Tuesday, November 23, 2010

लास वेगास.....

# # #
आह !
कैसी रोशनी है यह ?
हो गयी है दिन
रात यहाँ की,
सब कुछ तो
चमक रहा है
उजला उजला,
चलो किसी
केसिनो में
करलें याद
कौरवों-पांडवों को,
मुफ्त की शराब,
अधनंगी
नाचनेवाली के
अंग्रेजी ठुमके,
खुशी चंद डॉलर जीतने की
झुंझलाहट हारने की
और
कभी कभी निस्पृहता
जो रूहानी नहीं
औलाद है बोरियत की
हताशा की,
सडकों पर रंगीनियों का
फेशन परेड,
असल की नक़ल,
चाहे वेनिस शहर हो
ताजमहल या
कुछ और,
शानदार होटल
और
अजूबे
तरह तरह के,
पैबंद है
मखमल के
जुए की टाट पर,
पहले से सोचे
'एहसास' कहलाते हैं
'एक्साईटमेंट'
सब कुछ है
'टेम्परेरी' यहाँ
'नथिंग' 'परमानेंट',
करुँगी फिर भी
हर पल
साथ तेरे एंज्वाय,
मुझे भी
लगता है अच्छा
यह थोडा सा
बदलाव...

पूछते हैं
इस उजाले से,
क्या खिला सकते हो फूल,
जगा सकते हो
सोये हुए
अलसाये हुए बदन
जो बहा कर पसीना
करेंगे तामीर,
बना सकते हो
भाप दरिया-समंदर के
पानी को,
जो बरसेंगे
बन कर बादल,
पिघला सकते हो
बर्फ पहाड़ों की,
बदल सकते हो
रुख हवा का,
कर सकते हो
अंकुरित
बीजों को....?

Monday, November 22, 2010

Solitude and Attitude:By Nayeda Aapa


This poem is an adapt from the oft-quoted poem of Ella Wheeler Wilcox (1850-1919)a Wisconsin born theatrical personality attracted to spiritualism,theosophy and mysticism.
The title of this poem is SOLITUDE but a far more fitting title would have been ATTITUDE. Ella conveys that whatever attitude one decides to adopt is precisely what one will attract in his life. Think Sad and you attract emptiness. Think mirth and the world will laugh with you.
There are umpteen poems on SOLITUDE in world literature of all the languages. Most of these speak of melancholy and negative attitude whereas this poem and one by Late H.V. Bachchan talks about 'Positive Attitude and Approach'. Most of us might have enjoyed the writing of Bachchanji and now i feel pleasure in sharing this one by Ella with all friends, here.

# # #
हंसो ! हँसेगी दुनिया संग तुम्हारे,
रोवो! रोना पड़ेगा तुम को बस अकेले.
दुनिया के स्वयं अपने भी कष्ट है अनगिनत,
आस है उसको भी आनन्द और प्रमोद के कुछ क्षणों की.
गाओ ! देंगी प्रत्युत्तर पर्वत श्रृंखलाएं भी,
भरोगे यदि आहें हो जाएँगी विलीन पवन में वो भी.
खुशियों के होती है गूंज एवम् प्रतिध्वनी,
किनारा करेंगे सब कोई मर्माहत कराहें सुन कर तुम्हारी.

आनंदित रहो,चाहना होगी संसार को तेरी,
शोकाकुल होने से जायेंगे पलट सब और लगा देंगे फेरी.
खुश रहो, बहुतेरे होंगे मित्र तुम्हारे,
दुःख को रोने से मोडेंगे मुंह वोह सारे.
चाहिए सब को परिमाण प्रसन्नता का ,
उदासी की जरूरत है किसको ?
मधुर सोम-रस पान के लिए ना होगा इंकार किसी को,
किन्तु कड़वाहट का घूँट पीना होगा अकेले तुम को.

दावत दो, भर जायेगा पूरा मंडप तुम्हारा,
उपवास करो, छोड़ चलेगे संग सब तुम्हारा.
सफल होना और देना, देता है मदद जीने में,
मगर कोई भी नहीं देता साथ किसी के मरने में.
आमोद के कक्ष में स्थान है विशाल पंगत को,
मगर दर्द के संकड़े गलियारों से गुजरना होगा.
तनहा तनहा, एक एक कर ,हम सब को.

(एक भावानुवाद )

Sunday, November 21, 2010

सपने:मन मीत मेरे : नायेदा आपा की कृति

# # #

चाँद निकला
और
छुप गया था
बादलों में,
ख्वाहिशों से घिरी
रात को
इंतज़ार था
सहर का,
महताब
ना सही
आफताब
तो भर देगा
उजालों की
सौगातों से
बेवक्त धुंधली हुई
जिंदगी को.....

ठहर गयी थी,
ठिठक गयी थी
मैं,
देख रही थी
रुक रुक कर
खुद को,
होने लगा था
एहसास
वो तो बन्द आँखों का
सपना था,
खुली आँखों से देखा
जिसको
क्या बस
वो ही
अपना था ?

सपने होतें है
एक हकीकत,
हकीकत से भी
बढ़ कर
एक हकीकत,
तुम बदल देते हो
दुनियावी हकीकत को,
तोड़ और मरोड़ देते हो
उसको,
मगर सपने
महज सपने होते हैं
रहतें है वे वैसे ही
जैसे कि वो होतें है....

कुछ भी कहो
कुछ भी सहो
सपनो को रहने दो
जिंदगी में,
उन्ही से निकली
खुशबू
महकाती है
हकीकतों को...

जब भी होती हूँ उदास
होते हैं सपने
संगी मेरे,
नुमायिंदे हकीकतों के
करतें है परेशान
जब जब मुझ को
बनते है सपने
सहारे मेरे,
तुम्हारी शायद तुम जानो
मैं
बन कर पुजारन सपनो की
सीख रही हूँ
जीना हकीक़तों को.....

देखती हूँ
खुली आँखों से
वही सपना
जो मुरझा गया था
कैद होकर
बन्द आँखों में....

सच मानो...
अब
यह जिंदगी
पुरजोश होकर
खिला रही है
जिला रही है
मेरे मन मीत
सपनो को....

Saturday, November 20, 2010

बात एक रात : by नायेदा आपा

# # #
छोडो ना कहो ये नज़्म-ओ-ग़ज़ल , यह शब तो यूँ ही गुज़र जाएगी,
चुप बैठ के देखो नयनन में, ये रात सुहानी ठहर जाएगी...

गम के फ़साने सुनाते हो क्यूँ , अंखियन अश्कों से भर जाएगी,
बंजारिन सी फ़ित्रत है मेरी, सरो-सुबहा उठी और चली जाएगी.

रातों का क्या यूँ ही बीत जाये, सूरज के संग कल तो सहर आएगी,
तूफ़ान मस्ती के उठे दिल में , पर मिलन-घड़ी किस पहर आएगी

मेरे जानिब आहिस्ता आहिस्ता बढ़ो , खुदा की खुदाई भी दर जाएगी,
कुचलो ना फूलों को जो बिछे सेज पर, नाज़ुक पत्तियां है बिखर जाएगी.

मानते हैं सनम दरिया उफना, फिर फिर के हर इक तो लहर जाएगी,
फल धीरज के होते मधुर सजन, जल्दी में बात बिगड़ जाएगी.

Friday, November 19, 2010

प्रणाम गुरुओं को : नायेदा आपा रचित

( यह नज़्म आपा ने शिक्षक दिवस पर लिखी थी)
# # #
वंदन माँ का,
जो सर्वोपरि है
सब गुरुओं से,
पढाये हैं जिसने
पाठ जीने के.
खुद से व औरों से
प्रेम करने के....

प्रणाम! गुरुओं को
बदौलत जिनके
मिलती रही है
रोशनी इल्म की,
और
उन अनजाने
गुरुओं को,
जिन्होंने मांगे
बिन मांगे
लुटा दिये हैं
हम पर
ज्ञान के अनमोल मोती ,
जो हमारे खजाने को
बनाते हैं
और
भी बुलंद,
महफूज़ खज़ाना जिसे
ना कोई लूट सकता है,
ना चुरा सकता है कोई....

सलाम ! मेरे ‘उस्ताद जी’ को
जिन्होंने सिखाया
हमारी जड़ें है यंही,
हमारे बुजुर्गों कि राख/अस्थियाँ
इसी जमीं में है यहीं……
बात रूह की हो तो
पत्तों को नहीं
देखो जड़ों को,
पत्तों का क्या
झडतें है हर पत्तझड़ में
होतें हैं नए हर बसंत में ....
सलाम उनकी नमाज़ों को
सलाम उनकी अजानों को
सलाम उनके ललाट के ‘टीके’ को
जो किसी भी पुजारीजी के
तिलक से नहीं था
कम बुलंद....

प्रणाम! अंकित के उन
‘पगले उस्तादजी’ को
जो छोड़ कर
कुटुंब अपना
रह गये थे
इस पार,
क्योंकि उन्हें
ना थी मंज़ूर
चन्द महत्वकांक्षी
राजनीतिबाजों की
खिंची हुई लकीरें...

संत-दरवेश उन्ही
उस्तादजी को
जो दिखते थे
मस्जिद में
वक़्त-ए-नमाज़
बुहारते हुए फर्श,
और शिव मंदिर में भी
धोते हुए आँगन,
करते हुए अर्पण
पावन बेल-पत्र
दूध और जल....
जिन्होंने नात-शरीफ
और
भजन थे एक से सुर में गाये
और
फिर शांत हो
चुप हो गये……
आज तक ना जान सकी मैं
यह चिर मौन उनका,
हिन्दू था या मुस्लिम,
या महज़ ज़ज्बा-ए-इंसानियत ?????

पाये-लागूं,
चोटीवाले
बरहमन मास्टरजी को
जिनकी बीवी ‘धर्म-बहन’ थी
पगले उस्तादजी की,
कट्टर पंडित के घर में
‘उस्तादजी’ के लिए
बर्तन अलग थे,
मगर
दिल दोनों के बस
एक और नेक थे....

पगले उस्ताद
‘साले’ थे उनके
और
पंडितजी थे ‘बहनोई’,
लड़ पड़ते थे
गाँव में
हर किसी से
एक दूजे के लिए,
दोनों थे गुरु
एक दुसरे के,
ना जाने घंटो
करते थे चर्चाएँ
क्या क्या,
दोनों ने जीकर खुद
पढाया था हमें सबक
‘सह-अस्तित्व’ का..

प्रणाम उन सब
देशी-विदेशी,
प्रोफेसर्स और टीचर्स को,
जो गुरु कम और
ज्यादा थे
प्रोफेशनल
मगर थे तो गुरु………...
थोडा 'borrowed'
थोडा 'acquired'
ज्ञान मिला था उनसे,
तराशा था जिन्होंने
सोचने समझने की
ताकत हमारी को....

'Reading', 'Listening',
'Assertiveness', Liberal attitude,
'Firmness','Fairness','
Politeness' और ‘Selfishness’
सिखाई थी उन्होंने,
सिखाया था
साँसे लेना
आज की बदलती हवा में
रहना अडिग तूफानों में,
विज्ञान
संकल्पों और विकल्पों का ,
संतुलन
‘Logical Brain’ और
‘Loving Heart’ का ,
और मासूम सा
अधूरापन भी,
जो कायम रखता है
आज भी यह ज़ज्बा कि,
हम है जिज्ञासु विद्यार्थी
और
सीखना है हमें निरंतर ....

और अब :
श्रीकृष्ण वन्दे जगदगुरुवम !

Wednesday, November 17, 2010

एक दोस्ती 'ढेले' और 'पत्ती' की : नायेदा आपा रचित

# # #

एक था
'ढेला'
एक थी
पत्ती

‘ढेला’ था
अति निष्ठुर,
संवेदनाहीन,
अहंकारी.
‘पत्ती’ थी
डाल से टूटी,
सूखी हुई और
अति झगडालू.
दोनों थे पड़ोसी
नहीं रखते थे
वास्ता एक दूजे से.

हवा का
तेज़ बहाव था उस दिन,
पत्ती झोंकों के संग
बन गयी थी
चकरघिन्नी ,
ऊपर-नीचे,
नीचे-ऊपर,
यहाँ चोट वहां चोट,
पुकारे पत्ती
परेशान
रोती-बिलखती
‘ढेले’ को :
बचाओ! मुझे बचाओ.
ढेले ने फेरा था
मुंह उपेक्षा से
हँसता रहा था
पत्ती की
बद-हाली पे.

रफ़्तार हवा की
हुई थी
कुछ कम,
पत्ती गिरी थी
पास 'ढेले' के
पूछे पत्ती :
क्यों हो इतने
निर्दयी,
मुझे लगती रही थी
चोटें
और
हँसते रहे थे
बेशर्मी से तुम.

'ढेला' कहे:
नहीं मतलब मुझे
किसी से
और
दोस्ती !
पत्ती से ?
नहीं देती शोभा मुझे.

'पत्ती'हुई थी
रुआंसी
लगी थी
कहने:
सब दिन होते नहीं
समान,
'ढेले' क्यों करते तुम
व्यर्थ अभिमान,
'ढेला' 'पत्ती' को
दुत्कारे और डांटे,
अकड़ में हो चूर
लेने लगा था खर्राटे.

बादल गरजे थे
घन-घोर,
चमकी बिजलियाँ
लगी थी होने
बारिश पुरजोर.
धेला सह ना सके
थपेड़े जल के
भय हावी हो उस पर
मिट जाने के
ग़ल जाने के.

चिल्लाये 'ढेला' :
पत्ती मुझे बचाओ !
ढक लो ना मुझ को
खुद से
सह लो ना मेरे लिए
बारिश को,
प्यारी दोस्त मेरी !
मुझे बचालो!

“गलो , मरो….
नहीं मतलब
मुझे
भी.”
बोली थी पत्ती.
'ढेला' रहा था
छटपटाता गलता
होती रही थी
उसकी दुर्गति.

थमी थी बारिश,
'ढेले' ने ली थी
सांस राहत की
लगा था
कहने 'पत्ती' को:
सब दिन होतें नहीं
सामान
कहती हो तुम ठीक,
हम है पड़ोसी
हम है दोस्त,
रहें मिलजुल
बस बात यह
सटीक.

'ढेले' ने बढाया था
हाथ
और 'पत्ती' ने कुबूला था
साथ.
लगे थे दोनों
मिल-जुल रहने
प्यार और
सौहार्द के पहने गहने.

तूफ़ान जब जब
आन घेरता
'ढेला' छुपा लेता 'पत्ती' को
अपने तले,
और
जब भी होती
बारिश
'पत्ती' का प्यार 'ढेले' पर
छतरी बन पले.

हो गये थे
स्वभाव दोनों के
परिवर्तित,
बारिश-तूफ़ान
और
अन्य आफतों से
हो गये थे दोनों
सुरक्षित.

ज़िन्दगी खूबसूरत है...

# # #
सहज
स्वाभाविक
सार्थक है जो
रूह-ओ-जिस्म की
ज़रुरत है,
संयोंग,
संश्रय,
संसर्ग से ही
ज़िन्दगी
खूबसूरत है...

Tuesday, November 16, 2010

गणना. : नायेदा आपा की रचना

# # #
सुशिष्य
बुद्ध का,
भिख्खु एक
परम विद्वान्,
ज्ञाता
व्याकरण का,
सूत्रों का,
मन्त्रों का......

कुशल कवि,
प्रकांड पंडित,
शब्द विशारद
देता था उपदेश
अपनी
औजस्वी वाणी
लुभावनी
शैली में,
हुआ करता था
इकठ्ठा मजमा
और
होते थे आनन्दित
जन-जन
सुन कर
भिख्खु के
प्रभावशाली
धर्मोपदेशों को,
पर
ना जाने क्यों
नहीं होता था
घटित
परिवर्तन
कहीं भी,
भिख्खु था
प्रसन्न
गिन कर
श्रोताओं को,
लख कर
बेतहाशा भीड़ को....

देखा करते थे
गौतम सबकुछ
शांत चित्त से,
बुलाया था
तथागत ने
एक दिन
भिख्खु को और
कहा कहा था
कुछ यूँ,
भंते ! करके
गणना
मार्ग पर
दृष्टव्य
धेनुओं की,
क्या हो सकता है
कोई
स्वामी उनका....?
होना है
राज्य धम्म का
मनुज हृदयों पर,
चित्कार
'धम्मम' 'धम्मम' की
बढा सकती है
मात्र संख्या
दर्शकों की ,
नहीं पैठ सकती
किन्तु
मानव मस्तिष्क
एवम्
हृदयों में...
भिख्खु !
करो आत्मसात
तुम
धम्मम को,
करो अवतरित
उसे जीवन में अपने
परे शब्दों से,
लेगा तभी
जन-मानस
सच्ची प्रेरणा
और
होगी संपूर्ण
तुम्हारी देशना...

Monday, November 15, 2010

'सत्य' : नायेदा आपा रचित

# # #
'सत्य'
अनाच्छादित
प्रकाशित
आच्छादित
धुन्धलित,
मधुर है
श्रवण में,
विकट है
वहन में....

उसका है
अप्सरा से भी
अधिक
सौंदर्य
एवम्
स्वरसंगत से
अधिक
माधुर्य.....

होता है सच
हिम से
कहीं अधिक
सुकोमल
सुकुमार,
प्रस्तर से भी
अधिक
जिद्दी
कठोर....

तड़ित कि भांति
उसकी
तीव्र दृष्टि
असत के
अंधेरों को
भेदे,
सूर्य-देव तुल्य
शक्ति उसकी
सबल मिथ्या को
पराजय दे....
किया जिसने भी उसकी
हत्या का
षडयंत्र
हुआ विनष्ट वोह
अजेय कोप
उसके
से
तदनंतर....

Sunday, November 14, 2010

असलियत यूँ खुली....किस्सा मुल्ला नसरुद्दीन का.

(यह किस्सा बिलकुल काल्पनिक है और एक लोक कथा पर आधारित है...इसका किसी भी जिंदा या मुर्दा इन्सान से कोई ताल्लुकात नहीं है..कोई भी समानता अगर नज़र आये तो इसे महज एक संयोग समझा जाये या ऐसा सोचनेवाले/समझनेवाले का भ्रम. इसका उदेश्य बस ज्ञान वर्धन और स्वस्थ मनोरंजन है.)

हमारी यूनिवर्सिटी के फिलोसोफी डिपार्टमेंट के हेड हुआ करते थे डॉक्टर हफिज्ज़ुल्ला काज़मी साहेब. बड़े ही जहीन, विद्वान और शरीह इन्सान थे काज़मी साहेब, किसी शाही खानदान से ताल्लुक रखते थे और शौकिया प्रोफेसरी करते थे. हाँ अपने इल्म और काम के लिए बिलकुल समर्पित थे. एक दफा उनकी मुलाक़ात एक पढ़े लिखे, स्मार्ट इन्सान से किसी सफ़र के दौरान फ्लाईट में हो गयी...बन्दा प्रेजेंटेबल था..बातें भी लच्छेदार करता था..उसने काज़मी साहेब को बुरी तरह इम्प्रेस कर दिया. काज़मी साहब ने तहेदिल से उनसे गुज़ारिश की थी कि वेह जब भी हैदराबाद तशरीफ़ लायें उनके मेहमान बने...

ये नवपरिचित सज्जन थोड़े अभिमानी से लगे थे काज़मी साहब को मगर उन्होंने सोचा यह उनका जोशीला अंदाज़ है. उनकी ठसक उनको उनकी शख्सियत का एक पोजिटिव हिस्सा लगी. चलिए उन्हें एक नाम दे देते हैं, ताकि किस्से को फोलो करने में आसानी हो.हाँ तो इनका नाम था जनाब कसीस.

कसीस साहब का भाषाओँ पर बहुत अच्छा आधिकार था...और उन्होंने खूब पढ़ा था हर भाषा में. लगभग सभी करेंट अफेयर्स पर वे बात करने में माहिर थे. रख रखाव भी अच्छा था...वेल ड्रेस्ड...मजाल कि अचकन पर तनिक सा सल नज़र आ जाये. कह रहे थे सउदी से आये हैं..वहां किसी तेल कंपनी में मुलाजिम है..मगर अदब में बहुत इंटरेस्ट रखते हैं, मज़हबी बातें भी खूब करते थे कसीस साहब...खासकर इस्लामी और सूफी फिलोसोफी पर. कहते थे कि हिन्दुस्तानी मूल के थे उनके पूर्वज. बंटवारे से पहले शायद ब्रिटेन में बस गये..और फिर ब्रिटिश पासपोर्ट पर चले आये सउदी. अविभाजित भारत कि लगभग सभी भाषाएँ धडल्ले से बोलते थे, हर भाषा ऐसे बोलते थे जैसे मादरी जुबान हो. हर भाषा में उन्होंने नज्में लिखी थी, जिन्हें सुनकर प्रोफेस्सर काजमी बहुत प्रभावित हुए थे. बात बात में कसीस साहब ने पूछा था कि क्या प्रोफ बता सकेंगे कि कसीस मूलतः भारत के किस प्रान्त से हैं... कसीस हर भाषा इस तरह बोलते थे कि प्रोफ सहह्ब नहीं बता पा रहे थे कि वे कौन है. उन्होंने सोचा कसीस साहब कि मेहमानवाजी भी होगी, और अपने सारे कॉस्मोपोलिटन दोस्तों की मदद यह तय करने में भी ले सकेंगे कि कसीस क्या चीज है. तभी उन्होंने उन्हें हैदराबाद आने का न्योता दिया था.

कसीस आ धमके उनके बंगले पर. रोज़ तरह तरह के पकवान बनते...खातिर होती कसीस साहब की ..कोई दिन सिन्धी भाषा का होता...सिन्धी दोस्त आते..कसीस इतनी अच्छी सिन्धी बोलते और सिंधियों जैसे मैनर्स दिखाते कि सिन्धी यारों को कहना होता : कसीस साहब सिन्धी है, प्यार से कहने लगे 'चनिया' है. यह माज़रा बंगाली, गुजराती, तमिल. तेलगु, पंजाबी, राजस्थानी, कश्मीरी, मलयालम, उर्दू, खड़ी बोली, उड़िया, कन्नड़ इत्यादि सभी भाषाओँ और भाषा भाषियों के साथ हुआ. बंगाली कहे भई यह तो शत प्रतिशत बाबू मोशाय है, क्या हुआ सूत पहन रखा है आज..लगता तो ऐसा ही है कि ढीली धोती और पंजाबी (कुरते) में है, गुजराती कहे यह तो आपणो गुज्जू भाई छे, मारवाड़ी कहे कि यो भायो तो धरती धोराँ री रो बाशिंदों है...पश्तो वाले कहे कि यह खबिश तो 'पठान' है, पंजाबी कहे चाहे इस पार का हो या उस पार का-मुंडा पंजाबी है..जब 'चप्पो चप्पो' करके तेलगु बोलता और तेज़ मिर्ची खाता तो आंध्र वाले कहते यह तो अपना 'गुण्डी' है...केरला के लोगों ने कन्क्लूड किया कि जब इसने 'अछुथंड' (गाड़ी के चक्के का धूरा) कैसे कठिन शब्द को समझ लिया और मछुआरे नाविक का मलयालम गीत गाकर सुनाया-राजा रवि वर्मा कि पेंटिंग्स के सौन्दर्य सौष्ठव का वर्णन ठेठ मलयालम में कर दिखाया..भाई यह तो 'मल्लू' है. बस इसी तरह सब के अनुभव रहे. यह तय नहीं हो पाया कि कसीस असल में कौन है..

ऐसे में हमारे 'सर' ने सोचा, जिस बात का कोई भी हल ना निकाल सके उसका हल उनके दोस्त मुल्ला नसरुद्दीन निकाल सकते हैं.

काज़मी साहब के दौलत खाने में एक ग्रांड पार्टी का आयोजन है, शरीक हैं॥बिल्डर छग्गू मल छंगवाणी(सिन्धी), प्रोफेसर अचिन्त्यो बनर्जी (बंगाली)व्यापारी जिग्नेश भाई मेहता (गुजराती), बसप्पा रायचूर (कन्नड़), जी। सुन्दरम (तमिल), डा. आर. लेंगा रेड्डी (तेलगु), सरदार परमिंदर सिंहजी पटियाला (पंजाबी),...प्रोफ विनेश कुमार सिंह (राजस्थानी), डा, ऐ. सी. मोहन कुमार (मलयाली) डा. गोबिंद झा (मैथिली) पंडित सरजू पाण्डेय (बनारस से) ....अन्य कई मित्र और हमारे नायक मुल्ला नसरुद्दीन.

कसीस सब से मुस्कुरा कर मिलते हैं प्रत्येक व्यक्ति से...अपनी नकली सी असली बतीशी निपोरते हुए..सामने वाले की भाषा बहुत ही लछेदार अंदाज़ में अच्छी तरह बोलते हुए...सभी सोचते हैं कि बन्दा उनके यहाँ का है...घुमते घुमते किस सो चार होता है मुल्ला से...मुल्ला से वह फर्राटेदार हैदराबादी उर्दू में बात करता है...मुल्ला बहुत इम्प्रेस होते हैं...और उस से फ्रेंडली हो जाते हैं...दोनों ही साथ साथ सकोच के पेग पेग चढाते हैं...एक स्टेज आती है...दोनों झूम रहे होते हैं....मुल्ला कस कर मय जूतों के अपना पांव कसीस के पांव पार जमा देता है...बहुत जोर से दबाता है मुल्ला पांव को लगभग उसी जोर से जिस से अमीर गरीब को दबाता है...मस्तान/गुंडा आम पब्लिक को...और शायद कुछ गाली जैसा भी होले से मुल्ला बोल देता है कसीस को...बस कसीस शुरू हो जाता है अपनी मातृभाषा में गली गलोज भरी बातें मुल्ला को सुनाने...मुल्ला कहता है सुनिए साहिबान भाई कसीस 'कंजरों' वाली भाषा बोल रहे हैं...'कंजर' है वो...कहने का मतलब चोट लगने प़र इन्सान अपनी औकात प़र आ जाता है...उसके सारे मुल्लमे उतर जाते हैं...वह अपना असली स्वरुप दिखा देता है. सभी लोग मुल्ला का लोहा मानने लगते हैं. कसीस को भी ख़ुशी होती है कि कोई तो ऐसा मिला जो उसको समझ सका. मुल्ला और कसीस फिर साथ साथ कबाब के साथ शराब पीने लगते हैं...पार्टी अपने शबाब पर हो जाती है.

Saturday, November 13, 2010

दिल की सच्चाई : एक अंदाज़े मोहब्बत -- by नायेदा आपा

(मेरी एक अन्तरंग सहेली फोर्मल तालीम नहीं के बराबर पा सकी. उसकी निकाह एक ऐसे आदमी के साथ हुई जो बाहिर मुल्क से बहुत कुछ तालीम और इल्म हासिल कर के आया. वह, एक नेक और जहीन इन्सान है, अपने वर्क फील्ड में बहुत ही कामयाब है, एक जिम्मेदार औलाद, खाविंद, बाप, दोस्त और शहरी है..........उसके लिखे ड्रामे पाकिस्तान टीवी चेनल्स पर कई दफा एयर हो चुकें हैं, उसके लिखे गीतों में भी कशिश,रवानी और गहराई
है. वे लोग एक 'सुखी और सम्पूर्ण' दम्पति है. मुझे अपनी दोस्त को खुश पा कर बेहद ख़ुशी होती है. उससे हुई अन्तरंग बातों को मैंने इस नज़्म में ढालने की कोशिश की है...........जिंदगी की यह सच्चाई शायद कईओं के दिल छू सके.)

# # #
वो मेरा दोस्त है,
मेरा हमदम,
मेरा खुदा,
मैं भी उसकी दोस्त,
हमदम-ओ-खुदा हूँ.

बनाया, सजाया
और संवारा है
खुदा के करम से
हमने
अपने ख्वाबों की
दुनिया को
इन चार हाथों से.....

मैं समझ ना पाती
बहुत सी उसकी बातों को,
और ना ही ज़रुरत है
समझने की उनको,
मुझे तो लगता है
बस अच्छा
देखना उसे बोलते हुए,
छूता है मेरे दिल को
अंदाज़-ए-बयां
और
लहजा उसका...

आँखों की जुबां उसकी,
समझती हूँ महज़ मैं ही,
दुनिया उसे पढ़े सराहे,
यह खुशकिस्मती है 'हमारी'
सुकूं भरी इस तरहा
जिंदगानी है हमारी...

उसका सबसे बड़ा नाविल,ड्रामा,
गीत, ग़ज़ल और कहानी
बात है वोह
हमारे गाँव के खेतों की,
जिसे वोह अपने उसी..
ना ना उससे बेहतर,
अंदाज़ में कहता है...बार बार.
जिंदगी एक मुरब्बा(खेत) है,
हम दोनों जिमिन्दार(किसान),
मैं चला रहा हूँ हल
और बिखेरे जा रही हो
बीजों को तुम,
मैं बांधे अंगौछा
कमर पर,
कर रहा हूँ निराई,
बंटा रही हो हाथ तुम मेरा
और गाये जा रहे हैं
संग संग 'हीर'
मैं और तुम...
झूम रहा है मानो यह
आलम सारा,
यह लहलहाती फसलें,
सुनहली फूली सरसों,
हरे बूटे,
वो झेलम का किनारा,
ज़िन्दगी यह अपनी नहीं तो
क्या है...

इन्सान कहीं भी होकर आ जाये,
कुछ भी बन जाये,
अपने जमीं, अपनी माटी की,
जो सचाई सदियों से है कायम,
उसे कैसे झुटला सकता है कोई,
जिंदगी के खेतों में,
प्लास्टिक के बीज
कैसे बो सकता है कोई...

जब जब होता है
वो किसी उलझन में,
सुलझाता है उसको
आकर मेरे बाहों में,
जवाब कठिन से कठिन सवालों के
पा जाता है मेरी पनाहों में,
उसकी हर नज़्म की
पहली तनकीद
होती है मेरी,
उसके हर शे'र की
पहली दाद भी
हुआ करती है मेरी,
मेरी आँखों में उसकी हर ,
ग़ज़ल बसती है,
क्या हुआ महफ़िल में,
तालियाँ
औरों
की बजती है....

मेरे साथ चाय का एक गरम प्याला
देता है उसको-मुझको
नयी जिंदगी,
घर का बना खाना,
नन्हों का साथ,
फुरसत के सुबहा शाम,
और सांझी बंदगी.....
होती है अलावा इसके भी जो दुनिया,
क्या नहीं है हमें वोह भी मुहैया ?
खुश रहना,
हंसना हँसाना
हमारी फ़ित्रत है,
हमारे लिए यही है जन्नत,
यही कुदरत है....

रिश्तों को 'रिलेशनशिप'कहतें है,
मैंने अब जाना.......
'गोइंग अराउंड'
और 'ब्रेक ऑफ' के मायनों को भी
पहचाना,
'लोंगिंग' की छोटी लम्बाई को भी नापा,
लफ्जों की इस नुमायश की गहराई को भी
मैंने मापा,
दिल से पढ़ा...
दिल से जाना...
दिल से माना,
जिंदगी का कुछ भी भेद
ना रह गया
अब अनजाना
जीने के लिए जरूरी है
सांसो का आना ओ' जाना,
गिनने वालों का
छोटा होता है जमाना.
मुझे किसी दरवेश की
इस बात में है हासिल है
बेंतेहा 'जोय'
ढाई आखर प्रेम का
पढ़े सो पंडित होय...

Friday, November 12, 2010

गणित उम्र का : कहाँ से है शुरू:नायेदा आपा रचित

(बुद्ध का समझाने का तरीका अनूठा था...."example is better than percept" वाला.....स्थिति सामने ले आते......खुद समझो......उस वक़्त कहने का भी सही अर्थ पहूंचता लोगों के जेहन में.....राजा प्रसेनजित और गौतम बुद्ध की मुलाकात को इस रचना का विषय बनाया है......मात्रा/छंद की भूलों को क्षमा करें...)
________________________________________
# # #

प्रसेनजित सम्राट सुपरिचित बुद्ध-दर्शन को आये थे,
चर्चा करने तथागत से, निज ह्रदय जिज्ञासु लाये थे.

विग्रह ना हो सत्संग में पल भर, भिक्षु सर्व सहमाये थे ,
यद्यपि उत्सुक और उत्कंठित, मन सब के ललचाये थे.

वयोवृद्ध ध्यानी भिक्खु को धम्म कार्य से जाना था,
चारण स्पर्श कर गौतम का, आशीर्वचन ही पाना था.

होने वाला था सूर्यास्त, व्यग्र भिक्खु था जाने को,
हो विवश हुआ उपस्थित, प्रभु अनुमति को पाने को.

राजन ! जाना अति-दूर मुझे है, सन्देश बुद्ध का देने को,
कई माह की मेरी योजना, हूँ हाज़िर हूँ शुभ-स्पंदन लेने को.

भिक्खु पचहतर साल उम्र का,बुद्ध चरण का स्पर्श करे,
भंते ! संबोधन पाकर, उर में हर्ष अभिव्यक्त अतिरेक करे.

बोले गौतम-हे भंते! कितने वर्ष आपकी आयु है,
मात्र चार वर्ष बोला भिक्खु , विस्मित भूप स्नायु है.

आश्चर्य चकित हुआ नृप, क्यों बुद्ध ने इसे स्वीकार किया,
वृद्ध के मिथ्या वचनों का क्यों नहीं कोई प्रतिकार किया.

रुक ना सका भूप उद्विग्न-नहीं लगता चार वर्ष का यह,
गणना पद्धति है अन्य यहाँ, बुध फरमाए सहज ही यह.

बुद्ध के सुवचन:

जब तक मनुज उतरे ना ध्यान में, प्राप्य उसे प्रकाश ना हो,
उम्र देह की है तब तक, चाहे गणित आकाश-विकाश का हो.

अलोक पाकर अंतर का जब, झलक स्वयं की पाता है,
तन्द्रा में तो गयी उम्र, फिर नया जनम वह पाता है.

भिक्खु के साल इकहतर तो अज्ञान निद्रा में बीत गये,
वर्ष सहस्त्र कईओं के तो यूँही तन्द्रा में रीत गये.

इस भिक्खु ने चार वर्ष से, निज प्रतिबिम्ब को दर्शा है,
राजन ! इसीलिए इसने अपनी इस लघु वयस को स्पर्शा है.

*********************

उलझन में था नरेश सौभागी, मुक्ति दाता पास खड़े,
अश्रुपूरित भूपति विभोर, सिद्धार्थ बुद्ध के पांव पड़े.

प्रसेनजित बोला भगवन ! अब तक था यह भ्रम मेरा,
जीवित हूँ रहा हूँ श्वास चलना फिरना बस क्रम मेरा.

आज आपने दर्शायासत्य, मैं भूप नहीं एक मुर्दा हूँ,
अपने ही ‘स्वयं’ के ऊपर मैं, अज्ञान तिमिर का पर्दा हूँ.

बुद्ध सुवचन :

राजन! धन्य हो, जाना तुम ने सत्य यही जीवन का है,
जागरूक हो!शुद्ध बनो तुम, कृत्य यही सुजीवन का है.

***************

ध्यान ज्ञान पर चल प्रसेनजित, पुन: जन्म को पाता है,
आत्म-लक्ष्य को पाकर नृपति, स्वयं-पति बन जाता है.

Thursday, November 11, 2010

हुनर और गुरुर...



(यह रचना नेनो नहीं है, एक लोक कथा को बुना है मैंने अल्फजों में...पुनरावलोकन भी किया, कई जगह पुनरावर्ति है शब्दों की, बोलचाल में कम में आनेवाले अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल भी हुआ है... जो तकनीक की नजर से थोडा ख़राब लग सकता है किन्ही पारखी नज़रों को, मगर नज़्म की मांग है, मेरे जेहन और कलम ने क़ुबूल की है. कुम्हार को हमारे यहाँ 'प्रजापत' भी कहा जाता है..ब्रहमांड निर्माता प्रजापति ब्रह्मा की तर्ज़ पर...हर बात में छोटा-मोटा दर्शन है. आशा है आपका स्नेह मेरी इस लम्बी पेशकश को भी मिलेगा..महक का सलाम !)
# # #
घड़े
घोड़े
मूरत बनाता है
कुम्भकार !
'परफेक्ट'
'जीवंत'
'अद्वितीय'
मिलते हैं
'कम्प्लिमेंट्स'
अति उदार....

फूल कर
हो जाता है
कुप्पा
कुम्हार,
लगता है
सोचने
हर लम्हा
जादूगर हूँ मैं
करता हूँ मैं,
कमाल है मेरी
उँगलियों में,
सम्पूर्ण सृजक हूँ मैं..
बस लिए
यही चिंतन
बनाता है
घड़े
घोड़े
मूर्तियाँ,
फर्क आ जाता है
उनमें
लगती है फीकी
अब उसकी
कृतियाँ...

लोग आते हैं
कहते हैं
चू रहा है घड़ा
लंगड़ा सा है घोड़ा
कृत्रिम सी है मूरत,
नहीं मिलती है
इसकी
राधाकीशुन से सूरत...

कहता है
प्रजापति
"जलते हैं लोग
समझ नहीं पाते हैं लोग
जो करता हूँ मैं
कर सकता है
भला कोई..
लग गयी है
देखो बुरी नज़र
हुनर को मेरे,
मैं तो वैसे ही गढ़ता हूँ
सब कुछ
साँझ और सवेरे..."
किन्तु
मन का चोर
ज्यूँ मुंडेर पर बैठा मोर,
कहे जाता है
कुछ तो गलत है भाई
है 'समथिंग रोंग',
और पीसती है उसकी
लुगाई...

और
करती है
'कनक्लुड'
कुम्हारी
आफत की मारी
'ट़ेन्स्ड-स्ट्रेस्ड'
शौहर की भुक्तभोगी
बीवी
बेचारी...

नहीं खाती
हुनर को
नज़र बुरी किसी की,
तारीफ
करती है
हौसला अफजाई
कलाकार की,
मगर
समा गया है गुरूर
फ़ित्रत में
कुम्हार की,
कट गया है मरदूद
माटी से,
जगह मिलन के
हो रही है
बातें तकरार की...
समझो
प्रजापत
बात व्यवहार की,
कृति मांगती है
मन-तन का एकत्व
बात यही है
सार की...

होने लगी थी
फिर से
भावों की वृष्टि
बदल गयी थी
हमारे नायक की
दृष्टि,
होने लगी थी
मित्रों
पूर्ववत सृष्टि...

एक विनती : प्रभु से -मौला से:नायेदा आपा रचित

(चातुर्मास व्रत त्यौहार और भक्ति का काल होता है......लगभग सभी परम्पराओं में हिन्दू, बौध, जैन और मुस्लिम......जन्माष्ठमी, अंनंत चतुर्दशी,शरद नवरात्रा, रमजान,पर्युषण-समवत्सरी, दस लक्षण आदि........तो एक छोटी सी प्रार्थना प्रभु से, मौला से.)
______________ॐ_______________७८६______________ॐ_____________

यह मेरी जिंदगी,प्रभो !
किस मोड़ पर खड़ी है
मंझधार में है नैया
सर पर आफतें खड़ी है...

धुल बेपयाँ इस पर
ज़माने ने जमा दी है
निशान उंगली के कहीं हैं
खरोंचे भी लगा दी है....

वक़्त के थपेड़ों ने
धुन्धला इसे बनाया है
सुहाती है ना रोशनी
अक्स बेनूर हो आया है....

बने फिरतें हैं चारागर
जाल फरेबों का बिछाया है,
दे-दे मरहम-ए-जख्म मौला !
तेरा ही बस इक साया है...

Tuesday, November 9, 2010

शैय्या से शमशान:अंकित भाई की एक रचना

# # #

जीवन,
एक साँझा नाटक,
देह और आत्मा का,
जिसे खेल रहें है
हम सब,
संसार के,
विशाल और वृहत
रंग मंच पर....

अपनी रचनाओं में
मैंने,
शैय्या के सुख़
पाने या
ना पाने की
की है बातें
अथवा
शमशान को
बनाया है
मंजिल अपनी...
मेरी हर
ख़ुशी और
गम रहे हैं
बस
भटकते
शैय्या से
शमशान तक....

क्यों
ना जाना
हे प्रभो!
जीवन है कुछ और
वासना और
मृत्यु के
सिवा....

क्यों भूल गया मैं
हे विभो !
जन्म को
प्रेम को,
सौहार्द को,
हर्ष को,
आनंद को,
शक्ति को,
मुक्ति को,
तृप्ति को,
प्रकृति को,
गीत को,
संगीत को,
अगणित तथ्यों को,
जीवन के सत्यों को,
तुम को,
स्वयं को.....

Monday, November 8, 2010

प्रकृति से एकत्व : नायेदा आपा रचित

# # #

रुला देती थी
जिंदगी
जब भी,
लगती थी
साथ छोडती
छाया भी अपनी,
नज़रें औरों की लिए
हिकारत के नज़ारे ,
दुनियां मेरी
नज़र आती थी
गिरती हुई
औंधे
मुंह,
मैं...
छोड़ देती थी
देखना
दूसरों की नज़रों में....

देखा करती थी
पेड़ को,
जो छाया,
फल और
फूल देता है
दरियादिली से..
बिना किसी
आसक्ति के...
महसूस करती थी
धरती को
जो बनाती है बूटा
बीजों को..
कर के अंकुरित,
बिना सोचे
तनिक भी-
किसने बोया है ?
भोगेगा कौन ?
बिलकुल माँ के
दुलार की तरहा...
जो प्रेम करती है
अपने बच्चों को
बिना किसी अपेक्षा के ...
और
क्षमा भी करती है
यदि कर देता है
बालक कोई
व्यथित उसके
ह्रदय को....

सुनती थी
चहचहाना
पक्षियों का,
जो घोलता है माधुर्य
भोर के मधुरिम
माहौल में,
पंछी गातें हैं जो
मौज में अपनी,
बिना किये परवाह
किसी दाद
और
वाह-वाह की....

छू लेती थी
कोमल सुन्दर फूलों को
जो मुस्काते है
रहते हुए संग काँटों के भी..
फैलाते हैं महक
बिना किसी
लालच के,
निबाहते हैं मैत्री
प्रवंचक भ्रमर से भी...

देखती थी मैं
कल-कल बहती
नदिया को
जो बिना किसी
व्यवधान और कुंठा के
बही जाती है
मिलने समंदर से
जो रहता है
बहुत सुदूर
और
किये जाती है हरित
साथ देनेवाले
खेतों और बगीचों को,
देती है जो ताकत अपनी (बिजली)
पड़ोसियों को
और
बुझाती है प्यास
जाने-अनजानों की....

निरखती थी मैं,
हिम-आच्छादित पर्वतों के
शिखरों को
जो आत्मसम्मान में
सिर उठाये
खड़े होतें हैं
अडिग

और
अपने ऊपर
आस-पास
देते है जगह
वृक्षों को,
बर्फ को,
जीवों को,
हमारे आराध्य
देवी-देवताओं को
और
स्वयं की खोज में निकले
ऋषि मुनियों को....

प्रकृति के साथ यह मैत्री
ले आती थी पुन:
मुझे
निकट स्वयं के,
जगा कर मुझ में
प्रेम और करुणा
दे जाती थी मुझे
एहसास
इन्सान होने का...
आज मैंने बसा लिया है
प्रकृति को खुद में,
वृक्ष,
पंछी,
धरती,
नदिया,
पर्वत हैं
अंतर में मेरे ,
सामने मेरी आँखों के
और

समाये हुए
मेरी साँसों में,
दे रहे हैं
प्रेरणा मुझे
हंसने की,
आनन्द
जीने का
शक्ति
जीवन की,
पहचान
खुद की
और
प्रेम
शर्त-रहित बिलकुल,
स्वयं के प्रति भी
एवम्
समस्त चेतन-अचेतन के
प्रति भी...

यह हर्ष है
एक उत्सव ,
मानव-प्रकृति के
मिलन का,
और है प्रतिफल
दैविक योग का
जो है
संगीतमय,
अजर,
अमर,
शास्वत...

Sunday, November 7, 2010

समापन क्रंदन का : नायेदा आपा रचित

(दुनियावी रिश्तों के ओबजर्वेशन पर आधारित एक रचना)
# # #

ना मैं
मसीहा हूँ
और
ना हो तुम
संकीर्ण
सोचों के
एक खुदगर्ज़ इन्सान...
हो गयी है
आदत
मुझ को तेरी
तुझ को मेरी..
(फिर)
क्यों हँसते है
हम पर
ये अजनबी,
बहुत हुए
गिले तेरे,
शिकवे हमारे
और
जग की हँसाई....
आओ न छोड़े
औढ़े हुए
सवालों को,
रूठने और
मनाने को,
सतही उसूलों को,
आँखों से बहते
वक्ती आंसुओं को,
चन्द अधूरे सत्यों को,
थोड़े बेमानी झूठों को,
पहन लें फिर से नकाबें,
करें समापन
इस क्रंदन का,
हो जाएँ
संग फिर से…

जिंदगी के
दौर में,
दो और दो
हो सकतें हैं
पांच भी,
बर्फ की छुअन
दे सकती है
ठंडक भी
तपती हुई
आंच भी...
कौन है जिसने
पूर्णता है पायी,
अवतारों को भी तो
कमजोरियां सतायी,
फिर हम तो है
अदम और हव्वा
की औलादें,
हम से है
किस बात की
भरपाई......

Wednesday, November 3, 2010

चिंता और चिंतन:By नायेदा आपा/अंकित भाई


# # #
हो जाती है ‘चिंता’,
कुछ लोगों को
हो जातें है वे
चिंतातुर और चिंताकुल,
जब भी कुछ हो जाता है घटित ऐसा,
जो हो लीक से हट कर,
बुरा हो या अच्छा,
दे देतें है विस्तार उसे ,
औढ़ा देतें है चद्दर चिंता की
समाज पर---मानवता पर,
स्वयं तो होतें है विचलित,
और करतें है प्रयास
औरों को कम्पित करने का,
होतें है ऐसे हमारे
‘चिंता कुमार’,
हाथ में रहता है जिनके
एक आवर्धक शीशा (मेग्निफयिंग ग्लास),
रहतें है देखते जिस से,
न सिर्फ ख़बरें अख़बार की
बल्कि
इर्दगिर्द होने वाली
छोटी मोटी घटनाओं को भी,
चिंता कुमार
यदि हों साक्षर
और
हो यदि वे
स्थानीय लेखक और कवि
तो करेला और नीम चढ़ा,
या
होती है यह कहावत
चरितार्थ,
खा गया बिच्छु बंदरिया को,
फिर देखिये अल्फाज़ इन के
लगने लगेगा
उलट रही है दुनियां
आनेवाली है क़यामत....
हुआ था कुछ ऐसा ही
दो दिन पहले,
निर्मूल भय का
बाज़ार गर्म था
फैलाया जा रहा
अजीब सा भ्रम था,
जब हुआ था आरम्भ
वैज्ञानिक महा-प्रयोग का
परमाणु क्षेत्र में,
जेनेवा की प्रयोगशाला में
विश्व के वैज्ञानिक मिल कर
खोज रहें है नए आयाम (Dimensions)
करने सिद्ध ‘बिग बेंग' के सिद्धांत को,
कर रहें है अनुसरण
‘बोसोन’ अनुसन्धान का
जनक थे जिसके वैज्ञानिक सत्येन्द्र(१९२४…..).
अनावृत करेगा रहस्य
यह ऐतिहासिक प्रयोग
ब्रह्माण्ड की रचना का
और
करेगा मार्ग प्रसस्त
उर्जा क्षेत्र में नयी संभावनाओं का,
फैला दी थी
प्रलय प्रेमी ‘चिंता कुमारों’ ने
आशंकाएं सृष्टि के विनाश की
चर्चा थी आम और खास में
क्या होगा ?
क्या होगा अब ?
महाविनाश ?
लग रही थी खबर यह चटपटी
अच्छी चंद लोगों को,
क्योंकि थी यह करीब
वर्षों से जमे उनके अंध-विश्वासों के,
नहीं जानना सोचना पड़ रहा था
उन्हें करने प्रसारित प्रतिपादित इस झूठ को,
बन गया था नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सा,
विवेकपूर्ण विश्लेषण
महान वैज्ञानिक और चिन्तक
एपीजे अब्दुल कलाम का भी,
सोचा था मैंने उस दिन,
हमें आवश्यकता है 'चिंतन' की
ना कि 'चिंता' की...
हो सकता है कल्याण हमारा
‘चिंतकों’ से ना कि ‘चिंता कुमारों’ से, जो
राय चंदो (जो बिना समझे अपनी राय दे देतें है) की तरहा
ये पास भी मिलतें है दूर भी.
याद आ रही है ‘नारी शिक्षा अभियान’ के
आरम्भ में
ऐसे ही एक चिंता कुमार की
काव्य अभिव्यक्ति:
“रेशमी सलवार दुपट्टा ऊँचा है,
मत जैय्यो इस्कूल, मास्टर लुच्चा है."