Wednesday, December 29, 2010

पतन...

# # #
हुआ था पतन
राजा रावण
शक्तिशाली का
अतिशय दर्प से,
दुर्योधन
योद्धा बलशाली का
अतिशय लोभ
एवम्
ईर्ष्या से,
राजा बाली का
अतिशय दान से
उत्पन्न
अहंकार अति से...

चारित्रिक विकार त्रय
लोभ,क्रोध एवम् मद,
चढ़ा देते हैं
रंगीन ऐनक
आँखों पर,
देखने लगता है
मनुज
जिस से
व्यक्तियों,
घटनाओं एवम्
संबंधों को
उन्ही रंगों में..

मानव मन
हो जाता है
सम्मोहित
एवम्
जाता है
भटक
नकाराताम्क
मृग मरीचिका में
जिससे होना
विमुक्त
हो जाता है
लगभग
असंभव..

(गीता में वर्णित 'रजोगुण' के निर्वचन पर आधारित एक दार्शनिक वार्ता से प्रेरित)

Sunday, December 26, 2010

मान्यताएं और सत्य....

बिना सोचे समझे बरसों तक मानते रहे हम कि धरती चपटी है....सूरज धरती के चारों तरफ चक्कर लगाता है...सूरज आता है उगने के लिए और चाँद भी... इत्यादि. हमारे धर्म ग्रंथों में भी ऐसी ही बातें कही गयी है. कोई चार दशक पहले तो इन बातों पर गरमा गरम बहस होती थी. मज़े की बात यह है कि इन सब बातों के बेसिक्स पर लगभग सभी धर्मों की आम सहमति थी. उपग्रहों, राकेटों, अन्तरिक्ष यात्रियों ने आँखों देखा हाल बता दिया, तस्वीरों में कैद भी कर दिया, लगभग चुप्पी हो गयी, मगर आज भी गाहे बगाहे मिल ही जाते हैं लोग जो साबित करते हैं कि धरती चपटी है वगैरह, बड़े जिद्द के साथ. तरह तरह के प्रमाण भी देते हैं, कोई चुप रहे तो उसकी हार की मुनादी कर सुख़ भी पा लेते हैं ऐसे लोग. क्या किया जाय ?

# # #
देखा गगन है निराकार
किन्तु
रोपे खूंटे मानव ने
करने दिशाओं की सृष्टि,
होता नहीं कभी भी
उदय या अस्त सूर्य,
परन्तु
नहीं स्वीकारती
सटीक सत्य को
जुडी प्रत्यक्ष से,
खंडित मानव दृष्टि..

होते नहीं कभी भी
समय के कालखंड :
भूत अथवा भविष्य,
होता है शास्वत
वर्तमान मात्र
है वस्तुतः
यही रहस्य..

आदी है मानव
समय को करने
परिभाषित
घटनाओं से,
करता है सञ्चालन
समूह का वह
असंगत
भ्रमपूर्ण
वर्जनाओं से..

Saturday, December 18, 2010

चन्द सौरठे

चन्द सौरठे

(चूँकि इस विधा में मेरा यह प्रथम प्रयास है, भाषा राजस्थानी ब्रज मिश्रित साधुक्कड़ी अपनाई है. तकनीकी भूल होना स्वाभाविक है, सुधिजन जिनको इस विधा की जानकारी है कृपया तकनीकी गलतियां पॉइंट आउट करें और उनके सुधार के लिए सुझाव दे सकें तो मेहरबानी होगी, सादर ! ----महक अब्दुल्लाह खान.)

किसकी जाणू जात, किण किण री सेवा करूँ,
बस थांरो मानूं साथ, जग महकूँ मैं फूल सी.

(किसके बारे में दरयाफ्त करूँ और किस किस की खिदमत करूँ, हे अल्लाह बस तेरा ही साथ मानती हूँ, इसीलिए इस कायनात में फूल के समान महकती हूँ.)
****
करता तणा संसार, माणस थारो-म्हारो करे,
पड़े बगत की मार, जोग जोड़े करतार स्यूं.

(प्रभु की दुनिया है यहाँ, फिर भी मनुष्य 'मेरा है- तेरा है' करता रहता है (भूल कर उसको), जब वक़्त की मार पड़ती है तो इंसान भगवान् से नाता जोड़ने लगता है.)

आखर पढ़ कर दोय, बात करे कुरआन की,
भीतर भीतर रोय, लाल बुझक्कड़ मौलवी.

(दो अक्षर क्या पढ़ लिए मौलवी कुरआन की बातें करने लगा, चूँकि उसे पूरा ज्ञान नहीं इसलिए अन्दर अन्दर रोता है वह तुक्केबाज़ मौलवी.)

गाँठयो हल्दी सूंठ, नांव पंसारी धर दियो,
बिना अक्ल रो ऊंट, पंडत कुहावे खोड़ में.

(हल्दी और सौंठ की चन्द गांठे लेकर बन्दा बैठ गया बाज़ार में और अपने को पंसारी कहने के लिए इन्सिस्ट करने लगा, जैसे की अविकसित इलाके में बेअक्ल सा बरहमन भी पंडित कहलाता है.)

कदमां में अगन जले, धुंवों भयो घणघोर,
रगड़ रगड़ आंख्यां मले,लपट उठी है डूंगरा.

(कदमों के करीब आग लगी हुई है, धुंआ है चारों जानिब, आँखे मल मल कर कोई मूर्ख इंसान पहाड़ पर उठी लपट को निहार रहा है.)

Friday, December 17, 2010

प्रेम : नायेदा आपा रचित

# # #

# # #
होता है प्रेम
कितना
सप्रहणीय..

होते हैं प्रतीत
कष्ट भी
सुखद,
प्राप्य होता
परित्याग में भी
आनंद,
और होती है
वांछा
समर्पण सर्वस्व की...

होते हैं जब
गुंजरित
संस्वर
द्वि-प्राणों के,
होते हैं प्रस्फुटित
पुष्प
ललित कलाओं के....

प्रीति के
मनोरम क्षणों में
हुआ था घटित
जन्म सृष्टि का,
उदगम रागों का,
उत्पति सौंदर्य की,
प्राकट्य शक्ति का
एवम् एक्य
प्रकृति
और पुरुष का...

Monday, December 13, 2010

चन्द दूहे :

# # #

दुई मिल दुनिया ये बनी दुई को मत तू भूल
बदली हवा है वक़्त की अरु बने नये उसूल.

नौ मासन अवधि बड़ी, रह्यो गर्भ में गोय
बिना मात पैदा भयो तब तू स्वयंभू होय.

बदर गयो है जुग जगत को काहे मचाये शोर
कर इज्ज़त तू नारी की समझही अपनी ठौर.

आधी दुनिया कहि कहि कब सौं तू चिल्लाय
हक़ की बतियाँ ज्यों उठे भैंसों सम पंगुराय.

दिन लद गये बल-बाहु के जब से बनी मशीन
मर्द गर्द चाटत रहे जब महिला बनी प्रवीन.

Sunday, December 12, 2010

दर्पण : अंकित भाई रचित

# # #
जीवनहमारा है
एक दर्पण,
निशि-दिन हम
जमने देतें है धूल
इस उजले दर्पण पर;
नहीं करते कभी
प्रयास
हठाने का उसको
और
हो जाता है दर्पण
अंधा,
होतें है जब जब हम
सामने दर्पण के,
कोई और तो क्या
देख नहीं पाते
स्वयं हम
पूर्ण प्रतिबिम्ब अपना...

जब भी हम
सोचें औरों को,
और करें
व्यर्थ और भौंडी
आलोचना उनकी,
ठहरें तनिक
और करें पूर्व उसके
सामना
उजले दर्पण का...

दर्पण
मिथ्या ना बोलेगा
जैसा है
वैसा ही
भेद वह
खोलेगा,
आओ
अपने मन को हम
दर्पण बनायें,
भले बुरे
सारे कर्मों को
देखें और
दिखायें...

Thursday, December 9, 2010

काला और गौरा : नायेदा आपा की रचना

# # #

बढ़ गया हो आगे
इन्सान कितना ही,
कायम है उसमें
जड़ताएं और
नफरतें ,
पैमाने वही है
मापने के....

प्रभावित हैं
हम
भी कि
गौरा अभिनेता
'ह्यू ग्रांट' करता है
महसूस ‘थ्रिल’
नीग्रो कॉल-गर्ल के
साथ यौनाचार में,
गौरों की देखादेखी
चाहे अमेरिका हो
या यूरोप
हम भी अपना रहेँ है
सौंदर्य के
प्रतिमान उनके
मान्यताएं उनकी
‘तकनीक’ उनकी...

हमारे
दिल-ओ-जेहन में
भरा है
कूट कूट कर,
शख्सियत गौरी ही
होती है
काली कलूटी शक्ल से
बेहतर,
भूल जातें हैं
हम अपने
श्याम सलौने को
और
बाज़ार संस्कृति के
अन्धानुकरण में
खो जाते हैं
विज्ञापनों की
दुनियां में,
या होतें है शिकार
इस मनोवृति को
‘एनकैश’ करने वाले
बाजारी बहुरूपियों से....

कालों के प्रति
अपना रहें है
हम भी हिकारत,
न जाने क्यों
सींच रहे हैं
हम
अपने ही खातिर
नफरत..

अपना रहें है,
गुडिया उनकी
गौरी-चिठ्ठी,
सींक की तरहा
दुबली-पतली
सुनहले बालों वाली,
'बार्बी'
जो बन चुकी है ‘बेंचमार्क’
हमारे नारी सौंदर्य का.
भूल कर
खुजुराहो,अजंता, एलोरा,
भुवनेश्वर, कर्नाटक आदि में
अंकित,
भारतीय सौंदर्य को....

बनाई थी
'बार्बी' बनाने वालों ने
हमारे लिए भी
काली 'बार्बी',
बिकी नाहीं थी जो ---
हम कालों के देश में भी
और
बदलनी पड़ी थी
उत्पादक को भी
विपणन नीति (मार्केटिंग स्ट्रेटेजी),
जम गयी है जड़ों तक
हम में
दुर्भीती (फोबिया) गौरेपन की,
मिलता नहीं किसी भी
वैवाहिक विज्ञापन में
काली लड़की का उल्लेख
चाहिए सब को
सिर्फ गौर-वर्णा...

उत्पादक और विज्ञापन
उकसा रहे हैं
इस हीन ग्रंथि को,
भूल रहें है हम
और दे रहें है बढ़ावा
रंग भेद और नस्लवाद को,
बापू के आंदलनों की
हुई थी शुरुआत
जिसके लिए
दक्षिण अफ्रीका में,
दिया था जन्म जिसने
सत्याग्रह को,
गाँधी,
सत्याग्रह
और
आज़ादी हमारी....

अपसंस्कृति
बाजारवाद
की
भुला रही है हमारे
मिटटी के खिलौनों को,
वो मिटटी के लौंधे
और
उनसे बने
हाथी,घोड़े और गुडिया,
लकड़ी का घोड़ा
और कपडे की गुडिया,
दिए जा रहें हैं हम ही
हमारी पौध को
हत्यारे,हिंसक और
प्रतिस्पर्द्धी
खेल खिलौने,
चाहे ‘मिस यूनिवर्स' का हो खेल,
गेम 'AK 56 का
या
खेला रसिंग कोर्स का...

हमें चाहिए
आर्थिक बदलाव
और
सोचों में पश्चिम की
स्पष्टता और ‘फेयरनेस',
ना कि
अपसंस्कृति,
कालेपन से ‘फेयरनेस'
और अपने बच्चों में
हिंसा, प्रतिहिंसा और
भयावह प्रतिस्पर्द्धा के
संस्कार……

वक़्त है अब भी की
हम जागें
और
अपने भारत के लिए
एक आदर्श
प्रारूप बनायें....