्जेक्ट था,
बुद्धि विलास
टाईम पास
मनोरंजन बस प्रोजेक्ट था,
चाईल्ड लेबर से बात
चाईल्ड अब्यूज
बच्चों के यौन शोषण
और
सेक्सुअल पर्वर्सन तक का
सफ़र तय कर चुकी थी
लुत्फ़ से उस
मजलिस की बांछे
खिल चुकी थी.
मिस्टर पोद्दार ने
अच्छी खासी गाली देकर कहा था,
"एय रमुआ, माँ के खसम
देखता नहीं है
साब लोगों को
एक एक सिकोरा
केसरिया चाय
और होना..
ला ज़ल्दी से ला फिर
अपनी बहन के संग सोना.

बारह साल का रामुआ
सोच रहा था,
अगर उसकी माँ का खसम
पोद्दार सा होता
वह भी रामेश पोद्दार
हुआ होता,
झक्कास युनिफोर्म में
ऑर्बिट च्युंगम चबाता
होण्डा सिटी में सवार हो
स्कूल जा रहा होता...

Monday, June 21, 2010

काल पिंजर...

# # #
निशा
कोयल काली है
दिवस
हंस सफ़ेद,
काल पिंजर
नित ले
फिरा गगन,
कर ना
सका उन्हें
कैद...

प्रतीक्षा

# # #
प्रतीक्षा
चंचल बाला
मन की
आसान जमाये
रहती बैठी
अंखियन के
झरोखों में,
और
ये मुए कान
उस पगली के
कारिंदे,
रहते मुस्तैद
बेताब से
आठों
पहर...

Sunday, June 20, 2010

सत्य के पदचिन्ह ( ?)

# # #
सत्य भी
होता
पांवहीन,
पदचिन्ह
उसके
कहीं नहीं है
बहिरंग में,
भ्रमित
भटक रहा
क्यों
तू प्राणी,
देख उसे
जरा
अन्तरंग में....

(सच और झूठ सापेक्ष होते हैं...मनुष्य अपने मत के अनुसार नाम देकर उन्हें चलाता है...वास्तविक सत्य हमारे अन्तरंग में होता है..जिसे बस अनुभव किया जा सकता है परिभाषित नहीं किया जा सकता..कहा जाता है झूठ के पाँव नहीं होते...हम सत्य के बारे में ऐसा कहने में घबराते...हिचकिचाते हैं...किन्तु कवि के सोचों की उड़ान की कोई कंडिशनिंग नहीं...वह तो उन्मुक्त है..इसलिए सत्य को आज मैंने अपाहिज कह दिया....)

कैसी विडम्बना...

# # #
मधुसंचय
श्रम में
मधुपर्णी ने
लगाया
श्वेद और
हृदय,
इलाज़ में
नुस्खा
औषध का
किन्तु
लिखता जाता
वैद्य...

(मधुपर्णी=मधुमख्खी)

Saturday, June 19, 2010

एक छोटी सी कविता

# # #

जिन्दगी में
तुम आये,
जिन्दगी
मुस्कुरायी,
जिन्दगी
खिलखिलाई,
सपनो को भी
पंख लग गये,
दिल के अरमां
जिन्दा हो गये,
कलियों से
खिलकर
फूल होगये,
शूल भी
राहों में
बिछे
फूल होगये,
जिन्दगी में
सारे रंग
भर गये,
मरुस्थल सी
जिन्दगी
हरियाली का
चमन हो गयी,
सूखी नदिया
बहता
एक
झरना हो गयी...

पूर्णता..

'मननीय' स्तम्भ के अंतर्गत मधु संचय के इस अंक में गुरु गोरखनाथ की यह वाणी संकलित की गयी है :

"भरया ते थीरं झलझलन्ति आधा, सिधें सिधें मिल्य रे अवधू बोल्या अरु लाधा."

भावार्थ है- आधा भरा हुआ घड़ा खूब आवाज़ करके अपने अधूरेपन की जानकारी सबको दे देता है, लेकिन जिस प्रकार पूर्ण कुम्भ को लेकर चलने पर किसी को पाता नहीं लगता है; उसी प्रकार सिद्ध जन से सिद्ध जन का मिलन जब होता है तो उनकी वार्ता बिना शब्दों के ही हो जाती है. आवश्यक होने पर भी वे कुछ बोलते है तो अनुभूत सत्य के बारे में संक्षिप्त बात होती है.
एक नेनो इस भाव के साथ :
आधा भरा : पूरा भरा
# # #
आधा भरा
घट
करके
खूब आवाज़
बता देता
हकीक़त अपनी,
नहीं मालूम
होता
मगर
चलना
किसी का
भरे घट को
लेकर...

(गोरख वाणी पर आधारित)

सेहत और सोना

('मधु संचय' में एक स्तम्भ 'स्वास्थ्य' केप्शन के साथ है. सेहत पर गज़ब बात लिखी है एक, मैंने नेनो में ढाल दिया है.)
# # #
सेहत को
कर दी
तू ने
जर्जर
जर बढाने के
चक्कर में,
नहीं
मिटेगा
जरर
अब
इस
बर्बादी-ए-जर में..

(जर=धन/सोना, जरर= नुकसान/हानि ) (मधु संचय सीरिज-जून २०१०)

प्रार्थना

(मधु संचय का अंक मात्र आठ पृष्ठों का है, किन्तु उसमें अथाह मधु भरा है...सुबह सुबह देखा और मुख पृष्ठ पर ही स्वामी सत्यमित्रा नंदजी के प्रार्थना पर विचार बस दो पंक्तियों में दीये हुए हैं...मैंने कोशिश की है उन्हें एक नेनो में भर कर पेश करने की.)
# # #
है क्षण
खुद को
जगाने का
प्रार्थना..

भ्रमित
ना हो
जीवन
निरर्थक,
मार्गदर्शन का
प्रकाशस्तंभ है
प्रार्थना.....

हों विकसित
स्वयं में
अन्तः विश्लेषण
करने का
अवसर है
प्रार्थना....

(मधु संचय सीरिज-जून २०१०)

जुगनू और तारे...

(अगला स्तम्भ है 'स्वाति-बूंद' कवि गुरु टेगोर के शब्द हैं वहां, जिन्हें मैंने एक नेनो में तब्दील किया है.)

# # #
बीच
पत्तियों में
चमकते
जुगनू,
डाल रहे हैं
तारों को भी
विस्मय में ...



(प्रत्येक वस्तु का अपना सौन्दर्य और महत्ता होती है.) (मधु संचय सीरिज-जून २०१०.)

Friday, June 18, 2010

भ्रमित मनोवृति....

(मधु संचय सिरीज-जून २०१०)

# # #
रेत सूखी
लिए हाथों में
भींचते है
मुट्ठियाँ,
फेंकते
रसदार
हिस्सा
खा रहे हैं
गुठsठियाँ !

नीलकंठ

(मधु संचय सीरीज-जून २०१०)

# # #
तह-ए-दिल से
पीकर
गरल
जहां का
बन गया तू
नील कंठ
जगदीश्वर,
शून्यता में
पाकर
पूर्णता
हो गया
तू
अर्धनारीश्वर....

मैंने भी अर्ज़ किया है : खोयी हुई जवानी

(मधु संचय सीरीज-जून २०१०)

# # #
क्या खोजती हो
बड़ी बी !
कमर अपनी
झुका कर
खाक
बिखरी में
अपनी
नज़रें
गडा
कर ?

मुई !
खोजती हूँ
खोयी
अपनी
जवानी,
घर
अपने को
फूंका कर...

चिन्ह...

(मधु संचय सीरीज)

# # #
किया
तू ने
सफ़र पूरा
अपनी
जिंदगानी का,
छोड़ गया
बस चिन्ह
अपनी
भली-बुरी
कारस्तानी का...

दूध और विष...

(मधु संचय सीरीज-जून २०१० अंक)

# # #
सुझाव
सार्थक,
मूढमति को
कर सकते
नहीं कदापि
शांत,
करेंगे
तप्त उसको
प्रत्युत,
कराएँ
यदि
दुग्धानुपान
सर्प को
मित्रों !
होगा
विष
केवल
उत्पत...

सत्यम शिवम् सुन्दरम !

(पत्रिका के हर अंक पर मुख पृष्ठ के शीर्ष पर लिखा होता है : सत्यम शिवम् सुन्दरम !)
# # #
कहतें हैं
सत्य
कटु होता
है
कैसे हो
सकता है
कटु किन्तु
सुन्दर...

सुन्दर बनने
हेतु
बनना होगा उसे
शिव
जहाँ कोई
परते नहीं
जो है
प्रत्यक्ष है..
कितने
विरोधाभास
कितने
ऐसे नज़ारे
जो कुछ भी हों
मगर
इस चमड़े की
आँखों वाली
दुनिया की
नज़र में
सुन्दर नहीं
सुन्दर नहीं...

अघोर,
जटाजूट
सिर पे,
रमाये
बभूत
अर्ध नग्न
तन पर,
शिखा से
प्रवाहित
सुशीतल
गंगा,
तीसरे
नयन में
किन्तु
बसी है
ज्वाला,
अगन और
जल
संग संग..
मेरे मौला !
सूरज सा
तेज़
प्रस्फुटित
मुखमंडल से,
चंचल
शीतल
चाँद को
किन्तु
सुसज्जित
जटाओं पे,
तांडव के
नृतक
नटराज
किन्तु
जमाये बैठे हैं
आसान
स्थिर
कैलाश के
बारीक
शिखर पर,
फकीर सी
शख्सियत
मगर
कहलातें है
त्रिलोकीनाथ,
अपना
कुछ भी
नहीं
मगर
महादानी
अत्यंत,
दे दिया
महल
याचक
विष्णु को
हो कर
फिर से
बेघर,
कराते हैं पूजा
अपने लिंग
एवम्
देवी की
योनि की,
तत्पर है
किन्तु
जलाने
हस्ती
कामदेव
मदन की,
पशुपतिनाथ
किन्तु
बांधे
मृगछाल
कमर को,
तुरंग सुन्दर
उपलब्ध
किन्तु
बनाए
सवारी अपनी
सांड
नन्दी को...
कितनी
गिनाएं
खासियतें
भोलेनाथ की,
दुनियां के
मालिक
त्रिकाल पति,
कहलाने वाले
किन्तु
भूतनाथ की...

तो
सत्य को
होने
सुन्दर
स्वीकारनी
होती है
समग्रता
शिव की तरह,
जहाँ है
असंगतियों
और
विरोधाभासों का
सह-अस्तित्व...

यही है
सत्यम
शिवम्
सुन्दरम !

मधु संचय

(सब से पहले पत्रिका का नाम पढ़ा और यह कविता घटित हुई)
# # #
हम
करने लगें हैं
संचय
विष का
कर के
शोषण
एवम्
विखंडन
औरों का,
भूल गये हैं
हम
शायद कि,
करती है
मधुमक्खी
संग्रह
शहद का
किये बिना
नुकसान
तनिक भी
फूलों का....

क्षण...

क्षण के
आगे भी
क्षण
क्षण के
पीछे भी
क्षण...

भूल जा
उस क्षण को
जो
चला गया;
सजा लो
उस क्षण को
जो है,
ताकि,
संवरे
स्वतः
वह क्षण
आना है
जिसे...

शब्द

शब्द
एक
अंकुरित
बीज
समाया है
जिसमें
अर्थ का
वृक्ष
उगेगा
किन्तु
पाकर
अनुभव की
धरती
संवेदनाओं का
जल....

Thursday, June 17, 2010

तरुवर....

# # #
झुक जाता है तब
फलों से लदा
शज़र
अपनी फ़ित्रत के तहत
देता है छांव
जब वह दरख़्त
मिट जातें हैं भेद
गैरों ओ अपनों के
उसकी कुदरत के तहत...

जपतें हैं प्रभु नाम
दरवेश... उसके तले
छांव में उसके कभी
किसी बुद्ध का
आत्मज्ञान फले
परिंदों ने डाले हैं
उसकी शाखों में डेरे
बच्चों के खिलखिलाते
झुण्ड करतें हैं उसके फेरे...

उसके लिए है ना कोई
गरीब और अमीर
कहा था किसीने जगा कर
अपना जमीर
"तरुवर फल नहीं खात है
नदी ने संचे नीर
परमारथ के करने
साधु ने धरा शरीर...."

Wednesday, June 16, 2010

समग्र जीवन (एक तिकड़ी)

# # #
चलो जी लेते हैं आज एक समग्र जीवन
'तुम' 'तुम' ना रहो 'मैं' 'मैं' ना रहूँ....

शायद पहिले ऐसा ना था....

'त'

This write just happened...this is not a literary piece but a child game type exercise...This jumble of words with its deep meanings, is addressed to those who instigate terrorism........humbly sharing with you...for meanings please see next column where i have given the meanings of Urdu words in English side by side, for better flow of understanding. Please, excuse me for one or two grammatical errors.......i have ignored them in the interest of poetry composition.
__________________
'त'
# # #
तफरीक
और
तबर्रा
तफरीह है
तुम्हारी,
तफ़सीर नहीं...

तफावत की
तफसील
तबर है इक
तहरीर नहीं...

तहम्मुल की
तलकीन
तासीर है
हमारी,
तसव्वुर में
तामीर हुई
कोई
तस्वीर नहीं...

तहमतें
लगाना
तौहीन
करना
तुअना है
तमकिनत
तुम्हारी का,
तकदीर वो
हमारी नहीं...
_______________

'त'
# # #
तफरीक (अलग करना)
और
तबर्रा (किसी के प्रति घृणा प्रकट करना)
तफरीह है (मनबहलाव)
तुम्हारी,
तफ़सीर नहीं...(टीका भाष्य- किसी धर्म ग्रन्थ का)

तफावत की (फर्क)
तफसील (व्याख्या)
तबर है इक (कुल्हाड़ी)
तहरीर नहीं...(लिखित प्रमाण)

तहम्मुल की (सब्र के साथ रहना)
तलकीन (शिक्षा)
तासीर है (गुण का प्रभाव)
हमारी,
तसव्वुर में (कल्पना)
तामीर हुई (रचना)
कोई
तस्वीर नहीं...(चित्र)

तहमतें (बदनामी लगाना)
लगाना
तौहीन (अपमान)
करना,
तुअना है (गर्भपात)
तमकिनत (प्रतिष्ठा)
तुम्हारी का,
तकदीर (भाग्य)
वो हमारी नहीं.....

Tuesday, June 15, 2010

अति : Excess

# # #
फल
गिरता है
होकर
सरोबार
रस से...
फूल
झरतें है
होकर
विहीन
रस से...

पहला
अध गया है
सुख से
दूसरा
हो गया
क्षीण
दुःख से...

गिराती है
अति दोनों की
सुख की भी
दुःख की भी...

प्रभाव

# # #
हिमपात और
गरम का
एक ही मूल
स्वभाव,
सूख जाता है
तरु
होता जब
दोनों का
प्रभाव.....

विकार

# # #
दर्पण को
अर्पण हुई
कर गौरी
श्रृंगार,
पर किंचित
जगा नहीं
दर्पण-मन
विकार...............

Monday, June 14, 2010

Leadership : नेतृत्व

# # #
सच्चे मार्गदर्शक
कदाचित ही
ज्ञात होते हैं
अनुयायियों में,

तदनंतर
आते हैं नेता
ज्ञात एवम् प्रशंसित
जन जन में,

उनके पश्चात
होतें हैं वो
जिन से
होतें हैं
भयाक्रांत
लोग,

कुछ ऐसे भी
होतें हैं
तथाकथित नेता
हेतु जिनके
तिरस्कार और
घृणा
होती है
जनता-जनार्दन में.

बिना दिये
अवदान
विश्वास का
प्राप्य होना
असंभव है
आस्था का,

मुस्कुराता है
शांत
उत्साहित
संतुष्ट
मार्गदर्शक,
विस्मृत कर
अहम् एवम्
आत्मश्लाघा को
कार्य सुसम्पादन के
उपरांत
एवम्
करके श्रवण
उद्घोष
सामान्य-जन का:

“हम कर सके यह कार्य सुसंपन्न !”

“हम ने किया है यह उत्तम कार्य !”

“हम कर सकते हैं सब कुछ !”

(Based on TAO TE CHING of LAO-TZU)

Sunday, June 13, 2010

प्रेम : A One-sided Note

(प्रेम को एक नज़रिए से देखा है...किसी के लिए भोगा हुआ यथार्थ हो सकता है, किसी के लिए बुद्धि विलास, किसी के लिए ब्रहम सत्यम जगत मिथ्या का सन्देश, किसी के लिए एक प्रतिक्रियात्मक लेखन, सच तो यह है कि प्रेम के बिना सब सूना...मगर ऐसा भी तो सोचा जाता है ना कभी कभी...पाठकों ! "यह अभिव्यक्ति एकांगी है... बिलकुल सापेक्ष")

# # #

प्रेम एक
दुर्लभ
पुष्पगुच्छ,
उपहार द्वारा
ले आता है
समीप
फिर करता है
जिद्द
पुष्पों से
अनुपान
करने की,
कर देता है दग्ध
वचनों
एवम्
इन्द्रियों को,
करता है
हरण
दृष्टि और
विवेक का,
करते हुए
नयन-हीन
प्रेम-अभिनेताओं को,
करके विचारों से
युक्ति( logic ) को पृथक
कर देता है,
तीव्र गतिमान
दिशाहीन
प्रवाह में
सम्मिलित.....

प्रेम,
करता हुआ
अभिनय
सोम रस का
बन जाता है
कालकूट ;
अथवा
जैसे हो
कोई
गंधहीन-रूपहीन
द्रव जो,
जलाता है ---
झुलसाता है,
नहीं छोड़ता
कोई भी अवशेष
ना धुंवा
ना भस्म...

प्रेम है
मदिरापात्र में
भरा
एक
प्राणघाती विष...

नोट्स : १) प्रेम २) आक्रामक

प्रेम
# # #
प्रेम एक
दुर्लभ
पुष्पगुच्छ
उपहार द्वारा
ले आता है
समीप
फिर करता है
जिद्द
पुष्पों से
अनुपान
करने की,
कर देता है दग्ध
वचनों
एवम्
इन्द्रियों को,
करता है
हरण
दृष्टि और
विवेक का,
करते हुए
नयन-हीन
प्रेम-अभिनेताओं को,
करके विचारों से
तर्क को पृथक
कर देता है
तीव्र
गतिमान
प्रवाह में
सम्मिलित.

प्रेम
करता हुआ
अभिनय
सोम-रस का
बन जाता है
काल-कूट;
अथवा
जैसे हो
कोई
गंधहीन-रूपहीन
द्रव जो,
जलाता है--
झुलसाता है,
नहीं छोड़ता है
कोई अवशेष:
ना धुआं
ना भस्म.

प्रेम है
मदिरा-पात्र में
भरा एक
प्राणघाती विष.

आक्रामक
# # #
मैं
निरीह बन
सहती जाती हूँ
सब कुछ,
लेकिन
भंग होती है
जब
परिसीमा
विखंडित हो जाता है
धैर्य
मेरा
और
मैं हो जाती हूँ
आक्रामक
लगभग
अचानक.