Sunday, October 31, 2010

क्या कहिये : by नायेदा आपा

(आपा की अतिसाधारण रचनाओं में से यह एक है, जिसे वे कई दफा एक मामूली सी तुकबंदी कहा करती है)

# # #

नासमझों की किसी महफ़िल में,
यूँ अपनी कहानी क्या कहिये.

आँखों से बरसते है आंसू
दरिया की रवानी क्या कहिये.

भूल गये सब कुछ है वोह,
फिर बात पुरानी क्या कहिये.

म़र म़र के जीये जाते है वोह,
दास्ताने जवानी क्या कहिये.

फितरत में बसी मायूसी जहाँ,
किस्से खुशियों के क्या कहिये.

रस्सी को समझतें नाग है वोह,
हिम्मत की कहानी क्या कहिये.

बहना सतहों पर मंज़ूर जिन्हें
उन्हें गहरा पानी, क्या कहिये.

प्यार की मंजिल नहीं बिस्तर
मीरा थी दीवानी क्या कहिये.

पहचाने नहीं जब मिलने पर,
रघुपति कि निशानी क्या कहिये.

सोये रहतें दिन में गाफिल,
उन्हें जागी जिन्दगानी क्या कहिये.

वोह दब जातें हैं कागज से,
फूलों की गिरानी क्या कहिये.

जो भटक रहें है जिस्मो में,
उन्हें बात रूहानी क्या कहिये.

आँखों पर ग़मों के परदे है,
उन्हें शाम सुहानी क्या कहिये.

जागीर लिखाये बैठें हैं वोह,
जिन्द आनी जानी क्या कहिये.

जेहन के दरीचों को बन्द रखे
उन्हें मासूम नादानी क्या कहिये.

बैठे घनघोर अंधेरों में,
सोचों की गुमानी क्या कहिये.

Saturday, October 30, 2010

जिंदगी को मकसद दो: By अंकित भाई

(अंकित भाई कि यह प्रेरक कविता हमारे विद्यार्थी जीवन , व्यावहारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में सदैव प्रेरक रही है...आज इसे अंकित भाई के लिखे 'प्रील्यूड' के साथ आप से शेयर करते हुए ख़ुशी हो रही है।)
________________________________________________

यह रचना मैंने अपने student life में, एक दिल छूनेवाले article को पढ़ कर लिखी थी.
इस प्रबुद्ध 'फोरम' पर इसे शेयर करते हुए मुझे ख़ुशी हो रही है, यद्यपि समय के साथ मेरे सोचने का अंदाज़ कुछ कुछ बदल गया है........लेकिन 'basics' वही है.

# # #
जिंदगी को मकसद दो,
और
दिल-ओ-दिमाग को जज्बा,
भर लो खुद को,
ऊँचाइयों के सपनो में...

गर ना हो मकसद कोई
जीने का,
पैदा होगा नहीं तुझ में एकत्व,
रहेगी बिखरी बिखरी सी
ताकतें तुम्हारी,

रहोगे बिखरे से तुम भी,
रहोगे टूटे हुए से
रहोगे टूटते निरंतर,
और
बीच राह
रेंगते रेंगते
गिर पड़ोगे
खो कर वजूद अपना...

पाना है शख्सियत को,
करलो एकजुट
खुद की जेहनी,
और
जिस्मानी
ताकतों को,
हो जाओ समर्पित
लक्ष्य को,
पाया जाता है
मात्र ऐसे ही,
स्वतंत्रता को,
स्व-पहचान को....

भूली भटकी मानसिकता में
जीने वाले,
होतें है एक भीड़ अराजक सी,
करते हैं बातें
थोपे हुए अनुशासन की,
होतें है स्वर उनके
विरोधी स्व के,
खिल सकता नहीं
संगीत सप्तक,
जो हो पाए
शक्ति जीने की...

देखोजमीं में दबे
बीज को,
कैसे संजो अपनी
सब ताकतों को,
उठता है ऊपर जमीं पर,
प्यास देखने सूरज को
बानाती है उसको अंकुर...

तोड़ता है खुद को
इसी प्रबल इच्छा-शक्ति से,
और चला आता है बाहिर
छोटेपन से...

बनो तुम भी
तरह बीज के,
बढ़ो ऊपर की ओर
संजो कर सारी
ताकतों को,
आएगा जरूर
वह पल,
पा सकोगे जब तुम
अपने स्वयं (सेल्फ) को....

मगर
सावधान !
लक्ष्य जीवन का ठोस हो,
सकारात्मक(positive) हो,
तुम्हारा अपना हो,
बासी ना हो,
उधार का ना हो,
और
जिद्द में कुछ अलग बनने का
क्रम ना हो....

चुन लो बस
एक 'सोलिड' सा मकसद,
छुअन जिसकी हो कोमल
नन्हे पंछी के पंखो सी,
जगा लो प्यास गहरी
उसे पाने की,
हो यही सफ़र तुम्हारा
जीवन जानने का,
जीवन जीने का....

Wednesday, October 27, 2010

वो हसीन लम्हे... :By नायेदा आपा

# # #
ढलती रात में
आँखों से नींद का
उड़ जाना,
नज़्म लिखने की कोशिश
और
कलम का ना चलना,
सोचा किया था
क्यों ना दुप्पटे को
बार-बार आँखों तक लाते
समेत लिया जाये
बीते हुए लम्हों को,
गुजर जाये शायद
शब-ए-फुरकत,
कर जाये मुखातिब
उनको
नज़रों के मेरे
यह सूरज सुबह का..
ना आये ना तुम सुबहा
फैलाया आँचल मेरा,
निरखा फिर से उन बीते
हुए नन्हे से प्यारे से
सुनहले पलों को
जो उस दूर बड़े देश के
छोटे शहर में
बिताये थे संग हमने.....

देख रही थी
बर्फ गिरने के वक़्त
बहिर निकल खुद को
सफ़ेद जिन्न बना लेना,
घर के शीशों के पार
धीरे धीरे चलती जिंदगी को देखना,
मेरे सर के ‘splitting’ दर्द से
तेरा घबरा जाना,
होले होले
मेरे सर को दबाना,
छुअन से दर्द का
गायब हो जाना,
गरम काफी के लिए
कड़कडाती ठण्ड में
दूर दूर तक चले जाना...

तुम्हारा बहिर
और
मेरा घर का जिम्मा लेना,
साथ बैठ चाय के प्याले के संग
'सिंगल इनकम' में जीने का
बजट बनाना,
रिश्तेदारों की ‘Din’(डबल इनकम)
पर तकरीरें करना,
बार बार मेरी डिग्रीयों का हवाला देना,
चुपके चुपके हमारी तकदीरों पे जलना,
पीठ पीछे हमारी बेवकूफियों का
मखौल उड़ाना,
मसालों कि खुशबू के संग
मुलुक का 'किचन' में चले आना,
हिंदी-पाक दोस्तों का साँझा हुल्लड़ मचाना,
घर के खाने का विलायती डिशों को हरा देना.
मेहदी हसन, लताजी, रेशमा,नूरजहाँ,जगजीत-चित्रा को
एक ही तहजीब का हिस्सा बताना,
जुदा कहने वालों से तेरे और वाहिद का जोरों झगड़ना,
सपनों में कराची, ढाका और जयपुर को एक संग देखना,
तुम्हे सजदे में झुका और मुझे मंदिर में पूजते देखना.....

फूलों के त्यौहार की उत्तेजना,
या 'Cherry Blossom' का मादक गुलाबीपन,
मोहब्बत,खूबसूरती और दोस्ती की बातें,
नए नए रंगीं नज़ारे देख
मेरा चेह्काना और चिल्लाना,
तुम्हारा शालीनता पर
बेहूदा सा ज्ञान देना,
फिर मेरे संग मुझ सा हो जाना,
बाँहों के वो गरम घेरे,
नज़रों की वो रूहानी ठंडक.
मेरे आंसुओं को पोंछते तेरे नर्म हाथ,
मुझे सहारा देते तुम्हारे शाने,
तेरे इंतज़ार में बैठी मैं,
तुम्हारी बिस्तर ना छोड़ने कि जिद्द,
वो सांझी रोशन हुई दीवालियाँ,
वो सांझे मनाये ईद,
शख्स, घटनाओं और सोचों पार
रुके बिना लम्बा सा विवेचन,
नाना अलंकारों से सम्बन्धियों का
चर्चन,रंगन और अर्चन....

सुहाने अपनायत भरे छोटे
शहर को छोड़ने का ग़म,
बड़े शहर में ऊँचे उठने
और
खुद को साबित करने का दम,
हडसन दरिया के किनारेटहलना,
बैठ कर वहीँ भाजी परांठे खाना,
'Brooklyn heights' का वो पहला घर,
धीमीं चालों के आदी को
न्यूयोर्क की तेज़ी का डर,
वही तबस्सुम वोहि हंसी तुम्हारी,
खिलती संजीदगी में डूबी
रुखसार कि 'dimples' तुम्हारी....


यह छोटे छोटे अनगिनत लम्हे
मानो लाल-ओ-गुहर अपनी जिंदगी के,
लगता है जैसे नात शरीफ हो
आपनी भाव भरी बंदगी के...

परछाईं..../Parchhayin...


# # #
हुआ करती थी
जब
शिखर पर
मैं,
दीखते थे
साथी
अनगिनत
मेरे,
गिरी जो
आज
जमीं पर,
संग मेरे
मेरी परछाईं
भी ना है..

Hua karti thi
Jab shikhar par
Main,
Deekhte the
Saathi
Anginat
Mere,
Giri jo
Aaj jamin par
Sang mere
Meri Parchhayin
Bhi naa hai....

Tuesday, October 26, 2010

प्रतिछाया.../Pratichhaya..

# # #
चलती रही
जीवनपर्यंत
बन कर
प्रतिछाया
उसकी,
पाले एक
प्रत्याशा,
देखेगा
वह
मुझको
कभी तो
मुड कर..


# # #

Chalti rahi
Jeevanprayant
Ban kar
Pratichhaya
Uski,
Paale aek
Pratyasha,
Dekhega
Woh
Mujhko
Kabhi to
Mudkar...

Jeevanprayant=Ta-umr, Pratichhya=Saaya, Pratyasha=Ummeed.

Sunday, October 24, 2010

शादीमर्ग.../Shaadimarg...

(सर क्लास में इस बात को कहा करते थे...मैंने कोशिश की है इस नेनो में कहने की)

# # #
देखकर
हरकारे को
रुक गयी
साँसें
उनकी,
हुए थे
शादीमर्ग
महबूब,
के दिया था
जवाब
मेरे ख़त का...

(शादीमर्ग=अचानक हर्षातिरेक से मरने वाला)

(Sar padhaate padhaate is baat ko chutile andaz men kaha karte the, maine koshish ki hai ise nano ke jariye kahne ki..)

Dekh kar
Harkaare ko
Rook gai
Saansen unki,
Huye the
Shadimarg
Mehboob,
Ke diya tha
Jawaab
Mere khut ka...

Shaadimarg =achanak hud se jyada khush hone ki wazah se marnewala.

गिरहें धागे और चदरिया: By अंकित भाई

(इस कविता को सोचने और लिखने के क्रम में में inspire हुआ मैं तीन रचनाओं से जिनका जिक्र आप से करना लाज़मी समझता हूँ. वे है मधुर भाई की रचना 'अनजान' का एक शे'र,रहीमजी का दुहा और गुलज़ार साहिब की नज़्म 'गिरहें'.)

# # #

कहा था
जुलाहे ने
गिरहें
मेरे जोड़े
धागों की
नहीं दिख पाती
कपडे में,
नहीं बता सकता हूँ
तरकीब उसकी,
बाँट सकता हूँ
मगर
तजुर्बा मेरा.....

लेता नहीं
मैं कभी
धागे कच्चे,
होती है
जब भी टूटन
खोता नहीं मैं
आपा अपना,
बंट कर
करता हूँ
एक सा
टूटे हुए
सिरों को
लगाकर
पानी थोड़ा
घुमा फिरा कर
थोड़ा,
लगाता हूँ
फिर गिरह
एक मज़बूत सी,
काट देता हूँ फिर
वो हिस्सा...

जो रह जातें है
बाहर गिरह के,
फिर कर के
गीला
पानी से
सूखा लेता हूँ
तुरंत
और
लगता हूँ बुनने
लगातार फिर से ,
लगा के
ताना बाना
लगन से.....

शागिर्द हूँ मैं
कबीर का
करता नहीं
कोताही,
नहीं करता
जाया मैं
वक़्त बेशकीमती को
सोचने में
बात टूटने की
या
बस देखने
गिरह को...

रहती है
नज़र मेरी
महज बात
इस पर,
अच्छी हो
बुनाई
चदरिया की
और
झोंक देता हूँ
अपना सब कुछ,
बुनने में
उसी को ...

अपनाकर
नजरिया
इमानदार
देखने दिखाने का,
देखा करिए आप
चद्दर पूरी को,
ना कि हिकारती
नज़र से
सिर्फ गिरह को,
बड़ी देन थी जिसकी
जोड़ने में
बिखरे टूटे धागों को...

तानो-बानो की
बुनाई में
होती ना
अगर गाँठ
ना होती
यह चद्दर मनभानी,
आती फिर
क्या काम खड्डी मेरी ...?
क्या लड़ने लड़ाने
बिला वजह
आप और
हम को...

करना
मंज़ूर हमें
वुजूद गिरह का
चद्दर की
खूबसूरती में,
देखना इसी हुस्न
जुड़ जाने में हुए
घटित को,
समझना
अपनी ही तरह*
चदरिया को,
बदल देगा
नज़रें और नजरिया,
देखेंगे आप
बस उसको ही,
ना की गिरह को
और
जोड़ को ,
खयाल रखना
ज्यों की त्यों
धर दी थी
झीनी झीनी चदरिया
एक अनपढ़-ज्ञानी
फकीर ने
गुजरे ज़माने में....

ऐ मेरे शायर दोस्त,
कहा उस सयाने से
जुलाहे ने,
फर्क सिर्फ है
नज़रिए और नज़र का,
नज़ारा है वही,
हकीक़त है वही,
होती है तकलीफ आपको
बीती बातें
भुलाने में
मापा करते हैं
आप तभी
हर शै को,
अपने ही
पैमाने में....


*इन्सान के जिस्म में भी कई गिरहें/गांठे/जोड़ हैं.......और सोचों में भी.
हम क्यों न जुलाहे की बातों को समझें, चदरिया सच में नायाब हो सकती है.

Saturday, October 23, 2010

कैसा नाता है : नायेदा आपा

# # #

(यह नज़्म 'psychology' विषय पढने के दौरान possessiveness पर की गयी एक केस स्टडी में हासिल हुए फीड-बेक परबेस्ड' है.)
# # #
तुम
से कैसा
नाता है
यह मेरा...

तुम होते हो तो
मिलता है लुत्फ़
सताने में तुझको,
जाते हो
जब तुम दूर थोड़े
आता है मज़ा
गिराने में
नज़रों से तुझको...

लेता है नाम
जब
कोई तेरा
थोड़े प्यार--इसरार से,
लग जाती है
आग जाने क्यूँ
मेरे उजड़े से
दयार
में.....
मैं तेरी हूँ या नहीं
भूल जाती हूँ मैं,
तुम सिर्फ मेरे हो,
बस खयाल यही
रहता है
मेरे इख्तिसार में...

जन्म से
खोया ही खोया है
मैंने....
जो भी है पास
उसे जकड़ने की
हो
गयी है अब
आदत सी मेरी,
जानते हुए कि
नहीं है मेरा
कुछ
भी...
खालीपन
बेबसी
और
जलन

हो गयी है
फ़ित्रत सी मेरी,
सब एहसास मेरे
बस है उपरी,
सोचें मेरी
हो गयी है
बेहद संकड़ी...

मालूम है मुझे कि
देने को तुम्हे
नहीं है कुछ
पास में मेरे,
मेरी हर मुस्कान
रंग
--तौहीन
हो गयी है,
कासे कहूँ
यह दुखवा हमार,
मुझको बस
ऐसी ही मोहब्ब्त की
आदत सी हो गयी है....

यही मेरा
बस इक पल का
सुकूं--तस्कीं है,
जिंदगी मेरी
इक बे-मंजिल का
सफ़र हो गयी है...
घुट रहा है दम तेरा
मेरे आगोश में
लज्ज़त तेरी
शख्सियत--सरफ़रोश में
थम गयी है.....

ईसर की
कई तकरीरें है
पास मेरे
फ़साने वफाओं के भी
बहोत लिखे हैं मैंने,
लफ़्ज़ों का एक
भंवर काफी है
डुबोने तुझ को
मोहब्बत में
मरनेवालों की
कहानियां बहोत
पढ़ी है मैंने....

भाग कर मुझ से
जाएगा कहाँ तू,
मालूम है मुझे
मुझ तक ही
लौट के आएगा तू......

मेरे अन्दर
कराह रहा है कोई,
दर्द भरे नालों से
ये आसमां गुंजार रहा है
आँखों में मेरी खौफ है
जगहा नींद के,
बैचैनी और अकेलापन
मुझ को
बेमौत मार रहा है...

जीना चाहती हूँ जिन्दगानी
मगर

बातें मेरी यारों
बस मौत सी है,
महबूबा हूँ मैं तुम्हारी
ऐ सनम
सोचें मेरी
महज़ एक सौत सी है...

आओ निकालो ना
इन
अंधेरों से मुझ को
रोशनी से नहला नहला
कर दो रोशन मुझ को...

मैं भटकी हुई हूँ
अपने ही वीरानों में
ले चल मुझे ए दोस्त !
मोहब्बत के रंगी
मयखानों में,
मुझ से पहली सी
मोहब्बत
मेरे महबूब न मांग,
मांग ले दुआ मेरे खातिर
किन्ही
मस्जिद-ओ-बुतखानों में

(इख्तिसार=gist/सारांश. शख्सियत=व्यक्तित्व,सरफ़रोश=आत्म बलिदान करने वाला. ईसर=स्वार्थ त्याग. दयार=घर/जगह, तौहीन=अनादर.)

Friday, October 22, 2010

शोर.../Shor

# # #

हुई हूँ
घिरी मैं
अनगिनत
आवाजों से,
शोर इतना है
ऐ मेरे महबूब !
पुकारूँ तो
पुकारूँ
तुम को
कैसे.....?

hui hun
ghiri
main
anginat
aawazon se,
shor itna hai
aey mere mehboob !
pukarun to
pukarun
tum ko
kaise....?

फजूल के शिकवे : by अंकित भाई

# # #
महाजे-शौक से
आती है
रुदादे-जंग क्यूँ,
खल्के-खुदा
तेरी पनाहों में,
मैं आया तो था.

उठाया था
पहला पत्थर
मेरे मोहसिन ने,
वरना तू-ने
मुझ को
बचाया तो था.

प्यासे की
जुस्तजू में था
ख्वाब इक
बहर का,
सपना सिदफ का
गौहर को
आया तो था.

रास्ते के
पत्थरों ने
खुद आकर दी थी
चोटें
पांवों को,
वरना मैं भी
संभल के
चल पाया तो था.

वक़्त ने
दे दिया था
मौका
डसने का,
आस्तीन का
सांप
कबसे यंही
पल पाया तो था.

जब देखा
सहन में गिरे
पत्थरों को,
शजर घर के
लदे थे
अनारों से
खयाल ऐसा कुछ
आया तो था.

भर गया था
आँगन उसका
फलों के ढेरों से,
मैं ना चख सका तो क्या
वो फरजन
मेरा हमसाया तो था.

रोशनी के
जवां लम्स ने
छोड़े थे अँधेरे..
दिलों में,
जुगनुओं के
जमघट ने
गीत रफाकात का
गाया तो था.

क्यूँ करते हो
शिकवे फजूल के
खुद से,
नज़र बुलंदियों पे
रखने
की
फ़ित्रत ने
साजो-दस्तर
गिराया तो था.



महाजे-शौक=Battlefield of desires, रुदादे-जंग=News of war, मोहसिन=Well-wisher,
लम्स=touch, साजो-दस्तर=turban(पगड़ी), शजर=Tree, फरजन=wise person, हमसाया=neigbour, बहर =ocean,समंदर जुस्तजू=in search, सिदफ=mother of pearl(सीपी) ,गौहर=pearl, रफाकत=peace and happiness(सुख-शांति) , खल्के-खुदा=O lord! Master of Universe.




Thursday, October 21, 2010

ज़ज़ीरा...

# # #
घेरे हुए है
डरावना
समंदर
देखो
भोलीभाली
सरसब्ज़
जमीं को,
बसा है
इन्सां की
रूह में
ज़ज़ीरा एक
ख़ुशी-ओ-सुकूं का,
घिरा हुआ
आधी-अधूरी
जीई गई
ज़िन्दगी के
खौफों से...

ज़ज़ीरा=island , सरसब्ज़= verdant

(Inspired by a write of famous American novelist, short story writer and poet, Herman Melville-1819-1891.)

Tuesday, October 19, 2010

यादों के साये : नायेदा आपा की ग़ज़ल

# # #
तनहा वो चमन में जब जाता होगा.
तस्सवुर में उसके कुछ तो आता होगा..

उसको निस्बत रहती है महज हक़ीक से,
खयालों में ख्वाबों को भी लाता होगा....

माना कि मसरुफ रहा करता है वहां,
निकह्तें फुर्सत की सीने से लगाता होगा...

हंस हंस के महफ़िल गुंजाता है तो क्या,
रात की तन्हाई में वो सिसकता होगा...

सपनों को अपने सजाता है मेरी सूरत से,
आँख खुलने से मेरा खयाल ही आता होगा...

दूर मुल्क और गैरों में थिरकना भी तो क्या,
उसका साज-ए-दिल तराने मेरे ही गाता होगा...

लिखते रहतें है नग्मात उसकी यादों में,
दिल पे वो साये यादों के बसाता होगा...

तस्सवुर=कल्पना, निस्बत=लगाव, हक़ीक=वास्तविकता,
मसरुफ=व्यस्त, निकह्तें=खुशबूएं।

सच और झूठ

# # #
मिल गए थे
अनायास
सच और झूठ
चौराहे
किसी पर,
सच था
नंगे बदन,
और
बाँधी हुई थी
झूठ ने
इक लंगोटी,
पूछने लगा था
झूठ
सच से,
"अरे
नहीं आती
हया
तुझ को
फिरते घुमते
नंग धडंग
बेझिझकी से ?"
बोला था
सच,
"झूठ निर्लज्ज़े !
बनाएगा
जब तू
घर अपना
मेरे मन को,
ज़रुरत होगी
ढकने की
मुझे भी
अपने
इस
कंचन से
तन को."

Monday, October 18, 2010

स्वभाव और कर्म...

# # #
चम्मच भर
चीनी,
च्यूंटी भर
नमक,
रंग रूप
एक सा,
कौन किस से
कम....?
बोली थी
जिव्हा :
स्वभाव ही की
बात है,
शक्लों में
रखा है क्या,
कर्मों पीछे
जात है...

'सत'

# # #
बस
खोला ही था
दरवाज़ा,
बिना कुछ पूछे
बिना कुछ कहे
चली आई थी
भीतर वो,
फ़ैल गई थी
कारपेट पर,
फिर
बिछ गई थी
बिस्तर पर,
कपड़े तक
ना उतारने दिये
जालिम ने,
लिपट गई
निगौड़ी
रौं रौं से मेरे...
रात का वक़्त,
सूना घर,
कहा था उस से मैंने
चली जा,
रहना साथ
मर्द पराये के
नहीं है ठीक,
क्या समझेगा
तुम्हारा 'वो' ,
आया था
अचानक
बादल एक,
ढक दिया था
उसने
मुखड़ा चाँद का,
हो गया था
अँधेरा सा,
इस बीच
ना जाने
चली गई थी
कहाँ वो,
बादल बढा था
तनिक सा,
चली आई थी
फिर से
चंचला,
कहा था मैंने
अरी चांदनी !
चली गई थी
कहाँ तू,
कहा था उसने
कहीं तो नहीं...
रहती हूँ
मैं तो
हर पल
संग अपने चाँद के,
अरे भोले मानुष !
अभी भी नहीं
समझे तुम,
अरे मैं तो
रहती हूँ
टटोलती
'सत'
तुम से
मर्दों का...

Sunday, October 17, 2010

किरकिरी...

# # #
नहीं थकी थी
आँख
दुनिया के
दोषों को
देखते
देखते,
हुई थी
किरकिरी को
उत्सुकता,
करली थी
उसने
एक 'अन प्लान्ड विजिट'
आँख की,
करने
निरीक्षण
एवम
प्रयवेक्षण
उसकी क्षमता का,
आँख हो गयी थी
लालम-लाल
गुस्से में,
किन्तु छोटी सी
किरकरी
डरती क्यों ?
आखिर में
रोने लगी थी
सर्वशक्तिमान आँख
होकर
परेशान,
तब छोड़ा था
पीछा उसका,
उस धूल के
नन्हे से
कण ने...

विशाल-लघु...

# # #
नहीं
कुचल
सकता
विशाल
तिमिर
गजराज सा,
दीपक की
चींटी सम
लघुतम
जलती हुई
लौ को....

Saturday, October 16, 2010

रास्ता और मंजिल...

(मेरी कतिपय प्रस्तुतियां, सामान्यतः पेश होने वाली कविताओं जैसी नहीं है....इन्हें गद्य रचना भी समझा जा सकता है तकनीकी तौर पर)
# # #
पूछ बैठा
बैल तेली का
कोल्हू से,
"यारां !
चल चुके हैं
हम
अब तक
मील
कितने....?"
जवाब था
कोल्हू का,
"धीरज
रख साथी !
जब होंगे
ख़त्म
तिल सारे,
आ पायेगी
तभी तो
मंजिल
अपनी...."

Friday, October 15, 2010

भेद...

# # #
चमचमाता
हीरा
समाया
धूल में,
लिपटा उससे
और
अँधा हो गया...
गन्दला सा
बीज
लिपटा
उसी धूल से,
खोल कर
आँखें अपनी
उठ आया
ऊपर
और
बन गया
जद,
तना.
डाल,
पत्ते,
फूल
और फल...
क्या
भेद
यही है
पात्र-अपात्र का,
प्रेम-अप्रेम का,
सजीव-निर्जीव का......?

अनोखा प्यार : अजीब इज़हार...

# # #
लगी कहने
शम्मा :
मेरे महबूब
मेरे अज़ीज़
मेरे डोरे !
किन्ना प्यार
करूँ हूँ
मैं तौ से,
देखो ना
बसाया है
तौ को
भीतर अपने....
भुक्तभोगी डोरा
मिमियाया :
बतिया तो नीमिन तोहार,
ऐ मेरी शम्मो !
ऐ मेरी मल्का !
जलूं हूँ
तब ही तो
मैं
तिल तिल के...

उदासी, ख़ुशी और सापेक्ष..



उदासी...

#
पीले हुए
पत्ते
हुआ
चेहरा
माली का
भी
पीला....

ख़ुशी...
# #
हुए फल
पीले
चेहरा
माली का
हुआ
लालम
लाल....

सापेक्ष..
# # #
रंग एक
प्रभाव दो
सापेक्ष
कितना है
यह
जीवन...

Thursday, October 14, 2010

अंतर और अंतर....

# # #
ताम्बे के
कलश ने
कहा माटी के
घड़े से
यार ! मेरे में भरा
नीर
रहता है
इतना गरम
क्यूँ...
और
तुझ में रहा
पानी
हो जाता
इतना शीतल
क्यूँ...
बोला था घड़ा :
सुन सरदार !
मैं देता हूँ
जगह
जल को
अंतर
अपने में
और
रखता है तू
उसको
अपने से
अंतर में...

Wednesday, October 13, 2010

पाँव दूजों के....

# # #
पर्वत के शिखर पर
चढ़ गयी थी
छोटी सी चींटी,
झाँका था उसने नीचे :
लगा था हाथी कुत्ते जितना
ऊँट मानो हो खरगोश
और इन्सान मानो खिलौना,
बहुत खुश थी चींटी
लगी थी सोचने
ना डरूं में अब तो,
डर से मरुँ ना अब तो,
बहम था बस मेरा
कोई भी तो नहीं बड़े,
देखा आज मैंने
असल रूप उनका,
बढाती कदम तेज़ी से,
उतारी थी नीचे चींटी,
लगने लगा हाथी पहाड़ सा
ऊँट हाथी सा
इन्सान शैतान सा,
घबरा गयी थी बेचारी चींटी
पूछ बैठी थी पर्वत से :
पल भर में यह फर्क कैसा ?
मुस्कुराया था पर्वत,
लगा था कहने :
पहले नज़रें थी तुम्हारी
मगर
पांव थे मेरे,
और अब ?
नज़रें भी तेरी
पांव भी तेरे....:)

Monday, October 11, 2010

बरहना....../Barhana


# # #
अरी सुई !
क्या हुआ तुझे
हासिल
बींद कर
दिल
फूलों के,
समा गया ना
धागा तो
भीतर
और
तू..... ?
रह गयी ना
बस,
बरहम
बरहना
बेहया
बेहूदी सी...

(बरहम=अप्रसन्न, बरहना=नंगी, बहाया=निर्लज्ज, बेहूदी=अशिष्ट)

Ari Sui !
Kya hua tujhe
Hasil
Beendh kar
Dil
Phoolon ke,
Samaa gayaa na
Dhaga tau
Bheetar
Aur
Tu.......?
Rah gayi na
Bas
Baraham
Barahana
Behayaa
Behoodi si....

(Baraham=displeased/disarranged, barahana=nude, behayaa=shameless, behoodi=absurd.)

Sunday, October 10, 2010

भ्रम पहचान का...

# # #
हरी हरी इतराई
दूब ने
किया व्यंग :
अरे ओं लम्पट झरने !
क्या तू है संतान
पवन की,
बहता रहता
कल कल..कल कल
रहे उछलता
पल पल...पल पल,
होता नहीं
स्थिर कभी भी...
मंद मंद
मुस्काया था
वह निर्मल झरना,
प्रेम से बोला :
वाह ! की है
सटीक पहचान
तू ने तो, :)
मैं तो हूँ
बेटा पर्वत का,
जो नहीं बदलता
करवट तक भी....

एक सोच...

# # #
मुश्किलें,
मुसीबतें ओ,
तकलीफें
बढा देती है
हौसला
इन्सां का,
जलता है
कपूर
ज्यों ज्यों,
फैलती है
बढ़कर,
खुशबू
उसकी...

Saturday, October 9, 2010

पीठ पीछे ...

# # #
पूछ बैठा
झोंका
हवा का
पेड़ के
वाचाल
पत्तों से,
"अरे !
आता हूँ मैं
जब ही
करते हो
क्या तभी
चर्चा-विचर्चा
तुम सब ..?"

बोल उठे
पत्ते,
"आदत नहीं
हमें
कानाफूसी की
पीठ के पीछे..."

Friday, October 8, 2010

अनुभूति..

$ $ $
पिंजर और घर
अब मोहे
लगने लगे है
एक से,
है विमुक्त
होने को
आत्मा,
मिथ्या
बंधन
प्रत्येक से...