Friday, June 29, 2012

चश्म नयी धुन का..

# # #
छूए जा रही है
मुसलल
ये ज़िन्दगी
मेरी सारंगी के तार,
नहीं उभर रहें है
मगर
वो बिसरे नगमे
भूल जाना मेरा
बन गया है
चश्म
एक नयी
धुन का...

Wednesday, June 27, 2012

सदा उश्शाक हुई जाती है .....(Extempore)


# # # #
सदा उश्शाक हुई जाती है 
अदा कज्जाक हुई जाती है.

जिस्म बेबाक हुआ जाता है 
रूह सफ्फाक हुई जाती है.

बरपा है खामोशियाँ हर सू 
आँख नमनाक हुई जाती है.

तुज़ुर्बों का असर है गमे दिल 
जीस्त इद्राक हुई जाती है.

तेरे आने के ना ख़ुशी ओ ग़म
फिजा अख्लाक हुई जाती है.

मंजिलें ना हो मयस्सर मुझ को 
राह  इम्लाक हुई जाती है. 

किस बुत को करें हम सजदा 
ख़ाक रज्जाक हुई जाती है.

बेपनाह इश्क किया थ तुम से 
तू भी गुस्ताख हुई जाती है. 

कैसे सुलझे के पहेली है कठिन
जुल्फ  पेचाक हुई जाती है.

(उश्शाक=प्रेमी,कज्जाक=प्रेयसी,सफ्फाक=निष्ठुर, नमनाक=सजल, जीस्त=ज़िन्दाही,  इद्राक=समझबूझ, अख्लाक=शिष्टाचार, मयस्सर =उपलब्ध,इम्लाक=जायदाद.रज्जाक=ईश्वर, पेचाक=बल खाना.)


Sunday, June 24, 2012

पुल....


# # # #
बनाया तुम ने 
मुझ को 
माटी से, 
बनाती हूँ मैं भी तो 
तुझको 
माटी से ही, 
फर्क इतना है 
फूंक सकते हो 
जान तुम 
सूरत में मेरी  
और 
करती हूँ 
प्राण प्रतिष्ठा मैं 
अपने भावों से 
मूरत में तेरी, 
सच एक तेरा भी है 
सच एक मेरा भी है 
बना रही हूँ 
एक पुल 
बीच दोनों सच के....

Tuesday, June 19, 2012

मेले (आशु रचना)


मेले (आशु रचना) 
# # #
जीवन की राहों में 
हम ने 
देखे थे 
बहुतेरे मेले,
कभी गुरु हुआ 
करते थे हम भी 
बने कभी थे 
हम भी चेले.....

रखा किसी ने 
हमें जकड कर
चला था कोई 
हाथ पकड़ कर
नाम प्यार का
दे दे कर यूँ  
कितने नाते 
हम ने झेले......

चाहत राहत
बन ना सकी थी,
कभी खुली वो
कभी ढकी थी 
हमने भी 
रिश्तों के भ्रंम में 
खेल ना जाने 
कितने खेले......

Sunday, June 17, 2012

सापेक्ष सत्य...(आशु रचना)


# # # # 
दिखे जो 
चरम चक्षु से
नहीं होता  वो 
अंतिम तथ्य,
जो जिया जाता है
हम से 
होता सदा
एक सापेक्ष सत्य.....

हर उदगम
आदि नहीं होता है
हर दर्द भी 
व्याधि नहीं होता है
मानो तुम 
कुछ भी ऐ साथी
सम्भोग
समाधि नहीं होता है......



Thursday, June 14, 2012

पावन झरना...(आशु रचना)


# # #
ना जाने कब 
तोड़ कर 
अवधारणाओं की 
उबड़ खाबड़ चट्टानों को 
निकल आता है 
हो कर विमुक्त 
उछल कूद कर
कल कल स्वर में गाता
निज सत्व का
पावन झरना
मनाते हुए उत्सव
अनायास घटित  
अभूतपूर्व 
उपलब्धि का....

ना जाने 
क्यों 
खोजते हैं हम
उत्तर जराजीर्ण 
जिज्ञासा का, 
करते हुए 
दुश्चिन्तन 
बीती कथा 
और
भ्रमजनित पिपासा  का..

अवधारणाओं की उम्र...(आशु रचना)


# # # # #
ज़रूरी नहीं 
अवधारणाओं की उम्र 
सदियों में हों,
कर लेते हैं कायम
वज्रवत शिलाखंड 
धारणाओं 
मान्यताओं
विश्वासों के 
हम 
अभी और यहीं
और 
रोक देते हैं 
बहिर्गमन 
निर्मल निर्झर का...

Thursday, June 7, 2012

गवारा...

# # #
बन कर मेहमां
आया है
मेरे घर 
गहरा सा 
एक अँधेरा,
ना कोई मह
ना है कोई सितारा,
पहचानी है 
सूरत उसकी 
रंग से महज़, 
करूँ कैसे 
ऐ मौला !
मैं उसको 
अब गवारा.....

Friday, June 1, 2012

मजबूर.....


# # # #
अज़ीम समंदर
गहरा पानी 
अकूत कुव्वत
संजीदा सा सब कुछ...

अदना सा कंकर
मिटटी का जिस्म 
बेडौल और बेहूदा 
नाकुछ सा सब कुछ...

छपाक से गिरा 
हल्की सी चोट
डोल गया था 
सब कुछ.....

इतना गुस्सा 
इतनी हलचल
तरंगों के गोले
लौट आते थे 
छूकर दूर किनारों को..

कैसी मजबूरी 
हज़ार हाथ वाला
समंदर 
नहीं उलीच पाया  
मगर 
एक नन्हे से कंकर को...
 
 

मा' बूदियत आइने की........

# # # #
मेहमानवाजी
लिपे पुते हुस्न की
कर देती है
नापाक
मा' बूदियत  
आइने की,
झूठ
बन कर पैरौ  
कर देता है बर्बाद  
तौकीर
सच जीए जाने की....

(मा' बूदियत =दिव्यता, पैरौ=अनुयाई/follower , तौकीर=प्रतिष्ठा)

खुली आँखों के आईने.....


खुली आँखों के आईने.....
# # # #
मुस्कायी थी 
बिजली 
रोया था बादल 
बे-इन्तेहा,
जागा था 
चाँद 
सोया था 
आसमां...

जस की तस थी
माटी
चल रहा था 
गागर,
तैरी  थी 
लहर 
डूबा था 
सागर.....

बन्द आँखों में 
पाले  थे सपने
थोड़े सच 
थोड़े बे-मायने 
दिखा रहे थे
अक्स 
खुली आँखों के 
आईने.....