Sunday, February 6, 2011

सो व्हाट ? (So What ?) : होगा क्या इस से ?

(कल एक लेख में इस रुसी लोक कथा का जिक्र आया था, आप से शेयर कर रही हूँ, सम्पूर्ण शब्द मेरे नहीं हैं है. प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से कतिपय परिवर्तन किये हैं यत्र तत्र.)

एक कवि एक वृक्ष के नीचे बैठा है. सुबह का सूरज उदय हुआ है और कवि उस वृक्ष के तले अपनी कविताओं का वाचन कर रहा हैं. कोई भी नहीं है वहां. बस एक कौआ बैठा हुआ है वृक्ष पर.

कवि अपनी पहली कविता पढता है : "पा लिया है मैंने संसार का समस्त द्रव्य, प्राप्य है अब मोहे कोष सुलेमान का, हूँ मैं साक्षात् कुबेर, सब कुछ तो है पास मेरे, जो भी था पाया जाना, पा लिया है मैंने."

बहुत गौर से देख रहा है कवि चारों ओर. कोई तो नहीं है वहां, बस बैठा है एक कौआ वृक्ष पर. हँसता है जोरों से कौआ और कहता है, " सो व्हाट ? होगा क्या इस से ?"

घबरा कर देखता है कवि, कोई नहीं है वहां, बस बैठा है कौआ अकेला वृक्ष पर. कवि कहता है, "क्या यह कौआ बोलता है सो व्हाट ? मैंने तो बड़े बड़े मनुष्यों के समक्ष अपनी कवितायेँ पढ़ी है और लोगों ने प्रशंसा की है और तू एक मूर्ख कौआ कहता है- सो व्हाट ? होगा क्या इस से ?"

कौआ कहता है, " निश्चित ही मैं ही कह रहा हूँ. धन की मूढ़ता मनुष्यों को छोड़ कर ना तो किसी पशु को है, ना ही किसी पक्षी को, ना किसी पौधे को है. तो यदि तुम मनुष्यों के बीच यह कविता पढोगे कि मैंने सुलेमान का खज़ाना पा लिया है तो लोग ताली बजायेंगे ही, क्योंकि वे भी सुलेमान का खज़ाना अपने अंतर मन से पाना चाहते हैं. वे भी उतने ही नासमझ है जितने कि तुम. उनकी नासमझी कविता नहीं बन पाती, तुम्हारी नासमझी बन गयी है कविता. इसके अतिरिक्त कोई अंतर तो नहीं."

कौआ फिर कहता है, " लेकिन पा लिया है तू ने सारा खज़ाना, फिर क्या होगा ? सो व्हाट ? होगा क्या इस से ?"

कवि कहता है, "नासमझ कौए तू समझेगा नहीं. मैं दूसरी कविता सुनाता हूँ."
लेकिन वह आदमी तो वही है, कवितायेँ कितनी भी करे उसका मन वही है, उसका लोभ वही है. दूसरी कविता में वह कहता है, "मैंने जीत ली है पृथ्वी सारी, मैं हो गया हूँ सम्राट चक्रवर्ती. कोई नहीं है ऊपर मुझ से, सब है तले मेरे पावों के."

फिर हँसता है कौआ, कहता है, "सो व्हाट ? होगा क्या इस से ? माना कि सारे लोग आधीन हो गये तुम्हारे, आ गये पावों के नीचे तुम्हारे और हो गये तुम स्वामी सब के, लेकिन क्या होगा इससे, क्या पा लोगे तुम इस से ?"

कवि ने क्रोधित होकर कहा ""छोडो इसे भी." और तीसरी कविता पढ़ी, "मैंने पढ़ लिए हैं शास्त्र समस्त, पढ़ी है मैंने गीता और कोरान, उपनिषद् और बाईबिल, मैंने किया है प्राप्त ज्ञान समस्त, नहीं है कोई ज्ञानी ऊँचा मुझ से, मैं हो गया हूँ सर्वज्ञ, जानता हूँ मैं सब कुछ."

कौए ने कहा, " सो व्हाट ? होगा क्या इस से ? तुम ने सब जान लिया, तो भी क्या होगा. एक चीज फिर भी रह गयी अनजानी. तुम ने पा लिया धन सारा, लेकिन एक धन रह गया बिन पाया, पा लिया तुम ने साम्राज्य सारा, लेकिन एक राज्य अपरिचित रह गया." कौआ अपनी बाते कहता जाता है. कवि क्रोध में कवितायें फैंक कर चल पड़ता है.

उस कौए से किसी दूसरे कौए ने पूछा, "तू हर बात में कहता गया- सो व्हाट ? होगा क्या इस से ? कविता कौन सी पढ़ी जाती कि तू दाद देता ?"
उस कौए ने कहा, "एक ही कविता है जीवन की और वह है जीवन को जानने की. ना ही तो धन को जानने से कविता पैदा होती है और ना यश को जानने से और ना ही पांडित्य को जानने से...एक ही कविता है जीवन की--वह होती है पैदा जीवन को जानने से. और उस कवि को उस कविता का कोई पता नहीं है. जब तक वह, उस कविता को नहीं गाता तब तक मैं कहता ही चला जाता- सो व्हाट ? होगा क्या इस से?"

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