Tuesday, October 19, 2010

सच और झूठ

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मिल गए थे
अनायास
सच और झूठ
चौराहे
किसी पर,
सच था
नंगे बदन,
और
बाँधी हुई थी
झूठ ने
इक लंगोटी,
पूछने लगा था
झूठ
सच से,
"अरे
नहीं आती
हया
तुझ को
फिरते घुमते
नंग धडंग
बेझिझकी से ?"
बोला था
सच,
"झूठ निर्लज्ज़े !
बनाएगा
जब तू
घर अपना
मेरे मन को,
ज़रुरत होगी
ढकने की
मुझे भी
अपने
इस
कंचन से
तन को."

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