Wednesday, March 31, 2010

Fool.....( १ अप्रैल २०१०)

# # #
jao ja kar
us fool ko
is fool ka
aek fool sa
salam dekar
kaho,
aek fool ne
unko
aek fool ki
saugat bheji hai...

saugat ka
yah fool
unke fool se
chehre par
bane foole se
jude men
sajega,
unki foolwari ke
foolon ki
bahaar dekh kar
is fool ka bhi
jee machlega....

unke 'aey fool !'
kahne par
yah fool
kaanton se
dosti karega
kante jyon ke tyon
rah jayenge,
aur yah fool
fool ki tarah
murjha kar
mitti men mil jayega,
fool kahin ka !

hai na
cool
fool.......:)

नहीं अँधा उसका नेह...

# # #
असह्य
अलाव में
पक कर
हुई
सुदृढ़,
घट कच्चे की
देह,
कुम्भकार को
साधुवाद !
नहीं
अँधा
उसका नेह...

Tuesday, March 30, 2010

फ़ित्रत.......


# # #
दिखा था
बस
चेहरा मेरा
आईने में ;
अक्स-ए-फ़ित्रत
नहीं,
हुआ था
अफशा-ए-राज
फ़ित्रत का
चली आई थी
मैं जब
खुद में.......

Monday, March 29, 2010

नज़र...

# # #
पड़ी थी
हाथी पर
चींटी की
नज़र,
खाता है
जब
यह भी
पेट भर
है फिर मुझे
क्यूँ हो
बेवज़ह
अपनी
फ़िक्र....

Sunday, March 28, 2010

चकाचौंध.......

# # #
डरती हूँ
छोड़ने से
मज़बूत हाथ
तारीकी का,
भटका न दे
मुझे
चकाचौंध
नकली
रोशनी की...

(तारीकी=अंधकार : यहाँ अंधकार से मतलब गहरायी से है, जहालत से नहीं)

Saturday, March 27, 2010

पराया है.....(राजस्थानी/हिन्दुस्तानी)


पूर्व कविता की श्रृंखला में एक और प्रयास सप्रेम प्रस्तुत है....

__________________________


परायो है....(राजस्थानी)

# # #
जीवण री
आरसी मं
चितराम ओं
परायो है,
इण जमीन र
उपरलो ओं
आभलो
परायो है....

कुण किण र
हिन्व्ड़े बसे
कुण किण री
आँख्यां मं है,
एक संसार
आपणो है
बीजो संसार
परायो है....

चाहवे कित्ती ही
सोरप है
चाहवे कित्ती
मौजा मन री,
म्हारी गुवाड़ी स्यूं
दूर रह्याँ
मेहल हर एक
परायो है....

जद स्यूं
न्याव
डूबी म्हारी
म्हे बैठ्या
एक ज़ज़ीरे पर,
दूर दूर ताईं
फैल्योड़ो ओं
समदरियो
परायो है....

इण राम धणक स
सुपण मं
रुत हरेक तो
म्हारी ही,
आँख खुली जद
के देख्यो ?
हरेक मिनख
परायो है...

पराया है........(हिन्दुस्तानी)
# # #
जीवन-दर्पण के
सीने में
बिम्ब प्रत्येक
पराया है,
धरा सुहानी
अपनी है पर
नील गगन
पराया है...

कौन किसी के
ह्रदय बसा
कौन स्थिर
किन नयनन में,
यहाँ एक
संसार हमारा है,
दूजा संसार
पराया है....

चाहे कितनी ही
सुख़-सुविधा,
चाहे जितनी ही
मौज भी हो,
अपनी कुटियाँ से
दूर रहूँ तो
प्रत्येक महल
पराया है....

नौका डूबी
जब से अपनी
बैठी हूँ
द्वीप निर्जन पर मैं,
अगण्य सा
विस्तार लिए
सागर विशाल
पराया है....

इन्द्रधनुष से
सपने में
ऋतु प्रत्येक तो
अपनी थी,
आँख खुली तो
यह पाया
इन्सां हर एक
पराया है....

Friday, March 26, 2010

अश्क जो टपके पलकों से...

# # #
अश्क जो
टपके
पलकों से
ढल गये वो
संगरेज़ों में,
काम तेरे
आये थे वो
हम को ही
सताने में...

आखरी
टीस जो
दी थी
तूने हम को,
मजबूर थे
हम
कितने
अनकही बातें
जुबाँ पे
लाने में.........

कर लिए थे
हाथ
काँटों से
जख्मी
हम ने,
एक
फूल को
बेणी में
अपनी
सजाने में...

औ सफ़र तीरथां जिस्यो ही है.. (राजस्थानी) (हिन्दुस्तानी)

कविता को राजस्थानी भाषा में पहले रचा, फिर उसका अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया, यह कविता मेरे प्रिय शायर अनवर मसूद साहब (पाकिस्तान) के एक कलाम से प्रेरित है. राजस्थानी और हिदुस्तानी, दोनों ही वर्सन पेश-ए-खिदमत है.

औ सफ़र तीरथां जिस्यो ही है
.. (राजस्थानी)
# # #

भींता
किसीक
आंकी बांकी,
पलसो इंरो
जिस्यो ही है,
ठावंच
राखण खातर
औ पड़वो
में'ल मालियाँ
जिस्यो ही है....

थां ने म्हान्स्युं,
म्हाने थान्स्यु
घणकरी
उमेदाँ है चोखी,
आपणे
हिन्वेस रो
औ भौ सुखकर
बिचुक आंक
जिस्यो ही है...

बग चाल्या हाँ
मनमौज़ां में
गेलो तो हुवंस
दिखावे है,
रस्तो है
घेर घुमिलो सो,
दोरो पण
सोरो
जिस्यो ही है....

थकेलो
म्हाने के केसी
कांटा तीखा सा
के लेसी,
'में'क' जणा
थारे सागे
औ सफ़र
तीरथां
जिस्यो ही है....

यह सफ़र तीर्थों जैसा ही है....... (हिन्दुस्तानी)
# # #

भितिकाएं है
टेडी मेढी
द्वार इसका
जैसा ही है,
थिर रखने के
क्रम में
यह कुटीर
महलों
जैसा ही है....

तुम को हम से
हम को तुम से
अपेक्षाएं
सुन्दर
बहुतेरी है,
प्रेम
अपने का
संसार
सुखकर,
एक
केंद्र बिंदु
जैसा ही है..........

बढ़ चले हैं
जब मनमौजी हो
आकांक्षा राह
दिखाती है,
मार्ग यह
टेढ़ा-मेढा है,
कठिन है...
सुखद
जैसा ही है....

थकन हमें
कहेगी क्या,
शूल तीक्ष्ण
हमारा
करेंगे क्या,
'महक' जब
साथ तुम्हारे है,
यह सफ़र
तीर्थों
जैसा ही है....

Thursday, March 25, 2010

जब तू नहीं था....

# # #
जब
तू नहीं था,
थी दिशाहीन
यह ज़िन्दगी मेरी,
तेरे एक
साथ होने से
हुए हैं
सुगम
पथ मेरे.....

शब्द
गीतों के मेरे
प्राणमय,
इंगित
तेरे से है,
मुखर से
मुखड़े अंतरे,
बिम्ब है
प्रेम के
तेरे...

मौन
मेरा हो
या तेरा,
वक़्त की
एक
ज़रुरत है,
चर्चाएँ
गर्म हो आई,
हुए
इज़हार ,
कुछ मेरे
कि कुछ तेरे....

Tuesday, March 23, 2010

गूंगे बहरे अल्फाज़....

# # #
बहुत से
अल्फाज़
होते हैं
गूंगे,
नहीं बता
पाते
मायने
खुद के,
आदतन
चले आते हैं
होंटों के
दर से निकल
कानों के
गलियारों तक
या
कलम से
पिघल कर
नज़रों के
दरीचों तक,
बेमानी
हरक़तें कर
चले जाते हैं
नामुराद
ना जाने
किन राहों पर,
करते हैं
पीछा
इन गूंगो का
चन्द
बहरे अल्फाज़
जो हो जाते हैं
चौकन्ने
बस होठों की
जुम्बिश
देख कर....

(दरीचे= खिड़कियाँ, नामुराद=अभागा, बेमानी=अर्थहीन, जुम्बिश=हरक़त, कंप)

Monday, March 22, 2010

सृजन और विसर्जन....

# # #
गिरी है
बूँद
बारिश की,
चलने लगा
पांवों पर,
धरा की
गोद में
सोया हुआ
शिशु
बीज,
घटित हुए
क्षण
संभावनाएं
साकार
होने के.........

नहीं
थमेगी
प्रक्रिया
विकास की,
जब तक
बन
ना
जायेगा
फिर से
वह
बीज,
कर के
अपने
समस्त
स्वत्व का
विसर्जन,
करने हेतु
पुनः पुनः
सृजन....

Sunday, March 21, 2010

गहरायी रात....

# # #
आंधी के है
तेज़
थपेड़े,
घिर
आये हैं
बादल....

वीराना
गहरायी
रात का,
मोहे
बनाये
पागल.....

चाँद-ओ-तारे
छुप से
गये हैं,
बिजली
का है
तांडव....

कजरा
बहा
अश्क संग
मोरे,
कब
आवेंगे
माधव......

कमलिनी
मूंदे है
आँखें,
अलि को
मिले
कैसे कोई
आशियाँ....

बन जा रे
परवाना,
जोए बाट
तिहारी,
जलता हुआ
कोई
दीया....

मनुहार....

# # #
नहीं
समझते
पीड़ा मेरी,
महज़
उपरी
बातें तेरी,
क्या हूँ
मैं
बस एक
खिलौना,
दबे
बटन
रुक जाये
रोना,
मुस्कानों को
बो कर
देखो,
मुझ में
खुद को
खो कर
देखो,
सुर
आदेश के
और है
होते,
दौर
मनुहार के
कुछ
और है
होते,
नहीं चाहिए
मुझ को
मेला,
कर दो
एहसान
मोहे
छोड़ अकेला.......

Saturday, March 20, 2010

इन्द्रधनुष..........

# # #
कर के
स्पर्श,
तोड़ दिया है
तू ने
मेरे
क्षितिज को,
उगाउंगी
कहाँ
मैं
अब,
इन्द्रधनुष
अपनी
कल्पना का....

Friday, March 19, 2010

सच का चेहरा....

# # #
सौन्दर्य
प्रसाधनों से
लिपे पुते
चेहरों की
भीड़ में,
कितना
अजीब सा
लगता है
सच का
यह
प्राकृतिक
चेहरा,
जगह
जगह
देखा है मैंने
कैद में
सच है
और
झूठ का
पहरा.......

कैसे दीया जलाऊं मैं ?

# # #
कैसे
दीया
जलाऊं
मैं ?

छाया
तिमिर है
बाहर
मेरे
तिमिर
बसा है
भीतर
मेरे
दोनों है
समतुल्य
मुझे तो,
कर के
क्यूँ यूँ
एक
उजारा
एक
अँधेरा,
खुद को
क्यों
हराऊं
मैं,
कैसे
दीया
जलाऊं
मैं ?

रुकते
नहीं
आंसूं के
धारे,
अविरल
गुंजरित
गीत है
सारे,
कैसे
बज़्म
सजाऊं
मैं,
कैसे
दीया
जलाऊं
मैं ?

दीप
मेरा
जलेगा
जिस
पल
शलभ
मरेंगे
व्याकुल
चंचल,
अंतिम
खेल
अपने
नयनन को,
हतभाग!
कैसे
दिखाऊं
मैं,
कैसे
दीया
जलाऊं
मैं ?

जो दिखे
वह
सच
ना है
जो ना
दिखे
वो
मेरा
ना है,
उहापोह के
गोरखधंधे में,
खुद को
क्यों
भरमाऊं
मैं,
कैसे
दीया
जलाऊं
मैं ?

Thursday, March 18, 2010

जड़-चेतन.......

# # #
जड़ चेतन की
बात चली तो
अनायास मैं
लगी सोचने
चेतन जाता
क्यों
जड़ रह जाता ?

मुरली के
बजने को देखा
रहती मुरली
स्वर चुप हो जाता
चेतन जाता
क्यों
जड़ रह जाता ?

दीपक के
जलने को देखा
लौ जलती
दीपक रह जाता
चेतन जाता
क्यों
जड़ रह जाता ?

मंजिल रहती है
गति रुक जाती
बीच सफ़र
कांटा यदि
चुभ जाता
चेतन जाता
क्यों
जड़ रह जाता ?

Wednesday, March 17, 2010

मतलब की मनुहार....

@ @ @
अलविदा !
कह देते
हंस,
सूख जाता है
जब
सरवर,
मतलब की
मनुहार,
झूठा कहे जग :
हुज़ूर
बन्दा परवर !

सच और स्वप्न....

# # #
(१)
आँखों के आगे :
चारमीनार
हुसैन सागर झील
सालारजंग म्यूजियम
हैदराबादी बिरयानी
मिर्ची का सालन
ज्वार की फसल
उर्दू सी मीठी जुबान
निजाम की शान
शरीफा और अंगूर
हूर के संग लंगूर
तेलंगाना आन्दोलन
अजीब से स्पंदन
हाई टेक शहर
बदलता रहता
हर पहर...
(२)
दृष्टि में उगे हैं :
विजय स्तम्भ
आमेर का किला
कैर और खेजड़ा
बबूल और रोहिड़ा
मोठ बाजरे के खेत
सुनहरी रेत
तलवार की धार
जौहर की पुकार
पीन्पली और कुरजां
केसरिया बालम की गरजां
मोरिया और धोरिया
इसर और गोरयां
काकड़िया मतीरा
बाईसा का बीरा
मूंछ की मरोड़
निरजन खोड़......
(३)
कौन सा सच ?
कौन सा स्वप्न ?

[कविता का पहला हिस्सा (१) हैदराबाद की बात कर रहा है, जहाँ मेरे पूर्वज राजपूताना से किसी ज़माने में आये और हम बरसों से बसे हैं....दूसरा (२) हिस्सा राजपूताने को इंगित कर रहा है जहाँ हमारी जड़ें है...कैर वहां कि झाड़ी है, खेजडा-बबूल-रोहिड़ा वहां के पेड़, पीन्पली-कुरजां-केसरिया वहां के लोकगीत, धोरिया बालू रेत के सुनहले टीबे,मोरिया मोर, इसर गोरयां =शिव पार्वती के रूप-गणगौर त्यौहार कल मानेगा, काकड़िया मतीरा-थार के फल, खोड़-बीहड़..ये बस मन के उदगार हैं जो पीढ़ियों से हमारे यहाँ दोहराए जाते रहे हैं...आज आँखे गीली किये आपसे शेयर कर रही हूँ.]

Tuesday, March 16, 2010

दुर्घटना....

# # #
हुआ है कब
समय ऐसा,
जब नहीं थे
राग द्वेष
हिंसा प्रतिहिंसा
शोषण दुराचरण ?
हुए हैं
प्रत्येक युग में
असमंजस और
पाशविकता से
परे
भावनाशील
विवेकी
कतिपय मानव,
करती रही है
संवेदना जिनकी
मार्गदर्शन
बहुजन का,
जब तक नहीं
घटी दुर्घटना :
बनाये गये
शब्द उनके
शास्त्र,
होने लगी
पूजा
अर्चना
स्तुति
उनकी :
साकार
निराकार
कैसी भी
प्रतिमा बना कर....

Monday, March 15, 2010

दिनरात (२२) : दूध,दही,माखन और घी

# # #
तारे :
रात की
भैंस के
थनों से
टपकती
बूंदे
दूध की......

चाँद :
नभ की
जाँवणी में
जमाया हुआ
चक्के सा
दही.....

सूरज :
बिलौने से
निकला
माखन....

धूप :
पिघला हुआ
घी
चुपड़ती है
जिस से
धरती की
रूखी
रोटी....

(जिस पात्र में दही जमाया जाता है उसे राजस्थान में 'जाँवणी' कहते हैं,यह गोल फैलावदार नांद के आकार क़ी होती है. अच्छे से सेटल हुए दही को राजस्थान में 'चक्के' सा दही कहते हैं, इन राजस्थानी शब्दों का प्रयोग मैंने इरादे से किया है...शायद लगभग ऐसे ही शब्द बृज अथवा पश्चिमी उत्तर-प्रदेश, मालवा आदि में प्रचलित हों....या इन्हें कुछ और कहा जाता हो, कृपया जानकारी शेयर करें..धन्यवाद.)

Sunday, March 14, 2010

दिनरात (२०) : डूबना तैरना

# # #
गहरी रात
सांवली जमना..
दिवस
गंगा का पानी,
प्रेम भंवर
डूबी थी
मीरा
तिरा
कबीरा ज्ञानी....

[स्वयं/परमात्मा से जुड़ने, एकीकृत होने के क्रम में,डूबना और तैरना दोनों ही शुभ है....सापेक्ष है...यह कह रही है यह कविता]

Saturday, March 13, 2010

दिनरात (१९) : वक़्त कुम्हार

# # #
सितारों के
कतरों से
अँधेरे की
सूखी माटी को
किया था
मानो
गीला,
वक़्त कुम्हार ने
पौ फटने पर
रच लिया था
सूरज सा
दिया
सजीला.......

Friday, March 12, 2010

दिन रात (१८) : चांदनी की ठंडाई

(होली के अवसर पर लिखी थी, पोस्ट नहीं हो पाई....आज शेयर कर रही हूँ.)

# # #

रात की सिल पर
चाँद के लोढे से
अँधेरे की भंग
(और)
बादाम तारों की
हुई थी
पिसाई,
मदमस्त
वक़्त रसिये ने
मौज से
घोटी थी
चांदनी की
ठंडाई...

Thursday, March 11, 2010

दिन रात (१७) : सितारों के हर्फ़...

# # #
दूज के चाँद सी
लिए खड़िया
हाथ में,
वक़्त
एक
पढ़ाकू बच्चा
लिख रहा है
अँधेरे की
स्लेट पर
सितारों के
हर्फ़.....

Wednesday, March 10, 2010

मिलन......(आशु कविता)

# # #
आई है
घड़ी
महामिलन की,
शैय्या पर है
समर्पित
मृत्यु :
प्रेयसी
जीवन की.....

सन्देश लिए
महा विश्राम का
आई
पुनीत बेला,
पावन
परिधान
सज्जित
हर्षित
अद्य
मिलन मेला....

चले जाने का
ना शोक है
ना चाह
रह जाने की,
तत्परता
आत्मा को है
असीम संग
मिल जाने की .....

दे रहा है
जग
अश्रुपूरित
विदाई,
हो रही
सद्कर्मों की
मानो यूँ कोई
भरपाई....

प्राप्य है
आनन्द
अतिरेक
आज इस
चेतन को,
हो रहा
महाप्रयाण मेरा
ले हाथ
निज केतन को....

म्रत्यु महोत्सव
पालित है
हर्ष एवं
उल्लास से,
घटित हुई है
मुक्ति मेरी
श्वास
और
निश्वास से.....

पञ्च भौतिक
देह का
पञ्च तत्त्वों में
विलय हुआ,
आत्मा का
स्वरुप यूँ
निर्मल
निरामय हुआ....

(केतन=ध्वज/पताका/चिन्ह, अद्य=आज/अभी, अतिरेक=अधिक्य, निरामय=निष्कलंक/निर्दोष)

Tuesday, March 9, 2010

कैदी.....

# # #
कैदी-संग ही
कैद भोगता
कैद का वो
रखवाला.....

फर्क इतना बस
एक है भीतर
एक खड़ा है
बाहिर,
बंधे पांव
पोशीदा उसके
बात है यह
जग-जाहिर...........

चाभी पकडे
कमर उसी की
जो लगाये ताला,
कैदी-संग ही
कैद भोगता
कैद का वो
रखवाला.....

फन्दा मुश्किल
डाला बन्दे ने
पकड़ सिरे को
पहले,
घन कूटे
धनाधन लोहा
चोटें एरन की
झेले.

मकड़ी
फंसाने औरों को
यारों !
गिर्द खुद के
बुने है जाला,
कैदी-संग ही
कैद भोगता
कैद का वो
रखवाला.....

तशद्दुद है
तलवार एक
तेज़ बड़ी दुधारी,
काटे सो
खुद ही
कट जाये
मार है
इसकी भारी.

उलझा कर
दूजों को
भैय्या !
कैसे बचे
कोई मतवाला,
कैदी-संग ही
कैद भोगता
कैद का वो
रखवाला.....

( पोशीदा= अदृश्य/invisible, तशद्दुद=हिंसा/ violence)

Monday, March 8, 2010

दिनरात (१६) : बहार फलक में

# # #
बीता है
पतझड़
दिन का,
आ गया है
मौसम-ए-बहार
गुलशन-ए-फलक में.....

फूटी है
कोंपलें
रौं रौं में
अँधेरे के
शजर पर.......

फ़ैल गयी है
हरसू
महक
उजास की.....

बजने
लगे हैं
नग्मात
वस्ल के
दिल की
बांसुरी पर .......

सुन कर
दिलकश तान
निकल आई है
कोई हूर
बन कर
चाँद
उफक की
ओट से....

(मौसम-ए-बहार=बसंत ऋतु, गुलशन=उपवन/बगीचा, फलक=आकाश, शज़र=वृक्ष, हरसू = सब ओर, नग्मात=गीत, वस्ल=मिलन, हूर=अप्सरा, उफक=क्षितिज)

Sunday, March 7, 2010

महिला दिवस पर....

नर-नारी के ज़िन्दगी में रोल, उनमें बराबरी हो उसकी क्या परिभाषा हो, दोनों एक दूसरे से अलग है बयोलोजिकली और साय्कोलोजिकली इसलिए बराबरी के नाम पर औरतों का मर्दों की नक़ल करना उन्ही के वुजूद के खिलाफ जाता है, रूहानी तौर पर औरत कैसे बेहतर है मर्द से, बरसों तक पुरुषप्रधान समाज ने कैसे जाने अनजाने नारी का शोषण किया, प्रतिक्रियास्वरूप आज की नारी नारी-स्वतंत्रता का परचम लिए कैसे गुमराह हो रही है और नारी के 'एसेंस' को खो देने की जोखिम ले रही है, एक अच्छे भौतिक और अध्यात्मिक जीवन के लिए नर नारी कैसे एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं, विवाह एक व्यवस्था है या प्राकृतिक अनिवार्यता, प्रत्येक इन्सान में नर तत्व और नारी तत्व विद्यमान है इसीलिए हमारी तहज़ीब ने अर्धनारीश्वर की बात कही है, आदिम युग... वैदिक युग.... तदुपरांत का समय और आज..नारी की क्या अवस्था रही है समाज में, हिंदुस्तान और दुनिया के परिपेक्ष्य में नारी, औरतों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण कितना हितकारी है औरत के लिए...बहुत सी बातें हाँ..बहुत से सवाल है जिन पर सोच विचार... विमर्श किया जा सकता है. पश्चिम से उधार लिए 'दिनों' याने फादर्स डे, मदर्स दे, वेलेंतायिन डे, फ्रेंड्स डे, इत्यादि में एक है 'वुमेन'स डे' या 'महिला दिवस' जिसकी सार्थकता हमारे लिए बस इतनी ही है की भूले बिसरे इस सवालों पर सोच जाये, आज और बाकी के ३६४ दिन नारी की सही पहचान करने/कराने में लगा जाये.
एक रचना इसी सन्दर्भ में पेश की है 'जमा हुआ ख्वाब'. एक और रचना जो 'अन्तरंग' और 'अध्यात्मिकता' से ज्यादा जुडी है पेश कर रही हूँ.

________________________________________

प्रथम बिंदु शुभारम्भ का ......
# # #
प्रतीक्षा में है
अब भी कितनी
राधिकाएं यहाँ
तुम हो कितनी
सौभाग्यशाली
मिल गया है
तुझ को
मोहन तुम्हारा .....

मिल गयी है
मुरली की तान,
मिल गयी है
राग रागिनियाँ,
मिल गया है
दिव्य संगीत,
मिल गया है
आनन्द बोध,
मिल गयी है
प्रसन्नता,
मिल गया है
जीवन से जीवन.....

किन्तु
यह तो है
यात्रा के
शुभारम्भ का
मात्र
प्रथम बिंदु,
केवल
प्रथम बिंदु.....






जमा हुआ एक ख्वाब.....

# # #
जमे हुए
एक ख़्वाब हो
तुम...
ना खुद पिघलते हो
ना ही मुझे देते हो
पिघलने....
जताते हो हक
मुझ पर...और
देते हो हुक्म,
मैं भी जम जाऊं
तुम्हारी
एकतरफा तस्दीक
की गयी
हकीक़तों में,
जब जब करती हूँ
नामंज़ूर उनको
आगाह करने के
बहाने
छिन लेते हो
मुझ से
हर मकसद
ज़िन्दगी का...

तुम को क्या ?
तुम तो महफूज़ हो
रवायतों और
पाबन्दियों की
जमी हुई
बर्फ के बीच,
जिसमें
रिसता रहता है
वुजूद मेरा
गुज़र कर
उस कंटीली बाड़ से
जिसको
खड़ा किया है तुम ने
मेरे हर जानिब...

जानते हो
तुम भी
लूट लिया है
तुमने
मेरी आवाज़ को
जो हुआ करती थी
कभी
मेरी अपनी.....
समझते हो तुम
बखूबी
हो सकती हूँ
मैं भी
मल्का
अपनी सल्तनत की
जैसे तुम हो
खुद मुख्तार बादशाह
अपने इर्दगिर्द के......
फर्क बस है इतना
हर हरक़त तुम्हारी
करती है मुझे
ज़लील..
होता रहता है
वार मुझ पर
तुम्हारी
फ़र्ज़ और ईमान की
दोधारी तलवार से.....

ना जाने क्यों
हर लम्हे
तुम्हारी नापाक अना
अपनी झूठी जीत पर
लगाती है कहकहे,
और हर सांस तुम्हारी
चिल्लाती है
कहते हुए मुझ को :
"तुम कुछ भी नहीं !"
"तुम कुछ भी नहीं !"
भूल जाते हो तुम
मेरे बिना,
"तुम भी कुछ नहीं !"
"तुम भी कुछ नहीं !"

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Saturday, March 6, 2010

दिनरात (१५) : सुनहली फसल

# # #
वक़्त-किसान
अँधेरे के
भैंसे से
जोत कर
चाँद का हल,
बौ देता है
फलक में
बीज
सितारों के ;
(और)
निपजती है
जिससे
दिन की
सुनहली
फसल......

दिन रात (१४) : नन्ही लौ

# # #
तम के
दुर्ग का
परकोटा
बज्र सा
महान,
बेन्धना
दीये की
नन्ही लौ से
उसको
हो जाता
आसान....

Thursday, March 4, 2010

दिनरात (१३) : वक़्त का चिमटा

# # #

सूरज की
धधकती
अंगीठी से
पड़ गया था
उछलकर
एक अधजला सा
कोयला
और
हो गया था
अँधेरा ......

वक़्त के
चिमटे से
उठाया था उसको
आसमां ने
और
डाला था
फिर से
अंगीठी में ;
हो गया था
सवेरा......

Wednesday, March 3, 2010

एक तेरी मुस्कान....

# # #
थकन हर लेती
प्राण भर देती
दुनिया बदल देती
एक तेरी मुस्कान !

तपिश में ठंडक
सहरा में छांव
बेघर को गाँव
बन जाती
एक तेरी मुस्कान !

पाचों नमाज़
पूजा और संध्या
प्रभु से प्रार्थना
अस्तित्व की आराधना
बन जाती
एक तेरी मुस्कान !

महफ़िल का आगाज़
संगीत का साज़
गायक की आवाज़
हो जाती
एक तेरी मुस्कान !

ह्रदय की अपेक्षा
जीवन की प्रतीक्षा
भटके हुए की दिशा
होती है
एक तेरी मुस्कान !

Tuesday, March 2, 2010

दिन रात (12) : रात और तारे


# # #
गगन की
डालिया में
काले काले
जामुनों की
ढ़ेरी
उस पर छितराए
मौलश्री के
फूल
करने अर्पण
सूरज देवता को......

Monday, March 1, 2010

दिन रात (10) : रात नागिन

# # #
दीये की
स्वर्णिम लौ
सपेरे की बीन,
किरणों की
धुन पर
नाचती है
रात नागिन,
तारों से
अंडे
संभालती है
माँ रजनी,
पौ फटे
छोड़ देती
कैंचुली अपनी,
चमक कर
सूरज की
रोशनी में
बन जाती है जो
दमकता दिन,
ज्योतिषी
विज्ञानी
थक जाते हैं
घटी-पल-निमिष
गिन गिन....