Monday, May 31, 2010

सुई.........

# # #
छोडती है
सुई
साथ
धागे का,
मिलाकर
उसको,
उसके
अपने
परिवार से.....

Sunday, May 30, 2010

कुबुद्धि का फल..

तू बीजता है
एक दाना
उगती है
फलती है
अनगिनत
बालियाँ
भुट्टे और
सिट्टे
होते हैं
जिनमें
असंख्य दाने.

तू बौता है
एक गुठी
उगता है
विशाल वृक्ष
लगते हैं
उस पर
अनगिनत फल.

तू रोपता है
एक कलम
एक पौध
बन जाती है
वह
एक झाड़ी
खिलतें हैं
उस पर
असंख्य फूल.

कितनी
दिलदार है
यह धरती माँ
और
तू है कृत्घन
नहीं मानता
उसका उपकार
गिरा डाले हैं
अनगिनत पेड़
काट कर
वनों को
नदियों के
जल को
कर प्रदूषित
बना दिया है
विष
धुएं से
जहरीली
हो गयी है
मतवाली पवन
बारिश ना जाने
कहाँ थम गयी है
नरक सी
आहात
कर रही है........

यदि तुम ने
नहीं छोड़ी
करनी प्रयावरण से
छेड़छाड़
आग उगलेगी
धरती
नहीं मिलेगी
हवा
लेने को सांस
आयेंगे भूकंप
फैलेगी महामारी
मच जाएगी
तबाही सब जानिब
होगा भोगना
तुझे
अपनी
कुबुद्धि का फल........

झूठ और सांच

बीच चौराहे
खड़ा है
बहु मंजिला
महल झूठ का
विशाल द्वार में
जिसके
समां सकता है
हाथी
संग महावत के,
गाँव किनारे है
एक छोटी सी
पर्ण कुटीर
सांच की
जिसमें
चैतन्य मानव
करता है
प्रवेश
मस्तक
नवा कर...

निराकार साकार..

नहीं ले

सकते

अगन की

लपट को

हाथ में

चाहिए

उसके लिए

कोई टुकड़ा

एक

लकड़ी का,

पाने

निराकार को

रखना होगा

सामने किसी

आकार को…………

चूहादानी

अन्धकार
दिन के
पिंजरे* में
पकड़ा
एक चूहा,
दूज का चाँद
चूहेदानी में टंगी
अधखाई रोटी....

*chuhadani/mouse trap.

सिल्ली मिस्टेक'

अँधेरे की
स्लेट पर
चाँद बालक ने
तारों के
ककहरे लिखे
हडबड़ में हो गयी
'सिल्ली मिस्टेक'
बादल के गीले
डस्टर से
मिटा डाले
उसने
फिर से....

कृपण दिन..

बहुत
कृपण है
यह दिन
रोज़
अशर्फी*
सूरज को
हाथ में ले
घूमता
फिरता है
मगर
खर्च नहीं पाता
साँझ हुए
डाल लेता है
वापस
अपने जेब में
उसको...

*gold coin

कुदरत की गणित

नहीं
होते
पत्तों
जितने
फूल,
फूल
जितने
फल
यह है
कुदरत की
गणित
इन्सान की
गणना नहीं.

लफ्ज़

हर एक
लफ्ज़ के
बीज में
उगेगा
अर्थ का
शजर
मिलेगी
जब उसे
अनुभव की
धरती
और
पानी
संवेदना का ...

दुनिया

है यह
रामलीला के
सामान की
दूकान
जहाँ है
बिकते हैं
एक दाम
मुखौटों में
रावण और
राम...

मूठ...

अकथनीय सच
कहा जा सकता है
मिला कर
शब्दों का झूठ
तलवार नहीं
चल सकती
जब तक
ना हो मूठ.

(शब्दों का झूठ=कल्पना)

शब्द

जब जब
मैं
हुई थी
उदास
शब्द को
बुलाया
हनुमान बन
शब्द बंधु
संजीवनी
ले आया.

निर्जीव सजीव

सियाही
कलम और
कागज़
सभी तो है
निर्जीव
शब्दों के
जनम से
होती संवेदना
सजीव.

आँख और पांख

कैसी है
यह आँख
मेरी
स्थिर है
टिकी है
वहीँ
किन्तु
जा रही है
उड़े
बिना
पांख के...

लज्ज़त

ढेर
गन्दगी का,
फल के लिए
दोज़ख,
बीज के लिए
जन्नत,
होती है

ऐसी

अपनी
अपनी
लज्ज़त.

अनछुआ शहद

मत ना
बैठ
उड़ उड़ कर
गन्दगी के
ढेर पर
ऐ मेरे
मन की
मख्खी...

चखने
रूह के
कँवल का
अनछुआ
शहद
बन जा ना
तू
शहद की
मख्खी....

चुगलखोर दिया

कानो के
कच्चे
आफ़ताब ने
कर दिया
खून
सितारों के
वालिद
अँधेरे का,
मगर
जलनखोर
चुगलखोर
दिया
जी सका
कब तक....

धीर वीर गंभीर....

तरु का तना

रहता है

मौन

धरे धैर्य

और गहनता,

और

पत्ते ?

चपल

चंचल

अस्थिर से...

देख कर

प्रकोप

ऋतु

पतझड़ का

भाग
खड़े होतें हैं,

किन्तु

तना

रहता है

स्थिर

धीर

वीर

गंभीर

पाने को

उपहार

ऋतु

बसंत से………

आज़ाद है महक....

जुड़े हैं
मूल से
पत्ते भी
फूल भी
किन्तु
आज़ाद है
महक,
मर्यादाएं
उत्तरदायित्व
और
पालन स्वधर्म का
नहीं होते
बाधक
व्यक्ति की
स्वतंत्रता में.....

फिर बादल बना दिया...

कतरा हूँ में
आब का...
छूट
आसमान से
गिरा था
आगोश में
तेरे
अफ़सोस !
तुमने
मुझको
फिर
बादल
बना दिया...

शमा और धागा...

शमा ने कहा
धागे !
देखो तुम से
कितना
प्यार
मैं करती हूँ
तुमको
आदि से अंत
स्वयं के
अंतर में
समाये
रखती हूँ…….
बोला धागा :
तभी
प्रिये !
प्यार में
तुम्हारे
मैं भी
तिल तिल
जलता हूँ……..

लाजवंती कविता.....

छुपे हुए हैं
तरु के
रुक्ष
कठोर
तने में
अनगिनत
सुकोमल पत्ते
सुन्दर पुष्प
मधुर फल,
किन्तु
होंगे प्रकट
पाकर निमंत्रण
ऋतु की
समीर का……….

तदनुरूप
शब्दों का
निकाले घूँघट
व्याकुल सी
विराजित है
प्रतीक्षारत
किसी दृष्टिवान के
शुभागमन की ;
शरमाई सी
सकुचाई सी
स्वामिनी
अनन्त अर्थों की,
मेरी
लाजवंती
कविता.....

दीवारें....

सुना था
कान होतें है
दीवारों के भी
एकान्त में
उनके करीब
कुछ कह कर देखा
मालूम हुआ
उनके मुंह भी
होता है
जुबान भी,
नहीं होते हैं
बस दिल
और
आँखें....

Saturday, May 29, 2010

तन्हा तन्हा...

ज़िन्दगी की
अंधियारी
गलियों में
भटकती रही
मैं
तन्हा तन्हा...

सोचों के
अनसुलझे
धागों में
अटकती रही
मैं
लम्हा लम्हा...

मोहब्बत और
नफरत के
दरमियाँ
चटकती
रही मैं
मिनहा मिनहा....

रूह और
जिस्म की
दोनों आँखों को
झटकती
रही मैं
चश्मा चश्मा...

मुन्सिफ
बन बैठा था
कातिल मेरा
ठिठकती
रही मैं
इज्तिमा इज्तिमा...

(इज्तिमा=सम्मलेन/लोगों का जमावड़ा. चश्मा=झरना मिन्हा=घटा हुआ,लम्हा=मोमेंट/पल.)

प्राण प्रतिष्ठा...

नजदीक
संग के
जाता है
जब कोई
संगतराश
लेकर
छैनी-ओ-हथौड़ा
समझो
होगी
घटित
राम की
अगवानी
और
अहल्या में
प्राणों की
प्रतिष्ठा....

भय...

दृष्टि
चींटी की
पड़ी
हाथी पर
डर गयी
और
समा गयी
बिल में
अपने...

दृष्टि
हाथी की पड़ी
चींटी पर,
रेंगती
मौत को
देख
प्रत्यक्ष
उठ गयी
सूंड
विशालकाय
गजराज की...

भय
मिटा देता है
अंतर
लघु का
विशाल का,
परिमाप

भय
का

होता है
एक सा...

संतान सत्य की....

# # #
भोली भाली
सच ने
ना जाने क्यों
अपनी
शांतिमय
पर्ण-कुटीर को
त्याग कर,
आरम्भ
कर दिया है
करना
प्रसव,
अपनी सहोदर
चालाक बहन
झूठ के
राज प्रासाद में.....

विधाता भी
शायद
भूल गया
मार्ग
उसके
घर का,
या रूठ गया है
उस-से;
कर दिया है
बंद
विधि ने
लिखने लेख
भाग्य के
सत्य की
संतान के लिए...

तभी से
औलाद संच की
खा रही है
ठोकरें
दर दर की
भूख और
अभाव से
करते
अनवरत
संघर्ष...

Friday, May 28, 2010

छोटी छोटी बातें.....

(१)

सूरज ने
पहना है
चश्मा काला
बोला
एक उज्जड
रात
हो गयी...


(२)

रखते हैं
तराजू में
हर उम्दा
सामान
बोझ
सहता है
कोई
मौज
करता है
कोई...

(३)

जो कलम
करती है
कायनात में
उजाला
काटा जाता है
नाक
उसका
किया
जाता है
मुंह काला...

गहरायी तक

# # #
शब्दकार !
बना ले
छैनी
अपनी
कलम को
उकेर
गहरायी तक
शब्दों को;
मिटा सकता है ना
वक़्त
फिरा कर
ऊँगली
अपनी
जो भी
लिखा है
उपरी
सतह पर...........

Thursday, May 27, 2010

फूल और शूल,अवगुण,अन्धकार और जूता

(१)

फूल और शूल
# # #

फूल के करीब है भीड़
शूल के करीब है छीड़
फूल बांटता है खुशियाँ
शूल बांटता है पीड़.

(२)

अवगुण....
# # #

काँटा बाड़ का
बाड़ को नहीं खुबता
अपना अवगुण
खुद को नहीं चुभता.

(३)

अन्धकार और जूता
# # #

जूते को
अँधेरे में
ना देख पाती आँख
महसूस कर उसको
पहचान लेता पांव.


(राजस्थानी लोकोक्तियों पर आधारित)

मुरली...

# # #
बनी थी
मुरली
रसहीन
बांस से
हो कर स्पर्शित
गोपाल के
रसीले
अधरों से
बन गयी
वह भी
रसवंती....

छीनी थी
प्रियतम
रसपुरुष
योगेश्वर
श्री कृष्ण से
उसको,
बृज किशोरी
राधा ने
समझ कर
सौतन,
आवेश में
प्रमाद में
मति भ्रम में
या..????????????????


(यह एक अधूरी सी पूरी अभिव्यक्ति है...:)

Wednesday, May 26, 2010

लोलुपता ....

# # #
लोलुपता
धन की

यश की
पद की
बनकर जब
विकार व्यथा
लगती है
सताने,
नहीं
कर सकता
बर्दाश्त

कमज़ोर इन्सान
सच्चाई की
रोशनी को....

अपने बर्चस्व को
रखने कायम
लगता कहने
दिन को रात
और
दिवस
रजनी को...

Tuesday, May 25, 2010

हताशा...

# # #
अजीब
खेल है
इन्सान का भी
न जाने
क्यों
बाँध लेता है
आशाएं
लम्बी-लम्बी
दूसरों से भी
खुद से भी...

जब होती नहीं पूरी
एक नन्ही सी
अपेक्षा
हो जाती है पैदा
खुद-ब-खुद
उसके जीवन में
हताशा...

लगने
लगता है
पूरी जिन्दगानी सा
ज़िन्दगी का एक
छोटा सा
हिस्सा,
डूब कर
घोर निराशा के
अन्धकार में
देने लग जाता है
बिना कोई
गुनाह किये
खुद को ही
सजा
और
गाहे बगाहे
कर बैठता है
तमाम
खुद का ही
किस्सा....

पलायन...

वाकया था
रात
का

सोये थे
नींद के
आगोश में
यशोधरा और
राहुल...

छुप कर
आँख चुरा कर

जीवन संगिनी
एवम्
वत्स से
कर गये थे
प्रस्थान
प्रवंचक की तरहा
कुंवर सिद्धार्थ...
तलाश में
उस सत्य की
नहीं छुप
सकता जो

किसी भी
जागरूक
नयन से....

बोधि वृक्ष तले
सिद्धार्थ
हो गये थे
बुद्ध
हासिल कर
ज्ञान
आत्मा का,
पदयात्रा
कर
पहुंचे थे
फिर से
करीब
यशोधरा
के
कहने सिर्फ यही:
"मुझे ज्ञान
प्राप्ति हेतु
नहीं ज़रुरत थी
पलायन की.. "

यही था
सत्य
जिसे
स्वीकारने का
साहस
कर सकते थे
केवल
गौतम
क्योंकि
प्राप्त था
उनको
बुद्धत्व
और
सुन कर
इसी
सत्य को
यशोधरा
और
राहुल
हो गये थे
निर्मल
भूल कर
अपना क्षोभ
एवम्
आक्रोश....

गुंजरित कर
उदघोष
"बुद्धं शरणम गच्छामि"
हो गये थे
दीक्षित
बन कर
भिक्षुक,
माँ और पुत्र
और
घटित हुआ था
"धम्मं शरणं गच्छामि "
"संघं शरणं
गच्छामि"



(नायेदा आपा को समर्पित)

Monday, May 24, 2010

निशान...

# # #
चींटी
और
चिड़ियाँ
पहुँच जाते हैं
बखूबी
वापस
हर शाम
अपने अपने
बिल या
घोंसले को
बीताकर
झेलकर
दिन भर की
ज़द्दोज़हद...

कौनसे
निशान
और
पहचान है
ऐसे
जो नहीं
देते
भूलना
रास्ता
उनके
घरौंदों का...?

प्रेम !
ममता !
जागरूकता !

झूठ और सच ...

बीज झूठ के
अनायास ही
बोये जातें हैं
और
बिना सींचे
बन जाते हैं
फसल....

नहीं
उगा सकते
सच के हीरे को
अमृत से
सींच
कर भी.....

Sunday, May 23, 2010

समदर्शी...

शजर
देता है
छांव
दोनों को,
एक है
सींचने वाला
दूसरा
काटने वाला,
कोई
फर्क नहीं
उसकी दृष्टि में
तभी तो है
वह
समदर्शी,
एक सी
नज़र वाला...

Saturday, May 22, 2010

उंचाईयों की अन्धी आकांक्षाएं...

भर जाता है
मन
कूट कूट कर
जब पाने
कुछ ऐसी
उंचाईयां
जो लगने
लगती है
उद्देश्य
जीवन की...

तीव्रता
अन्धी
आकांक्षाऑं की
होती है
जितनी
प्रखर,
होता है
उतना ही
तीव्र

विध्वंस
अनुभूतियों का
संवेदनाओं का....

पहना के
वस्त्र
शब्दों के
करते हैं
प्रस्तुत
अपनी
उपलब्धियां,
कोलाहल में
दब जाती है
वे सारी
हिंसा-प्रतिहिंसायें
जो हुई थी
जाने-अनजाने
हम से
इस पाने के
अभियान ,
और पुनः सर
उठा लेती है
आत्म प्रशंसा के
संगान में..

Friday, May 21, 2010

सुई और धागा..

देखो ना
चालाक
कितनी है
यह सुई...

निकल गयी
खुद
हो गयी आज़ाद
और
फंसा गयी
धागे निरीह को...

कैसी है यह यारी
कैसी दयानतदारी
कैसी साहूकारी...

अवसर

# # #
"मत इतरा
ऐ गर्वीली
पूनम !"
कहा
दीवट पर
आरुढ़
दीपक ने --
कर ले तू
तनिक
ख़याल
इस बात का..

देख लेना
होगा आरम्भ
कल से ही
तुम्हारे
सिरमौर
चन्द्रमा के
अपकर्ष का
एवम्
प्रारंभ
मेरी
कुम्ह्लायाई सी
ज्योति के
विकास का...

शनै शनै
चली आएगी
मेरी सखी
अमावस्या
एवम्
बन जाऊँगा
मैं भी
आलोक पुरुष
इस
तम-ग्रसित
धरा का…

दंभ ना कर
स्वयं की
स्थिति का
देता है
समय
बलवान
अवसर
सबको
स्वयं
आलोकित
होने का…

Thursday, May 20, 2010

जीवन रस....

# # #
पुष्प
और
कंटक,
प्रवाहित
दोनों में
एक ही
जीवन रस
पौधे का,
रचना
भिन्न
यद्यपि
फूल की ...
शूल की...

विखंडित बुद्धि
मानव की
नहीं देख पाती
समग्र रूप
सत्य का,
भेद-विभेद
करना
स्वभाव
जो है
मानव
मस्तिष्क का.....

आईने की तरहा...

ऐ मौलवी!
ऐ पंडित
ऐ पादरी !

मुझको
बताना
मत
लिखा क्या है
तुम्हारी
किताबों में,
लगते हो
तुम सब
मुझे
सिखाये हुए
रट्टू तोतों की
तरहा...

मिलूंगी
मौत से
मैं
औरों की तरहा
और
लगाउंगी गले
जिंदगी को
बस
अपनी ही
तरहा....

लेना क्या है
मुझे
औरों की
नज़रों से,
दिल मेरा है
साफ़ है
आईने की
तरहा.....

Wednesday, May 19, 2010

एहसास का सफ़र...

काफिया
रदीफ़
बहर
मक्ता
मतला
सब ज़रिये हैं
इज़हार-ओं-बयाँ के...

एहसास के
सफ़र का
आगाज़
होता है
ख़ामोशी के
बियाबां से...

शम्मा हूँ मैं दुनिया की तेरी....

# # #
शम्मा हूँ मैं
दुनिया की तेरी,
अनदेखी सी
दिन में
और
रातों को
रोशन करने
जलती हुई
पल पल...

नज़रों में तेरी
होती है
हिकारत
दिन के
उजाले में,
रातों के
अँधेरे में
मगर
बह जाती है
क्यूँ
वह
गल गल ?

Tuesday, May 18, 2010

खामोश दुआ...

खामोश
दुआ
बहोत
जल्द
पहुंचती है
खुदा तक ,
लफ़्ज़ों के
बोझ से
आजाद जो
होती है....

फर्क....

आशियाँ और
क़फ़स में
बस फर्क है
इतना
बनाया
तू ने है
उसको
बनाया
उसको
है
गैरों ने......

Monday, May 17, 2010

ऐ इश्क !

ऐ इश्क !
कैसी है यह
फ़ित्रत तेरी
परिपाटी है कि
कुदरत तेरी
एक सिसकता है
दूजा गाता है.

गर्वोन्मत चपल शाखें
हंसती है
फूलों को जमी पे
गिरा कर,
धुनता है भंवर
सर अपना
इतराते हैं
क्यूँ गुलाब
खुद को काँटों में
खिला कर.

उन्मत चकोर
खोता है चेतन्य
मधुर
मिलन की
अनजानी आस में
क्यूँ तरसाता है
खुदगर्ज़ चाँद
बावरा बन
अपने ही
मृदु हास में.

जल जाता है
परवाना थिरकते
रोशन शम्मा पर
वफ़ा की लम्बी
राहों में
क्यूँ कर देती है जुदा
ये डाली
फलों को
होते हैं जो
जकड़े उसकी बाँहों में.

ऐ इश्क !
कैसी है
यह फ़ित्रत तेरी
परिपाटी कि
कुदरत तेरी
एक मिटता है
दूजा मुस्कुराता है.

ज़हर...

फूंक कर
कोई मंतर
ज़हर
मिटानेवाले
हो सकते हैं
कहानी
माजी की
तसव्वुर की
अंधे यकीन की,
मगर
लफ़्ज़ों से
ज़हर
फैलानेवाले
हकीक़त है
हाल की
आज की
और
अब की...

सत्य शरीर का...

# # #
शरीर
नहीं
समझता
भाषा
आशा और
निराशा की,
बुद्धि और
विवेक की,
पाप और
पुण्य की,
करणीय और
अकरणीय की,
वह तो
सुनता है और
पहचानता है
केवल,
धड़कने
ह्रदय की...

तरह...

# # #
हो कर
माजी के
तजुर्बों से
परेशां,
दीये जा रहे हो
तरह
हाल को
बेहिसाब;
खुदा ना करे
हौसला भी
ना रहे
जीने का
अनजाने
आइन्दा के
खातिर......

(माजी=भूतकाल, तरह =नींव/पाया/foundation/base, हाल=वर्तमान, आइन्दा=भविष्य)

Sunday, May 16, 2010

अंजाम

यह तेरे शगूफे
यह कहकहे
दिखावा है
महज़
जैसे
इनको सुन
मेरा हँसना
और
मुस्कुराना…

इश्क
जरिया नहीं
वक़्त बिताने का,
मोहब्बत
फितरत है
इन्सान की
इन्सानियत से
जुड़ जाने की,
मत कर तू
तौहीन इसकी.

गर
तुझे
समझना है
मुझे
आ मेरे
करीब आ
बिन-बोले
मेरी आँखों में
झांक
जिनमे कुछ
अनकहे बोल
लहरा रहें हैं…….

ठहर
थोडा
चुप होकर
झांक तू
दिल खुद के भी
और
देख क्या
वहां भी
कोई दरिया
ऐसा ही
लहरा रहा है ?

जो कहना है
कह दे
लफ़्ज़ों से या
महज़ आँखों से
'हाँ' हो
या
'ना'
कहीं ना कहीं
इस जानलेवा
अफसाने को
लाना तो है
अंजाम तक...

Saturday, May 15, 2010

रचना और शब्द...

चुनने होते हैं

प्रत्येक रचना के

अनुरूप शब्द,

चुस्त

कसे हुए हों

उपनाह

मुस-मुस जायेंगे

सुकोमल पांव

घुट जायेगा

तन-मन,

ढीले होंगे यदि

पदत्राण

होगी स्थिति

डावांडोल,

नहीं बढ़ पाएंगे

कदम…..

जो जानते है

इस सच को

वो ही

उठाएंगे

यथोचित माप के संग

कागज़ और कलम……

(उपनाह/पदत्राण=जूते, shoes.)

जंग...

हकीक़तों से
कहीं ज्यादा
खतरनाक
हो गया है
हमारी
सोचों में
उमड़ता हुआ
जंग..

वुजूद की
हिफाज़त की
जद्दोजेहद में
ना जाने क्यूँ
भागे जा रहे हैं
हम
खिलाफ
वुजूद ही के,
लिए हुए
अपनी
खम-खयालियों को
संग...

जो थी ही नहीं....

मैंने व्यर्थ
गवांई है
उर्जा
अपनी
बस जानने में,
चीजें 'कैसी है?'
'किस तरहा है ?'
'क्यों है ?'
जब कि
अधिकंशातः
वे थी ही नहीं.

सवेरे सवेरे...

दादाजान के एक भाई जिन्हें हम दद्दू कहते बहुत ही रईस ठाकुर साहब थे, बिलकुल 'आला दौला मस्तमौला' स्टाइल, इश्क में नाकामयाब रहे थे ऐसा दबी जुबाँ से माजीसा (अम्मीजान) से सुना था. शराब, सुंदरी और संगीत में रूचि रखने लगे थे. बहुत ही सौन्दर्य-प्रेमी और नेक बन्दे थे...बिलकुल रूहानी तवियत के. हर चीज उम्दा होनी चाहिए, उनका शौक ही नहीं दीवानगी सी थी. बच्चों से बेहद प्यार करते थे. उनकी चर्चा करते हुए पलकें नम हो गयी है.... इज्ज़त के एहसास दिल में महसूस हो रहे हैं, उन्हें याद करते हुए. इन्सानियत उनके लिए धर्म था...बाकी सब सेकेंडरी. लोग उनको एक बिगड़े रईस के रूप में याद करते हैं, मगर मेरे लिए वे 'ईश्वरीय अंश' वाले इंसान थे....मुहब्बत और पाकीज़गी की एक जिन्दा मिसाल..बहुत दयालु और कोमल दिल वाले थे दद्दू. शायरी और मोसिकी के बहुत बड़े शौक़ीन थे...मल्लिका पुखराज की गायकी उन्हें बहुत पसंद थी. उनकी गायी एक ग़ज़ल अक्सर वे ग्रामोफोन पर बजाते थे--"अरे मेगुसारो सवेरे सवेरे" हालाँकि मेरी उर्दू पर पकड़ बहुत कमज़ोर थी और है...इसलिए उस वक़्त ग़ज़ल के मायने नहीं समझ पाती थी, मगर धुन, गाने का अंदाज़ और दिलकश आवाज़ मोहित कर देती थी. आज उसी तर्ज़ पर एक ग़ज़ल कह रही हूँ...आपका स्नेह चाहती हूँ.

# # #

दर पे वो आया सवेरे सवेरे
उजालों को लाया सवेरे सवेरे.

करवटों में बीती रातें हमारी
हमें नींद आई सवेरे सवेरे.

मावस की बातें पुरानी हुई है
रोशनी झिलमिलाई सवेरे सवेरे.

अश्क मेरे देखो थम से गये हैं
हंसी फूट आई सवेरे सवेरे.

हिज्र वस्ल सारे भुला से गये हैं
खुदा याद आया सवेरे सवेरे.

मंदिर में ना वो, काबे में ना है
दिलों को टटोलो सवेरे सवेरे.

जैसे हो तुम वैसा देखो दिगर को
मोहब्बतें लुटाओ सवेरे सवेरे.

Friday, May 14, 2010

परे मानकों से...

नर और नारी के मध्य
होता है
कुछ ऐसा
जिसे नहीं
कर पाती
अनुभव
पांचो इन्द्रियां...

श्रुत है
किन्तु मौन,
सुंगंध और
स्वाद है
शून्य का,
स्पर्श है
निराकार का,
अदृश्य है
नयनो से,
अपरिमेय है
उसकी उच्चता
विस्तार,
गहनता एवम्
तौल,
शब्दों से
अभिव्यक्त है
किंचित
तथापि नहीं है
वो मेय...

देय है किन्तु
अर्जन नहीं,
प्राप्य है
आदान नहीं
घटित है
हमारे हेतु
हमारे साथ
हमारे प्रति
किन्तु फिर भी
नहीं ढूंढ पाते
इसको...

जिसे पाया
नहीं जाता
उसे खोया भी
नहीं जाता
जो नहीं है मापनीय
होता है वो
परे मापदंडों से
परे मानकों से...

Thursday, May 13, 2010

अलख की पहचान...

# # # #

बात
गहरी है
अभेद की
सरल है
करते जाना
व्याख्या
प्रत्येक
भेद की......

अलख की
हो गयी है
जब से
पहचान
मुझ को,
ना रहा
तंगदिल
रिश्तों के
निभाव का
अरमान
मुझको....

बेरख्त ग़ज़ल......

# # #

बेरख्त ग़ज़ल उनकी सुने जा रहे थे हम
एहसां हुज़ूर आपके गिने जा रहे थे हम.

विज्दां हमारी का हुआ हस्र इस तरहा
अशआर उनके ही गुनगुना रहे थे हम.

कहतें है कलम पर हुकूमत नहीं चलती
क्यूँ फिर गुलाम उनके हुए जा रहे थे हम.

अच्छा हुआ जो आपने आईना दिखा दिया
तस्वीर एक पुरानी रखे जा रहे थे हम.

फुर्सत में गर आते तो सुनते भी 'महक' को
अपनी ही शोखियों पे मरे जा रहे थे हम.

(बेरख्त=बेतुका/बेमेल, विज्दां=काव्य रसज्ञता, शोखी=मनमौजीपन, जिंदादिली, चंचलता)

Wednesday, May 12, 2010

अदीब...

# # #
सिर्फ
साँसे लेने
का
नाम तो
जीना
नहीं,
सोचो
किया है कभी
कोई
अर्थपूर्ण काम
मिली है
जिस से
औरों को
प्रेरणा
सुख़
चैन
आराम...

तुम से तो
अच्छी है
मुर्दा चमड़ी
धौंकनी की,
जो लेकर साँसे
फूंकती है
कोमलता
लोह में,
जो सहता है
चोटें,
बनने
कुश हल की,
चीरने
सीना जमीं का,
बोने को बीज,
लहलहाए
फसलें हरित
जिस से ....

बनने
खुरपी
जो करे
निराई
हटाने
झाड़ झंकाड़
लहलहाते
खेतों से
पनप सके
ताकि
पौधे जो देंगे
सोने सा अन्न....

बनने
फावड़े
करनी,
जो बनायेंगे
घर,
रहेंगे जिसमें
हम और तुम...

बनने
शमशीर
जो हराएगी
दुश्मन को
मैदान-ए-जंग में....

तुम्हारी यह
साँसे
तुम्हारे ये
अलफ़ाज़
जगाये
जहाँ को,
कहलाओगे
तभी तुम
एक जिंदा इन्सां...
एक सच्चे अदीब..

मैं क्या चाहती हूँ............

# # # # # # #

समझना तुझे है मैं क्या चाहती हूँ
मुझे पूछते हो मैं क्या चाहती हूँ.

छुए बदन जो खिला दे फिजा को
हवाओं से पूछो मैं क्या चाहती हूँ.

कल कल के नगमे सुनाती जो जाये
नदिया से पूछो मैं क्या चाहती हूँ.

सितारों की महफ़िल सजाती जो दिल से
रातों से तो पूछो मैं क्या चाहती हूँ .

अरमां जगा दे जो तड़फती जमीं में
बारिशों से पूछो मैं क्या चाहती हूँ.

नज़रें बनी है अमानत खुदा की
नजारों से पूछो मैं क्या चाहती हूँ.

दिल में बसे हो तो रहो वहां हर दम
जहाँ को ना पूछो मैं क्या चाहती हूँ.

एहसासे रूह को कहा नहीं जाता
किताबों से ना पूछो मैं क्या चाहती हूँ.

गुलशन में आये हो ठहर जाओ दम भर
'महक' से तो पूछो मैं क्या चाहती हूँ...

Tuesday, May 11, 2010

ज्योति....

# # #
ज्योति
मलिन
होती नहीं
प्रमाण
सूर्य
साक्षात,
उज्जवल होती
रहे सतत
ज्यों गहराए
रात.....

Monday, May 10, 2010

बिगड़ी औलाद...

# # #
नहीं है
कोई रिश्ता
आँख की बेटी
नज़र का
जुबाँ की
बिगड़ी औलाद
झूठ से...

यह पाजी
लड़की झूठ
होठों के
पायदानों से
उतर कर
चुपके से
पहुँच जाती है
जानिब
कच्चे कानों के,
ढुल मुल
शख्सियत वाले
ये दो लफंगे,
टरका देते हैं उसे
आगे से आगे,
और
खाख छान कर
पहुँच जाती है
रोते झींकते
फिर वहीँ,
हुयी थी
शुरु
जहाँ से...

Sunday, May 9, 2010

परिचय...

# # #
समझा दिया
दृष्टी की
थकन ने,
है व्यर्थ
परिचय की
बातें,
तृष्णा निगौड़ी
कटने नहीं देती
पलकों की लम्बी
रातें...

Saturday, May 8, 2010

धौंसबाज़

# # #
कैसा धौंसबाज़
आन बैठा है
भीतर मेरे
सिद्धांतों और
नियमों के
नाम पर
सदैव
जमाता रहता है
धौंस,
करता है
सब कुछ
बहुत
विवेक से
,
जताता है
अफ़सोस भी कि
व्यथित होते हैं
दूसरे
इस से
मगर ;
"क्या करूँ
मैं ?'


मेरे अंतर का
यह हिस्सा
कायर है
छुपा लेता है
"जो सही है" को
ताकि मुझे
नहीं स्वीकारना पड़े
कि
मैं दूसरों को
पीड़ित करने की
रखती हूँ
गहरी इच्छा...

(धौंसबाज़=गुंडा/रंगबाज)

(Inspired by a philosophical article by an American Writer)

रिझ्यो छैलो....

# # #
दर्पण देखतो
रीझ्यो छैलो ,
पगड़ी पेंच
संवारे रे,
छिण आई थी
तिलक लगाणे,
देर हुंवती
अणहुन्ती,
पाछी फीरी
दुआरे रे....

____________________________________________________

शब्दार्थ : रिझ्यो=रीझा/खुश हुआ , छैला=बांका मर्द, छिण =क्षण,हुंवती=होते हुए, अणहुन्ती=बेजा/जो नहीं होनी चाहिए, पाछी फिरी=पलट गयी/लौट गयी,दुआरे=द्वारे,

(रईस मर्द आईना देखते देखते अपनी पगड़ी के पेंच सँवारने में लगा रहा , अनुकूल क्षण का आगमन हुआ इस उद्देश्य के साथ कि उसके भाल पर विजय तिलक लगाये, किन्तु फजूल की देर होती देख वह वापस दरवाजे से लौट गयी..अर्थात हम व्यस्त हो जाते हैं निरर्थक कार्य कलापों में और सफलता के लम्हे गुजर जाते हैं/लोट जाते हैं...यह 'नेनो' राजस्थानी और साधुक्कड़ी भाषा का मिला जुला प्रयास है.)

This can be extended as a beautiful prabhaati..

Thursday, May 6, 2010

पहचान....

# # #
बीजने से
गौहर को,
फसल
नहीं होती,
पहचान
माटी की में,
सहव
सहल
नहीं होती....

(गौहर=मोती/pearl , सहव=भूल-चूक/mistake , सहल=सरल/easy )

जुनूँ है....( एक फास्ट ट्रेक नगमा)

जुनूँ है,
जुनूँ है
जुनूँ है…………..

मेरा चेहरा ना देख
उस पर पहरा ना देख
तू आईने को ना देख
मेरी नज़रों में देख !! ( जुनूँ है..)

गहरी साँसे ना देख
झूठी आसा ना देख
मेरा माजी ना देख
मेरी नज़रों में देख ! ! (जुनूँ है ...)

अदा-ए-साकी ना देख
छलकते सागर ना देख
रंग-ए-मय को ना देख
मेरी नज़रों में देख !! (जुनूँ है...)

ये सितारे ना देख
ये नज़ारे ना देख
तू शरारे ना देख
मेरी नज़रों में देख !! (जुनूं है....)

समंदर ना देख
तू कनारे ना देख
डूबने को तू देख
मेरी नज़रों में देख !! (जुनूं है...)

तू मुझ को ना देख
तू खुद को ना देख
खल्वत-जल्वत ना देख
मेरी नज़रों में देख !! (जूनूं है..)

हल्का-ए-तस्बीह ना देख
फंदा-ए-जुन्नर ना देख
शेखो बहमन ना देख
मेरी नज़रों में देख !! (जूनूं है ...)


(माजी= भूतकाल. खल्वत=एकांत. जल्वत=भीड़. हल्का= फांस, फंदा, परिधि. तस्बीह=जप-माला. जुन्नर=जनेऊ/यज्ञोपवित. शरारा=चिंगारी.)

Wednesday, May 5, 2010

दर्द को क्या जाने.

सागर खुद में मस्त रहे
बूंद बेचारी पस्त रहे
दरिया को समा लेनेवाला
बूंद के दर्द को क्या जाने.

छलके पैमाना महफ़िल में
साकी के बसता है दिल में
नशा समाये है खुद में
रिंद के दर्द को क्या जाने.

मरघट का रखवाला है
मुर्दों में बसनेवाला है
रोज़ी मय्यत की खानेवाला
जिन्द के दर्द को क्या जाने.

पैगामे मोहब्बत देता है
जागे में सपने लेता है
हर कली को बहकानेवाला
खाविंद के दर्द को क्या जाने.

हर वक़्त गाफिल खुदगर्ज़ी में
दिन रात डूबा मन-मर्ज़ी में
उल्लू कि तरहा जगनेवाला
नींद के दर्द को क्या जाने.

जुरमी हो आँख दिखता है
हर सहर बयां बदलता है
दहशतगर्दी का कारीगर
हिंद के दर्द को क्या जाने.

खींचतान....

# # #
बढे
अगन
गगन की
ओर,
बहे
नीर
संग संग
ढलान के,
नहीं
हो सकता
जगत
स्थिर ,
बिना
इस
खींचतान के ...

(मेरी अधिकांश प्रयास प्रेरित है राजपूताना की माटी की बुधिमत्तापूर्ण बातों से)

Tuesday, May 4, 2010

अपना है ना पराया है………

# # #
हुआ था जो
हासिल
ख्वाबों में
उसे हम ने
हकीकतों में
गंवाया है…..

ना छेड़ो
तराना-ए-इश्क
मेरे महबूब !
दर्द को
हम ने
अभी
थपकियाँ दे
सुलाया है…….

तुम आये हो
तवस्सुम है
लबों पे मेरे
यह वह
फूल है
जो तेरी
जुदाई ने
खिलाया है…..

ठोकरें खाई है
खूब हमने
ज़माने में
बचना
इन से हमें
जिंदगानी ने
सिखाया है……..

खेलते है
दिलों से
हर इन्सां,
समझो
‘महक’,
कोई
यहाँ
अपना है ना
पराया है………

रात-गुलशन.....

# # #
बागबान
चंदा भयो
खिलौ
गुलशन
रातो-रात,
फूल सितारे
कुचल गये,
आयो
सूरज सांड
परभात...

Monday, May 3, 2010

कैसा सवाल आया है.....

# # #

न जाने आज यह कैसा सवाल आया है
बिन बुलाये मेरे दर पर वबाल आया है.


चैन से गुज़रे जा रहे थे दिन-ओ-रात अपने
ख़ुशी के नकाब में कैसा मलाल आया है.


खुद को देंगे सजा जुर्म किया था उस ने
न जाने दिल में मेरे कैसा खयाल आया है.


हर्फ़-ए-शिकायत का किया ना इज़हार कभी
निगाह-ए-यार में क्यूँ रंग-ए-जलाल आया है.


छूटा था हाथ..टूटा था साथ उसका.. उस-से
देखा किया था उसको कैसा बहाल आया है.


(वबाल=संकट, मलाल=दुःख, नकाब=पर्दा
रंग-ए-जलाल=क्रोध का रंग, बहाल=पूर्ववत)

धनपति कौन ?

# # #
सोने सा
सूरज भी
उसका,
है चांदी सा
चंदा,
रतनों से
नक्षत्र
सुहाने,
वो
कौन है
धनपति
बन्दा ?

Sunday, May 2, 2010

एक ही धर्म-स्वभाव

# # #
अग्नि उष्ण
शीतल तुषार
पर
एक ही
धर्म स्वभाव,
तरु को
शुष्क
बना देता
दोनों का
प्रभाव...

अक्स....(आशु रचना)

# # #
आईने के
अक्स से
लड़ कर
जख्मी
हो गयी हूँ
मैं,
किया है
वार जिसने
मरहम
लगा रहा है...

फूलों में महक बाकी है.

# # #
रुक जाओ ऐ जानेजिगर,गुलशन में चहक बाकी है
दूरियां क्यों बढ़ाते हो यूँ, फूलों में महक बाकी है.

लड्खाये मेरे कदमों की देते हैं
कसम तुझको
पिलाई तूने आँखों से,उस मय की बहक बाकी है.

बहोत देखें है इसरार.. मोहब्बत में हम ने भी
किताबे जिंदगी का, आखरी तो सबक बाकी है।

हिजाब में रहा कैद
हुस्न किसी का तो हुआ क्या
देखा था कभी मंज़र, उसकी तो झलक बाकी है.

प्यासे रहे शब-ओ-दिन, या रब 'महक' हम भी
चौट खाई थी जो दिल पे,उसकी तो कसक बाकी है.

Saturday, May 1, 2010

नभ और सागर

# # #
नभ
दृष्टव्य
एकल हमें,
पर
अणु प्रत्येक
आकाश,
सागर
निज में
एक नहीं
बूंदों का
सहवास...