Friday, August 1, 2014

ढाई आखर प्रेम का (नायेदा आपा रचित)

ढाई आखर प्रेम का (नायेदा आपा रचित)

(मेरी एक अन्तरंग सहेली, जो भी कारण हुआ, फोर्मल तालीम नहीं के बराबर पा सकी. उसकी निकाह एक ऐसे आदमी के साथ हुई जो बाहिर मुल्क से बहुत कुछ तालीम और इल्म हासिल कर के आया. वह एक नेक और जहीन इन्सान है, अपने वर्कफील्ड में बहुत ही कामयाब है, एक जिम्मेदार औलाद, खाविंद, बाप, दोस्त और शहरी है. उसके लिखे ड्रामे पाकिस्तान टीवी चेनल्स पर कई दफा एयर हो चुकें हैं, उसके लिखे गीतों में कशिश ,रवानी और गहराई है. एक सफल दम्पति है यह जोड़ा और अच्छे दोस्त भी.मुझे अपनी फ्रेंड को खुश पा कर बेहद ख़ुशी होती है. उससे हुई अन्तरंग बातों को मैंने इस नज़्म में ढालने की कोशिश की है यह सोच कर कि जिंदगी की यह सच्चाई शायद बहुत से दिलों को छू सके.)

वो मेरा दोस्त है,
मेरा हमदम,
मेरा खुदा,
मैं भी हूँ उसकी दोस्त
हमदम और खुदा....

हमने अपने
ख्वाबों की दुनिया को
इन चार हाथों
और
खुदा के करम से
बनाया है,
सजाया और संवारा है.
मैं नहीं समझ पाती
उसकी बहुत सी बातों को,
ही ज़रुरत है मुझे
समझने की उनको,
मुझे तो बस
लगता है अच्छा
उसका बोलना,
उसका लहजा
अंदाज़ उसका
छू लेता है
मेरे दिल का पलना,
जुबाँ उसकी आँखों की
समझ पाती हूँ
मैं उसकी
अज़ीज़ दोस्त
और बीबी
दुनिया उसे पढ़े
सराहे
आँखों पे बिठाये
यह है
'हमारी' खुशनसीबी...

उसके
नाविल
ड्रामे
गीत
ग़ज़ल या
कहानियाँ
बसा करते है हमारे
खेत खलिहान के राज में,
जिन्हें कहा करता है वो
बार बार
अपने उसी अंदाज़ में :
जिंदगी एक मुरब्बा(खेत) है
जिमिन्दार(किसान) है
हम दोनों
मैं चला रहा हूँ हल,
तुम बखेरे जा रही हो
बीजों को,
बंधे अंगोछा कमर पर
निराई कर रहा हूँ मैं
और तुम भी बंटा रही हो
हाथ मेरा,
गा रहे हैं हीर
हम तुम संग संग,
झूम रहा है आलम
गुनगुना रही है फिजायें,
लहलहाती फसलें,
फूली सुनहली सरसों,
ये हरे हरे खिले हुए बूटे
अपनी ही जिंदगी नहीं
तो क्या है ?

इन्सान जाये
होकर कहीं से
बन जाये कुछ भी,
अपने जमीन
अपनी माटी की सचाई
कायम है जो सदियों से
झुठला सकता है उसे
कोई कैसे,
बीज प्लास्टिक के
जिंदगी के खेतों में
बो सकता है
कोई कैसे ?

जब जब हुआ करता है
वह उलझन में
आकर मेरे आगोश में
सुलझाता है उसको,
कठिन से कठिन सवालों के
आसां से जवाब
पाता है वो मुझ से,
उसकी हर नज़्म की
पहली तनक़ीद
हुआ करती है मेरी,
पहली दाद
उसके हरशे' की
हुआ करती है मेरी,
मेरी आँखों में
उसकी हर ग़ज़ल
बसा करती है,
क्या हुआ जो महफ़िल में,
तालियाँ औरों की
बजा करती है....

मेरे साथ
गरम चाय का
एक बड़ा सा प्याला
मुझको-उसको
देता है नयी जिंदगी,
घर का बना खाना
नन्हों का साथ
फुरसत के सुबहा शाम
हमारी सांझी बंदगी.......

अलावे इसके भी है जो दुनिया
क्या नहीं हमें वो मुहैया ?
खुश रहना हँसाना
हमारी फ़ित्रत है,
हमारे लिए यही है
जन्नत
यही
कुदरत है......

रिश्तों को कहतें है
'रिलेशनशिप'
मैंने है अब जाना
'गोईंग अराउंड'
और
'ब्रेक ऑफ' के
मायनों को भी पहचाना,
'लोंगिंग' की
छोटी लम्बाई को भी
नापा है मैंने,
लफ्जों की
इस नुमायश की
गहराई को
मापा है मैंने,
दिल से सब जाना
दिल से सब माना,
जिंदगी का कुछ भी
भेद नहीं रहा
हम से अनजाना,
जरूरी है जीने के खातिर
सांसो का आना-जाना,
नफ़स गिनने वालों का
होता छोटा है जमाना....

मुझे किसी दरवेश की
इस बात में मिलता है 'जोय'
ढाई आखर प्रेम का
पढ़े सो पंडित होय......

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