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मैंने देखा
उस दिन
दर्पण में
प्रतिबिम्ब
अपना
और
लगा था मुझको
हो गयी हूँ मैं
अजनबी
अपने घर में ही नहीं
खुद से भी,
जाना पहचाना सा था
वो चेहरा
मगर भाव थे
अपरिचित से...
हुआ था
क्योंकर ऐसा ?
मैंने निज के
अधूरेपन
और
खालीपन को
भरने के बजाय
प्यार से
मुझे भरपूर प्रेम
और सम्मान
देनेवाले के.
छेड़ी थी
मुहीम मैंने
उसको
विजित करने की
अनधिकृत
स्वामित्व के
संयोजन से...
किया था
दुष्प्रयास मैंने
बांधने का
उसको
अपने शासन की
कठोर डोर में,
किया था
हरण मैंने
उसके स्वातंत्र्य का...
मुझे
नहीं करने दिया था
प्यार उसको
चाहते हुए भी,
मेरी हीन भावना
और
ईर्ष्या ने,
नहीं हुआ था
स्वीकार्य
मुझको
सह-अस्तित्व
उसका.....
बस रचते थे
चक्रव्यूह
दिन रात
सोच मेरे,
घेरा जिसका
कालांतर में
पड़ चुका था
इर्दगिर्द मेरे
और
मैं
चित्कार रही थी
निरीह सी
बचाओ मुझे !
मुझे बचाओ !
बच जातें है
हम दूसरों से
या
पाल लेते है भ्रम
बचने का,
परन्तु नहीं
पा सकते
निजात हम
स्वयं से....
अपराध बोध
बहेलिये सा
करता है
पीछा
होता है
नामुमकिन
छुपना खुद से
लाख छुपाने पर भी,
और
हो जातें है
शिकार
उस शय्याद के
खूनी पंजो के,
नोचता है
जो बाहिर से नहीं
भीतर से....
प्रारंभ
क्षमा करने का
कर सकें
हम
स्वयं से ही
करके क्षमा
स्वयं को
अपने गुनाहों के लिए
और
पा सकें
जीवन ऐसा
जिसमें हो
सुकून,
शांति,
मैत्री
और प्रेम,
आलोकित हो
हृदय हमारा
करुणा से....
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