Friday, April 30, 2010

रिश्तों के रखाव में : दास्ताने सिकंदर

# # #
रिश्तों के रखाव में
सहजता का अभाव क्यों ?

दुनियां को फतह करना
सिकंदर का ख्वाब था
जीते जा रहा था मुल्कों को
उसका रुतबा बे-हिसाब था
फिर भी एक सवाल था
जिसका नहीं कोई जवाब था
डायोनीज ने पूछा था
आलम को फतह करने
क्यों परेशान हो तुम ?
बताओ मुझे सिकंदर
क्या खुद के बादशा हो तुम ?
लहरा रहे हो परचम
सारे जहाँ में
गाये जा रहे हो नगमे
अपनी ही शान में
बताओ खुद को तुम
जीतोगे कब ?
बोला सिकंदर
दुनिया जीत लूँगा

कहा था डायोनीज ने :

कायनात कि हदों को लांघते
ना बचेगा वक़्त तुझ पे
ज़िन्दगी का दीया तेरा
रह ना जाये बुझ के.....

हिंद कि सरजमीं पर
मिले थे उसे कलंदर
रूहानी सबक लेकर
लौटा था तब सिकंदर
राह में यूनान की
मौत ने था उसको घेरा
खुद को जीतने का
ज़ज्बा उसका
रह गया अधूरा…………

खुद की पहचान ना कर
हकीक़त से अनजान बन
औरों पर हावी होने का
इन्सान का स्वभाव क्यों ?
रिश्तों के रखाव में
सहजता का आभाव क्यों…..?

(नायेदा आपा की प्रेरणा से महक द्वारा रचित)

रिश्तों के रखाव में : गौतम की करुणा-मैत्री-क्षमा

रिश्तों के रखाव में
सहजता का आभाव क्यों ?

गौतम ने ज्ञान
था पाया
सिद्धार्थ बुद्ध था कहलाया
“बनो खुद कि शम्मा
खुद ही………..
करने को रोशन खुद को”
दुनिया को सबक सुहाना
तथागत ने पढाया
पैगाम मैत्री करुणा का
सारी दुनिया में फैलाया
तृष्णा-मुक्ति का मार्ग
गौतम ने था दिखलाया
शरण बुद्ध, धर्म और संघ के
आलम था सारा आया...................

एक था विद्वान्
अति-तार्किक
किन्तु दम्भी
दिल में बसा रखी थी उसने
भाषा की एक बारह्खाम्भी
बुद्ध के वचनों के विपरीत
उसका बात रखना
मुसुकुरा कर भगवन का
उसकी जिज्ञासा को
शांत करना
होकर बहुत प्रभावित
वह शिष्य बन गया था
अनुयायी हो बुद्ध का
संघ-भिक्षु बन गया था
किन्तु आहत अहम् उसका
ना शांत हो सका था
निज हीन-भावना से वो
ना आज़ाद हो सका था
प्रतिशोध की अगन में
प्रतिपल तो वह जला था
करुणा-मैत्री का भाव बस
ऊपर से ही फला था…..

उसी भिक्षु अभिमानी ने
षड्यंत्र यूँ किया था
मणि-पदम् के भोजन में
विष मिला दिया था
जाना था गौतम ने बेला
देह-त्याग की थी आई
बुला आनंद प्रिय शिष्य को
यह बात थी बताई
करदो प्रसारित
हे आनंद ! “बुद्ध त्यागेंगे बदन को
होंगे दो किस्मतवाले
कह दो जाकर इसे
जन-जन को
एक होगा वह दयालु जिसने
पहला कौर था जिमाया
दूजा वह कृपालु अंतिम ग्रास
जिसने खिलाया”
यह बात समस्त संघ जाने
मेरे जीवन-समय में
अन्यथा प्रताड़ित ना करदे
उसे विष-दान के संशय में ….
करदो उसे प्रतिष्ठित
हे आनंद ! मेरे होते
जीवन मरण तो आनंद !
नीयत घड़ी पे होते
क्षमा से भी आगे
गौतम ने कर दिखाया
इसीलिए तो बुद्ध
खुदा अमनका कहलाया..

हम लगाते हैं बुद्ध कि मूरत
संसद, घर औ चौबारों में
नाम उसका हैं हम लेते
विश्व-शांति के नारों में
बुद्ध की करुणा-मैत्री-क्षमा से रहित
हर समाज का स्वभाव क्यों……..
रिश्तों के रखाव में
सहजता का आभाव क्यों ?

इन्द्रधनुष के रंग....

# # #
दूल्हा बन
आया है
बदरा,
दुल्हन धरती
हुई
सु-रंग,
स्वागत में
छितरे हैं
पथ में
इन्द्रधनुष के
आठों* रंग....

*इन्द्रधनुष में साथ रंग होते हैं..मगर एक आठवां भी होता है....जो सब रंगों का सम्मिलन भी है...सब रंगों से ऊपर भी है शून्य कहिये, श्वेत या कुछ और किन्तु वह है, इन्द्रधनुष है....रंगों का अस्तित्व है, और रंगों की संभावनाएं है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता...इसलिए आठवां रंग कलमकार की कल्पना समझ लीजिये...

Thursday, April 29, 2010

होश..

# # #
क्यों करते हो
दमन
इन्द्रियों का,
जो हैं
सर्वथा
निर्दोष,
साध लो
अपने
मन को
मानव,
ला कर
स्वयं में
होश...

Wednesday, April 28, 2010

दादुर...

# # #
सरवर
सूखा,
दादुर
कहाँ गये...
हैं सारे
अनजान,
भई बारिश
फिर
आ गये...
हम
देख हुए
हैरान.

(दादुर=मेंढक)

स्पर्श...

# # #

चिंगारी
लगा नहीं
सकती
लौह में
अगन,
स्पर्श
जगाये
अलख जो
हिरदै-काष्ठ
मगन...

काष्ठ=लकड़ी/काठ

कापुरुष...

# # #
कापुरुष
यम
करता है
घात
अदृश्य,
नहीं होता
पृथक
कबंध से
शीश,
नहीं दृष्टव्य
लेशमात्र रक्त,
यथावत
आवरण,
लूट गया
किन्तु
प्राण तत्व
उन्मुक्त...

Sunday, April 25, 2010

अनहद नाद....

(इस रचना के बाद प्रीती और मैंने तय किया कि एक साथ मिल कर यह सीरीज लिखेंगे)

# # #
जल प्रपात
अथवा
संगीत
अभिश्रुत
गहन
किन्तु
है सर्वथा
अश्रुत,
तथापि
धुन के संग
स्वयं
तुम हो
संगीत...
______________________

यह कविता टी. एस. इलियट की कुछ पंक्तियों का रूपांतर है, इसे भावानुवाद कह सकते हैं एक्जेक्ट अनुवाद नहीं..मूल पंक्तियाँ है :
"Or the waterfall, or music heard so deeply
That is not heard at all, but you are the music
While the music lasts."
The mystic experience of listening to unheard music is a unique experience where you yourself become music. It has been described by Indian mystics to be 'anhad naad' 'अनहद नाद' or soundless music.

बता जीवन कहाँ ? :"महकती प्रीत सीरीज" (II)

(प्रीत और महक का सांझा प्रकल्प)

# # #

जीवन कहाँ ?
विनष्ट
जीवन निर्वाह में....
कहाँ है पांडित्य ?
लुप्त बहुज्ञता में....

कहाँ सुविज्ञता ?
खो गयी सूचना एकत्रण में ...
स्वर्ग की छद्म बातें
कर गयी और दूर
प्रभु से
ले आई सन्निकट धूल के....

_____________________________________

Thus wrote Eliot :

Where is life, we have lost in living ?
Where is the wisdom we have lost in knowledge ?
Where is the knowledge we have lost in information ?
Cycles of heaven in twenty centuries
Bring us further away from God and nearer to Dust
(From Choruses from Rock. I)
T.S.Eliot.

अज्ञात-ज्ञात : "महकती प्रीत सीरीज"

मेरी फ्रेंड प्रीती और मैंने सांझा प्रयास किया है., टी. एस. इलियट की कृतियों को जो भारतीय मानस के करीब है, थोडा रूपांतरित कर के आप से शेयर करने का.

हाँ प्रीती अंग्रेजी साहित्य में मास्टर्स कर रही है, भावुक और दार्शनिक प्रकृति की है...शिक्षाविद होने के नाते उसे मानव मन कि अच्छी पहचान है..शब्दों पर भी अच्छा अधिकार है, मुझे आप जानते पहचानते ही हैं. हम दोनों को इस प्रकल्प में बहुत आनन्द मिल रहा है.

श्रृंखला का नाम है "महकती प्रीत सीरीज"।

________________________________________

अज्ञात-ज्ञात : "महकती प्रीत सीरीज"

# # #
है तुम्हे अज्ञात
बस है वही
तुम्हारा ज्ञात,

स्वामित्व नहीं
जिसपर तेरा
तुम हो स्वामी
उसके,

तुम तो हो वहीँ
जहाँ तुम नहीं......

______________________________________

So wrote, T.S. Eliot :

"And What you do not know is the only thing you know
And what you own is what you do not own
And where you are is where you are not."
(East Coker -Section III)

नहीं समीप प्रभु के : 'महकती प्रीत सीरीज'

(इलियट की कृतियाँ का रूपांतरण : प्रीती और महक का साँझा प्रकल्प)

# # #

अंतहीन अविष्कार,
अनंत प्रयोग
करें सुविज्ञ
गति के विषय में,
ना कराएं भान किन्तु
परम स्थिरता का.....

ज्ञान दें
संभाषण का
पर
ना कराये बोध
मौन का.......

पदों में तो हुए
बहुज्ञ
और
शब्द के प्रति रहे
अनभिज्ञ....

ले आया सारा अज्ञान
अंत की ओर
किन्तु
मृत्यु के सन्निकट ही,
नहीं समीप प्रभु के ...
________________________________
So wrote...Eliot :
Endless invention, endless experiments
Brings knowledge of motion but not of stillness.
Knowledge of speech but not of silence
Knowledge of words and ignorance of World.
All our ignorance bring us nearer to death.
But nearer to death not nearer to God.
(Chorus from the Rock 1)
T.S.ELIOT.

भान.....

# # #
समझ
नाहर को
सियार,
पीछे पड़ गये
स्वान,
दौड़े
पूंछ दबा
तुरत,
जब दिया
दहाड़ ने
भान....

(नाहर=शेर, स्वान=कुत्ता, दहाड़=सिंह-गर्जना)

गर्धभ जी....

# # #
गर्धभ जी
निरीह है
रजक
उमेठे कान,
काम लेवे
पीटे
बाहिर करे
खोजो
खान और
पान.....

(रजक=धोबीजी, जो गधे से बहुत कस के काम लेते हैं, कान उमेठते हैं, मारते-पीटते है, काम पूरा होने पर उसे चारा पानी नहीं देते और धक्का देकर बाहर खदेड़ देते हैं कहते हुए-"गधीये ! जहाँ चाहे मुंह मार अपना पेट भर."....और गधा इसके बावजूद भी लौट के धोबिया के पास ही चला आता है...कैसा अजीब रिश्ता है यह.)

सरगोशियाँ...(आशु नेनोज)

# # #
(१)
फफोले
दिल के मेरे
खामोश रहे
दर्द पी कर,
ज़ज्बात ने भी
ना की थी
सरगोशियाँ...

(२)

दिल मिले
हमारे तो
मुआमला था
दिल हमारों का,
क्यों किये थे
हमसाया
फजूल की
सरगोशियाँ...

(३)

जी रहे थे
सुकूं में
बेपरवाह से
हम,
बन गयी
चिंगारियां
अपनों की
सरगोशियाँ...

Wednesday, April 21, 2010

दरकार....

# # #
दूध
दही
बनेगा नहीं
चाहे
कितना करें
इंतज़ार,
दही बनाने
के लिए
जामन की
दरकार....

Tuesday, April 20, 2010

'मैं' 'मैं'

दम्भी ज्ञानी,
दुष्ट लड़ाका,
पाखंडी साधु,
डफोल नेता,
बेअक्ल सुंदरी,
निरीह बकरी
'मैं' 'मैं' करे
ना जाने कब
बैमोत मरे...

नेतृत्व

# # #

सच्चे मार्गदर्शक
कदाचित ही
ज्ञात होते हैं
अनुयायियों में,
तदनुपरांत
आते हैं नेता
जो होते हैं
ज्ञात एवम्
प्रशंसित
जन जन में,
उनके पश्चात
होतें हैं वे
जिन से होतें हैं
भयाक्रांत लोग,
कुछ ऐसे भी
होतें हैं
तथाकथित नेता
हेतु जिनके
तिरस्कार और
घृणा होती है
जनता-जनार्दन में.....

बिना दिये
अवदान
विश्वास का
प्राप्य होना
असंभव है
आस्था का.....

मुस्कुराता है
शांत
उत्साहित
संतुष्ट
मार्गदर्शक,
विस्मृत कर
अहम् एवम्
आत्मश्लाघा
कार्य सुसम्पादन के
उपरांत,
करके श्रवण
यह उदघोष
सामान्य जन का :
“हम कर सके यह कार्य सुसंपन्न !”
“हम ने किया है यह उत्तम कार्य !”
“हम कर सकते हैं सब कुछ !”

Monday, April 19, 2010

बेशर्म...


# # #
बस
दिखावा
ही दिखावा
नहीं है
मर्म
लगे मिर्ची
बने
बेशर्म....

सापेक्ष....

कौन
कमज़ोर ,
कौन तगड़ा,
सापेक्ष है
सब,
काहे
झगड़ा...

प्रश्न यह बड़ा...

किसी ने बिगाड़ा,
या तू बिगड़ा,
क्यों बिगड़ा,
प्रश्न यह बड़ा...

ख़ता...

झांके अंतर
हो सब पता,
आँखों पे पट्टी
किसकी खता ?

मुश्किल बड़ी....

पढ़ पढ़ कर
देखूं घड़ी
समझ
ना आये,
मुश्किल बड़ी.......

नाम......

# # #
नाम है
तुम्हारा,
उपयोग है
औरों का,
नाम ले ले
उसका
हो खात्मा
दौरों का....

सृजन और पीर....

# # #
हर सृजन के
मूल में
होती
गहरी
पीर,
गीत
घटित होवे है
मित्र !
ह्रदय
कोमल को
चीर .....

Sunday, April 18, 2010

बीज....

# # #
समाया
धरती में,
सहे दवाब,
ऊष्मा,
सब कुछ....
हुआ
अंकुरित
मिटाया
वुजूद
अपना
देने को
अस्तित्व
'और' को.......
भूल गये
हम
बीज को,
याद रहा
बस पेड़,
दिखता जो है.......

Saturday, April 17, 2010

कद्रदान.....

# # #
देखो
चले आये
दूर दूर से
काफिले
भंवरों के'
गाते
गुनगुनाते
गुंजार करते
करके महसूस
फूलों की
महक को,
अफ़सोस
आस-पड़ोस के
कांटे
पड़े हैं
गाफिल,
बेखबर
नजदीक की
खुशबू से…………

Thursday, April 15, 2010

दो पंछी.....

(यह एक सांझा सृजन है....हम दो दोस्त बैठीं हैं दो पंछियों की तरह....और कह रही है दो पंछियों की बात)
# # #
मेरी खिड़की के बाहर
एक बड़ा सा पेड़,
पेड़ की दो डालियाँ:
एक हो कर
निकली तने से
फिर जुदा हो कर
दो हो गयी,
हर डाल पर बैठी
एक चिड़ियाँ,
दोनों चिड़ियाँ
बतियाती है
दुलराती है
मुस्काती है
मिल कर
चहचहाती है
चोंच में
चोंच डाल
दोनों डालियों का
वृतुल पूरा करती है...

फिर अचानक
उड़ जाती है एक
दूसरी भी
भरती है उड़ान
तलाशने दाने
ताकि जीया जा सके
इन्ही टहनियों पर
हर रोज़ मिला जा सके,
हो जाये
तिनका तिनका जोड़ कर
तैयार कोई
घोंसला
इन्ही डालियों पर,
और
निकले एक दिन फिर
कुछ और चिड़ियाँ
करने आबाद किसी
और टहनी को.......

कल की चिंता नहीं
आज का भय नहीं
जो चला गया
उसका मलाल नहीं
ना पुलिस
ना फौज
ना डाक्टर
ना स्कूल
ना कचहरी
ना वकील
ना मंदिर
ना मस्जिद
ना बैंक
ना खज़ाना
है उनके पास
जीने को यह पल
यहीं और अभी......

Wednesday, April 14, 2010

भ्रमर : हिंदी भावानुवाद

(मूल रचना अंग्रेजी में 'दी बम्बल बी' शीर्षक से लिखी गयी थी)

# # #
देखा भ्रमर को ?
देह है उसकी
भारी-भरकम
पंख है
नन्हे नन्हे,
फूल फूल पर
फिरे
बगिया में
हर लम्हा
गाये नगमे,
आश्चर्यचकित
विज्ञान
बावरा
विफल
सिद्धांत
वायुगतिकी के....(@)

क्षमताएं
सीमायें जो
दिखती बाहर,
है भ्रान्तियां
प्रकट है,
स्वप्न मेरे
है प्राप्य पूर्णत:,
तथ्य यही
सुस्पष्ट है,

जानबूझ कर
अनभिज्ञ
बना मैं
लभ्य की
सीमाओं से,
पाठ पढ़ा है
मैंने ऐसा
भंवरे की
उपमाओं से....

********************************************************************

@वायुगतिकी=aerodynamics का वैज्ञानिक सिद्धांत जिसके सूत्रों के परिपेक्ष्य में यदि देखा जाये तो इतने भरी शरीर, शारीरिक बनावट एवम् लघु पंखों से उसका उड़ना असंभव है..किन्तु वह उड़ता भि है...और भ्रमण भि करता है उद्यान में....एक गति और स्वर के साथ...जिसे हम भँवरे की गुंजन कहते हैं...और फूलों से उसका रिश्ता सब को विदित ही है..सरांस यह है की तथाकथित सीमाओं और क्षमताओं की बातों में उलझ कर हम अपने आप को कर्म करने से रोक देते हैं और उपलब्धियां जो हमारी झोली में गिर सकती है से वंचित रह जाते है.....इसलिए कभी कभी हमें इन्हें इग्नोर कर जुट जाना होता है..

Tuesday, April 13, 2010

शेर और मच्छर.....

शेर और मच्छर.....
# # #
डंक मारा
सोये शेर को,
किया
मच्छर ने
त्रस्त,
जग
नाहर
दहाड़ा
जोर से,
पिये रक्त
मच्छरजी
मस्त....

Sunday, April 11, 2010

सुराही माटी की....

# # #
भरा है समंदर
अथाह जल से
दरिया के
बहाव में भी
बहुतेरा पानी है,
मगर
हाथों में मेरे तो है
बस सुराही
माटी की....

मेरे मौला !
मांगती हूँ तुझ से
ताकत
हौसला और
मौका,
महज़ इतना के
भर सकूँ पूरा
इस माटी की
सुराही को,
और
ले चलूँ
इसको
सहन में अपने ,
बुझा सकूँ जिससे
तशनगी मेरी......

दरिया हो या
समंदर
इश्क का
या इल्म का,
मालूम है मुझको
हदें अपनी,
जो है
इस माटी की
सुराही सी,
जिसे रखे हूँ
मैं अपने
हाथों में ......

Saturday, April 10, 2010

क्यूँ देख ना पाई.........

दूर मुल्कों
का किया है
सफ़र मैंने
बेपरवाह हो
जानिब
खर्च के

वक़्त के
ताक़त के
दौलत के........

देखें है मैंने
पहाड़
समंदर
इमारतें
बाग-ओ-बगीचे
अनगिनत
अजूबे.......

न जाने क्यूँ
देख ना पाई
मैं
एक कतरा
शबनम का
जो मुस्कुरा रहा है
सहन में

उगी
घनी हरी घास पर.........

क्यूँ देख ना पाई
आँखें मेरी
वो मासूम
तवस्सुम
जो महक उठी है
पड़ोस के
नन्हे बच्चे के
होठों पर,
पा कर
अचानक
एक टुकड़ा
मिठाई का
छोटा सा......

दीप ह्रदय का

# # #
दीप ह्रदय का
जला के
अपना
दिया है
मुझ को
तू ने
उजाला,
जग-मग
जग-मग
जाग उठी है
मेरे जीवन की
रंगशाला.

स्वागत
प्रतिपल
प्रिय ! तुम्हारा,
हर क्षण मानो
हुआ हमारा,
तन मन प्राण
एक हो गये,
न लागे
हम को
अब कुछ
न्यारा.

मिट गयी
है
मेरी अमिट
आकांक्षा,
शेष हुई
सच
दीर्घ प्रतीक्षा,
आकर
धीमे धीमे
क़दमों से,
जगा गया तू
जिजीविसा,
तत्पर हूँ
सदैव
देने को
हुई
तिरोहित
मेरी
अपेक्षा.

पिघल गया
अस्तित्व
यूँ ऐसा,
तू मैं में...
मैं तू में...
यौगिक विलय
हुआ कुछ ऐसा,
मानो द्रव्य था
एक हमेशा,
भेद यह
तेरा मेरा कैसा ?

Friday, April 9, 2010

पंगु.....

# # #
क्या
मनाना बुरा,
बातों का
उनकी,
जो
चला करते हैं
दूसरों की
उँगलियों के
सहारे,
न जाने
कितनी दफा
गिरते हैं
पड़ते हैं
और
अपनी
बेबसी पर
रोते,
बिलखते
सिसकते हैं,
(और)
पकड़ कर
फिर से
वही ऊँगली
बढ़ने लगते हैं
एक अबस से
सफ़र पर,
शायद
वे पंगु
समझने लगते हैं,
पांव अपने
दूसरों की
उँगलियों को.......

(अबस=निष्फल)

(and old write of mine, re-casted)

Wednesday, April 7, 2010

बगुले भगत....

# # #
मिल जायेंगे
बगुले भगत
नहीं मिलेंगे
संत कबीर,
ठग विद्या से
पाखंडी
खाये
पूरी-खीर !

तफसीर......

* * *
पूरे से दिखने वाले
अधूरे
रिश्तों में
जब एक दूसरे को
समझ लेने को
कुछ भी बाकी नहीं
दिखाई देता तो
बदौलत इस भ्रम के
समझ का धारा
मुड़ जाता है
उलटी तरफ
सारे एहसास
सारे इज़हार
दरिया-ए-मोहब्बत का
तेज़ बहाव
बदल जातें हैं
तंज़
नज़रंदाज़ी और
तौहीन में,
होने लगता है
उनका तफसीर
एक दोस्तीनुमा
दुश्मनी में......

तंज़=व्यंग, तौहीन =अपमान, नज़रंदाज़ी=अवहेलना, तफ़सीर= निर्वचन/interpretation

Tuesday, April 6, 2010

नीलकंठ....

# # #
'मोरिया'
बनाता है
भक्षण
भुजंग को,
नहीं मारता
विष किन्तु
उसके
अंग प्रत्यंग को,
मानव के
स्वभाव में
भरा है
अविश्वास,
शिव-सत्य
प्रतिपादन हेतु,
बनाया प्रभु ने
मयूर
मनोहरी
नीलकंठ को....

(बीजू दी के प्रोफाइल में पोस्टेड फोटोज में एक चित्र राजस्थान में नृत्य करते हुए मोर का था, उसे देख कर यह कविता उपजी.)

Monday, April 5, 2010

कृपण दर्पण........

# # #
कैसी
भिखारन है री
तू,
कुछ नहीं देगा
तुझको,
यह
कृपण
दर्पण,
चाहे रीझ
चाहे खीज,
बना चाहे
नयनों को
आषाढ़
या
सावन....

Sunday, April 4, 2010

चोरों के राजा तोहे मैं प्यार करती....

# # #
फूलों से
मधु रस
चुराने वाले
भ्रमर दीवाने
तोहे
मैं प्यार करती....

छींके पे
राखी
नवनीत हांड़ी,
माखन-चोर चटोरे
तोहे
मैं प्यार करती...

श्री राधिकाजी का
ह्रदय चुराया,
हे चितचोर बाँके
तोहे
मैं प्यार करती...

सूरज से
चुरायी
रश्मियाँ
रोशनी की,
शशि शीतल सलोने
तोहे
मैं प्यार करती....

चैन चुराया
मेरी नींदिया चुरायी
परदेशी रसिया
तोहे
मैं प्यार करती....

चोरी बुरी है
सब कोई कहते,
चोरों के राजा
तोहे
मैं प्यार करती.....

तकदीर.....

# # #
वक़्त की
चाल है
उलटी-सीधी,
हम भी
हो लेते हैं
पीछे उसके
नाम
तकदीर का
देकर...
छू सकता है
इन्सां
उंचाईयां
आसमां की
हौसला
तदब्बुर-ओ-तदबीर का
लेकर,
कहा भी है :
जे मददते खुद
ते मददते खुदा
बादशाह की बेटी
फकीर से निकाह.....

(तदब्बुर=दूरदर्शिता/विवेक/समझदारी/foresight/prudence, तदबीर=उपाय/युक्ति/solution/remedy/device)

Saturday, April 3, 2010

वहदत........

# # #
नन्ही बूँदें
बारिश की
गिरी
आसमां से
कोहसार पर,
फिसल गई
डर गई
सोचा
मर गई,
लुढ़कते
लुढ़कते
हुई
शरीके-ग़म-खुदाई
खुद सी
सहमी हुई
चन्द और बूंदों से,
वहदत में
बन गई
एक नदी,
लगी दौड़ने
जानिबे-मंजिल
मिलने को
बहरे-बेकराँ से.....

(कोहसार=पर्वत श्रृंखला, शरीके-ग़म -खुदाई=संसार के दुखों की साझीदार, वहदत=एकत्व,जानिबे-मंजिल=मंजिल की तरफ, बहरे-बेकराँ=फैला हुआ समंदर)

Friday, April 2, 2010

पर-उपकार......

# # #
कहते नहीं है
पांव कभी
ढोयें हम
सिर पे रखा
कोई भार,
कर्म अपने को
ना कहे
करूँ मैं
पर-उपकार......

Thursday, April 1, 2010

आतम परकास.....

# # #
धूना रमाया
भूनी काया,
मनुआ उड़े
अकास,
लक्कड़ बाळ
राख किन्ही
ना भया
आतम
परकास.....