Thursday, August 12, 2010

रौंगटे......(Extempore )

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बेजुबाँ
ना थी वो
बे अक्ल भी नहीं
सी लिए थे
होंठ उसने
पहन ली थी
ख़ामोशी....

ज़ुल्म सह कर
चुप रही
घुटती रही
जलती रही,
माशरा बेपरवाह था
छाई थी मानो
बेहोशी...

बाप ने सौदा किया था
खुद अपनी
औलाद का,
पहली से थी
वोह बिटिया,
किस्सा है यह
हैदराबाद का.....

माँ सौतेली ने
था बचाया
उसको
उस लम्पट
शेख से,
बेवा बनकर
बख्श दी थी,
ना जनी थी
जिसको
कोख से....

बह रहा था
दरिया खूँ का
उस ज़ालिम के
जिस्म से,
मिटा डाला था
आज उसने
जुल्मी को
इंसानी
किस्म से..

जुनूँ था के
दे रही थी
हैवाँ को वो
गहरी चोटें,
चंडी बनी थी
नेक खातून
हो रहे खड़े थे
रौंगटे...

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