Thursday, March 31, 2011

आखरी सांस...

# # #
आखरी
सांस,
मिट गयी
आस,
रूह उड़ी
देह अकड़ी,
अगन ने
पकड़ी,
चन्दन की
लकड़ी...

(मधुरिमा बाईसा को महक की भेंट)

Wednesday, March 30, 2011

खेल अपरिचय का...

# # #
छीलते काटते
चेहरों पर
आच्छादित
अनजानेपन का
घास,
दोस्त मेरी ये
पैनी आँखे
घिस कर
हुई उदास...

रचा यह कैसा
खेल
अपरिचय का
लिए हास प्रहास,
कहता है अब
मैं कौन ?
कौन है तू ?
मेरा अपना सांस...

Tuesday, March 29, 2011

बंधा हुआ सच...

# # #
आता है
जब सच
कसमों से
बन्ध कर,
हो जाता है
वो
मालिक से
नौकर...

Sunday, March 27, 2011

दर्पण का अजनबी प्रतिबिम्ब : नायेदा आपा

कैसी विडम्बना होती है जब व्यक्ति खुद को अपने ही घर में अजनबी महसूस करने लगता है.........ऐसी ही एक मित्र का मनोविश्लेषण करने का अवसर मिला......इस रचना के मध्यम से आपके साथ शेयर कर रही हूँ.
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# # #
मैंने देखा
उस दिन
दर्पण में
प्रतिबिम्ब
अपना
और
लगा था मुझको
हो गयी हूँ मैं
अजनबी
अपने घर में ही नहीं
खुद से भी,
जाना पहचाना सा था
वो चेहरा
मगर भाव थे
अपरिचित से...

हुआ था
क्योंकर ऐसा ?
मैंने निज के
अधूरेपन
और
खालीपन को
भरने के बजाय
प्यार से
मुझे भरपूर प्रेम
और सम्मान
देनेवाले के.
छेड़ी थी
मुहीम मैंने
उसको
विजित करने की
अनधिकृत
स्वामित्व के
संयोजन से...

किया था
दुष्प्रयास मैंने
बांधने का
उसको
अपने शासन की
कठोर डोर में,
किया था
हरण
मैंने
उसके स्वातंत्र्य का...

मुझे
नहीं करने दिया था
प्यार उसको
चाहते हुए भी,
मेरी हीन भावना
और
ईर्ष्या ने,
नहीं हुआ था
स्वीकार्य
मुझको
सह-अस्तित्व
उसका.....

बस रचते थे
चक्रव्यूह
दिन रात
सोच मेरे,
घेरा जिसका
कालांतर में
पड़ चुका था
इर्दगिर्द मेरे
और
मैं
चित्कार रही थी
निरीह सी
बचाओ मुझे !
मुझे बचाओ !

बच जातें है
हम दूसरों से
या
पाल लेते है भ्रम
बचने का,
परन्तु नहीं
पा सकते
निजात हम
स्वयं से....

अपराध बोध
बहेलिये सा
करता है
पीछा
होता है
नामुमकिन
छुपना खुद से
लाख छुपाने पर भी,
और
हो जातें है
शिकार
उस शय्याद के
खूनी पंजो के,
नोचता है
जो बाहिर से नहीं
भीतर से....

प्रारंभ
क्षमा करने का
कर सकें
हम

स्वयं से ही
करके क्षमा
स्वयं को
अपने गुनाहों के लिए
और
पा सकें
जीवन ऐसा
जिसमें हो
सुकून,
शांति,
मैत्री
और प्रेम,
आलोकित हो
हृदय हमारा
करुणा से....

Saturday, March 26, 2011

दमित भावनाएं : नायेदा आपा की रचना

In English language this is 'REPRESSION' or 'SUPRESSION'..........yah hota hai jaab durbhagyawas hum swayam ko tan aur man dono hi star par EXPRESS nahin kar pate.....karan hai hamari conditioning jo barson se hoti jati hai aas-pas ke dawab ke karan,ya hamari 'confused' sochon ke karan. ya inflated ego ke karan........ Repression vyakti ki bhasa aur vyvhar men jhalakne lagta hai. A repressed person becomes violent-to others or to oneself or to both.

# # #
दमित भावनाएं
हो नहीं सकती
मार्ग
कभी भी
जीने का,
वो है ही नहीं
मार्ग
कोई भी कत्तई...

चली जाती है
वे
अचेतन में,
करती रहती है
प्रतीक्षा
ना जाने
किस मुक्ति की
और
तनिक से
उकसाने से
हो जाती है
प्रकट
धर कर रूप
हिंसा,
इर्ष्या,
सस्ती कामुकता,
और
अवसाद का.....

दमित भावनाएं
देती है
ऐसा जीवन
जो नहीं चाहा गया था
कभी भी,
कराती है वे
कृत्य अनचाहे,
और
दिखाती है
राह
स्व-विनष्टिकरण की
एवम्
स्वयं को कुछ ऐसा
बना देने की
जो होता है
विरुद्ध
स्वसत्व के...

दमित भावनाएं
बना देती है
इन्सान को
अनजान
खुद से ही :
एक अजनबी
अपने ही घर में,
और
प्रवृत करती है
उसको
धीमे विषपान से
शनै शनै
किन्तु
निरंतर घटित
आत्महत्या के लिए,
बनाते हुए
जीने को
महज
प्रक्रिया सांस लेने की
अथवा
मानव के आवरण में
दानवीय
निष्पत्ति की..

दमित भावनाओं का
सकारात्मक
प्रकटीकरण
और
उनकी विवेकपूर्ण
रिहाई
खोलती है द्वार
स्वमुक्ति
करुणा
प्रेम के
और
सौहार्द के....

याद आ रहा है
सिगमंड फ्रायड का
मानना की
हिंसा-प्रतिहिंसा के
जड़ में है
दमित भावनाएं
दमित भावनाएं......

Friday, March 25, 2011

ए मेरे जाँबाज़ हमसफ़र ! : नायेदा आपा रचित

# # #

उड़ा कर
नींदें
खुद की,
कोमल
थपकियों से
सुला दूँ
तुझ को....

बिन छुए
तेरा जिस्म
सहला दूँ
प्यार भरी
नज़रों से
तुझ को....

पी कर
दर्द सारे तुम्हारे,
जनमों की
खुशियों से
संवार दूँ
तुझ को.....

तू मुस्कुराये
हरदम
सुकूं से,
पाने
इस मंजर को
लूटा दूँ मैं
खुदको....

ए मेरे
जांबाज़ हमसफ़र !
क्यों गये हो
तुम थक ,
हो जाये ना
मायूस
ये मंजिल कहीं,
देख कर
उदास
तुझको...

Thursday, March 24, 2011

घुटन और खुले दरीचे : नायेदा आपा

# # #

बाद आधी रात
जब भी
लड़खड़ाते कदमों से
दारू की बास
मुंह में लिए
लौट कर
लाल बत्ती इलाके से
आता था घर
और
कहता था :
“घुटन हो रही है-बदजात !
खोल दो दरीचा
ताकि
राहत दे
ताज़ा हवा.”

खोल कर
बंद खिड़की को
तकती थी
चाँद तारों को
सर-ए-दामन-ए-शब,
लगाती थी
लाल दवा
चोटों पर
जो नवाजी थी
उस ज़ालिम ने
और
सुना करती थी
उसके बरहना
खर्राटों को..

महसूस होती थी
घुटन
उस कफस में
उसको भी
जो ख़िताब था
उस हरीम का ही नहीं
उसकी
दस्त-ए-ग़म
जिन्दगी का भी,
नौहे उसके
जाग जाग कर
हो कर
निढाल

कशाकश-ए-मर्ग-ओ-जिंदगी से,
देते थे आवाज़
बार
बार:
आओ !
बचाओ मुझको
खिजां के बेमहर
तल्ख़ एहसास से ....

आया था
अचानक
कोई ऐसा
राहों में उसके
जिसे
आया था दिल
उसके
सोच,
अंदाज़
और
वुजूद पे,
दे रह था
सुकून
बन कर
शरीक-ए-ग़म-खुदाई
उसका...

उसकी चाहत
ले आई थी
बहार--गुल
सूखे बियावां
सहरा में,
बखेर रहे थे
खुशबुएँ अपनी
लाखों सुर्ख गुलाब...

लगने लगा था
उसको
किया है करम
खुदा ने
उस पर,
दिया है झोंका
ठंडी हवा का
खोलकर
बंद दरीचे
उसकी तंग जिंदगी के
और
दी है निजात
उस जानलेवा
घुटन
से.....

फिर एक दिन
वही सय्याद
ले आया था
संग अपने
‘समाज’
नाम के
बाहुबली को,
जो था अपाहिज़
और
चलता था
बैसाखियों पर....

कहलाती थी
मजहब
एक बैसाखी
जो देती थी
दुहाई
फ़र्ज़ की बार बार ,
नाम दूसरी का था
कानून जो
साबित करने
'होने' को
उसकी घुटन के
देता था सजा
बरसों की,

तरेरे लाल लाल आँखें
वो बाहुबली
कभी इस बैसाखी से
कभी उस बैसाखी से
चोट पहुंचाता था
उसको
और
करता था तकरीर
उसको
ताजिंदगी
मन्कूहा बने रहने की.....

बेगैरत,
बेवफा,
बेहया
न जाने क्या क्या
नामों से
जा रह था
पुकारा उसको,
जिसका असल
हकदार था
वो आदमी जो
खड़ा था
पकडे हुए हाथ
उस ‘समाज’ का
जो उस वक़्त
सोया हुआ था
नींद
गफलत की
घुट रह था
जब
उस बदबूदार
अँधेरी जिंदगी में
दम किसी का.....


सुर्खियाँ थी
अगले दिन के
अख़बार की :
‘नाजायज रिश्तों ने दो की जान ली.’
‘विवाहेतर सम्बन्ध-प्रेमियों की आत्महत्या'
‘लव ट्राएंगल: टू डेड' ....

‘समाज’ के इजारेदार
हो रहे थे
फिक्रमंद
सोसाइटीमें गिरती हुई
मोरल वल्युजके लिए,
और
वो दोनों
मोहब्बत करनेवाले
लिए हाथों में हाथ
एक दूजे का,
सांसों कि सांसत से
आज़ाद
सो रहे थे
बेखबर
एक नींद
लम्बी सी.....


करीब ही
बज रहा था
रेडियो पर
मल्लिका-ए-तरन्नुम
नूरजहाँ का नगमा
“खुदा खुद प्यार करता है
मुहब्बत इक इबादत है”

मायने:
दरीचा=Window. सर--दामन--शब=Last part of the night. बरहना=Naked. कफस=Cage. हारीम=Four Walls of a house.दस्तेगम=Jungle of sorrows. निढाल=Exhausted. खिजा=fall,patjhad. तल्ख़=Bitter.अंदाज़=Manners/Mannerism. वुजूद=Existence. शरीकेगम-खुदाई=Involved in the miseries of world. सुकून=Mental peace. बियाबां=Desert, Forest. सहरा=Desert.
बहरेगुल=Season of flowers. सुर्ख=Red. करम=Generosity. सय्याद=Hunter, Fowler.
बैसाखियाँ=Crutches. मजहब=Religion फ़र्ज़=Duty मनकूहा=Wife. अर्धांगिनी.
तकरीर=Speech. बेगैरत=Shameless.बेवफा=Unfaithful.बेहया=Shameless.नाजायज=Illegitimate. इजारेदार=Monopolist, ठेकेदार.फिक्रमंद=Worried. इबादत=Worship.कशाकश-ए-मर्गो-जिंदगी= Struggle of life and death(जिंदगी-मौत से जूझना).नौहे=mourning/विलाप।

Wednesday, March 23, 2011

आखरी दांव : नायेदा आपा रचित

यह ग़ज़ल एक प्रेम विहीन सम्बन्ध को अल्फाज़ देने की कोशिश है.....जहाँ न तो जिस्म मिलतें है न ही रूह. नारी तब भी कोशिश में है कि उसकी मोहब्बत कुछ असर लाये।
मगर बन्दा पर-पीड़क प्रवृति का है जिसे मुहब्बत से कहीं ज्यादा लुत्फ़ किसी पर जुर्म बरपा करने में और किसी को तडफाने और तरसाने में मिलता है. यह पेशकश आसपास में ओबजर्व की गयी हकीकत पर आधारित है।
########

जो पथराया बाहिर देहलीज़ वो मेरा पांव था
छोड़ उसको चले जाना बस आखरी दांव था.

मोहब्बत मेरी थी पुरकशिश उसके लिए
दिया प्यार बेशुमार खाली फिर भी ठांव था.

मेरी बदकिस्मती ने मिलाया था उससे मुझको
तपिश में जली थी मैं बस अल्लाह ही छांव था.

मेरी रोई हुई आँखे एक तमाशा था उसको
गिडगिडाना मेरा उसकी मूंछों का तांव था.

तशनगी न बुझ पाई थी ताजिंदगी मेरी
क्या हुआ दरिया किनारे मेरा जो गांव था.

(तशनगी=प्यास, तपिश=गर्मी)

Tuesday, March 15, 2011

अहम्..(एक पहलू) : आशु रचना

# # #
अहम् है
बस एक
परिकल्पना
करना होता है
सतत
रख रखाव
जिसका,
होती है
वांछा जितने
बडे अहम् की,
करना होता है
आयोजन
वृहत उतना
रख रखाव का
जुटा कर
धन
ज्ञान
यश
सामर्थ्य
संपर्क
और भी
बहुत कुछ...

मन मेरे !
करना
इस्तेमाल इस
दानव का,
मगर
कभी ना
आजाना
बहकावे में
इसके...

साथ मेरा : नायेदा आपा के रचना

# # #
गर चाहते हो
साथ मेरा,
पहिले
मुझ से
तुम को
ए जाना !
तहे दिल से
खुद को
चाहना होगा,
अँधेरे एहसासों से
खुद को
उबारना होगा,
दूरियां मंजिल की
नहीं मालूम
मगर
हौसला चलने का
जगाना होगा,
खोया जो है
उसको
भुलाना होगा,
हासिल जो है
इस लम्हा
उसको ही
सजाना और
संवारना होगा,
गर उड़ना है
आसमां की
ऊँचाई पर
सफ़र धरती का
तुम को
पूरा-ना होगा,
तैर चुके हो
लहरों पर
बहुत तुम,
पाने को
मोती
अनमोल
गहरे में गोता
तुम्हे
लगाना होगा,
कोमल कितने हैं
एहसासात
जिंदगी के,
नरम हाथों से
उनको
संभालना होगा,
चुराले ना
शबनम को
सूरज
सुबह का,
अनाम से इस
रिश्ते को
खुद से भी
छुपाना होगा.