Friday, January 20, 2012

दो रोज़ हफ्ते के...

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दो रोज़
हफ्ते के ऐसे
नहीं करनी है
हमें फ़िक्र जिनकी,
रखना है
आज़ाद जिनको
हर डर से
हर ख़मखयाली से....

नहीं है
हिदायत यह
किसी नजूमी की,
फ़तवा
किसी मौलवी का
हुकुम
किसी बहमन का...

पूछेंगे नहीं
पीर है या के मंगल,
बुध या के जुमेरात का
कोई दंगल,
जुम्मे का चुम्मा या
सनीचर एतवार का कोई
शगूफा ?

भूल जाईये
ये सब हलचल
खयाल कीजिये बस
पहला :बीता हुआ कल
और
दूसरा : आने वाला कल...

आओ दोस्तों !
लें यह फैसला
नये साल के आगाज़ में,
जीना है हमें
बस आज में,
सुकून-ओ-मोहब्बत के
हसीं साज़-ओ-आवाज़ में...

[जर्सी सिटी (यू.एस. ए.) 2012-01-01]

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