Tuesday, July 28, 2009

पर्वत और शिखर....

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विस्तार
पर्वत का है
योजनों में,
परिमाप
शिखर का है
सूक्ष्म कितना,
पाना है यदि
स्वयं को
भीड़ से टल,
स्वयं का
विस्तार नहीं
सांद्रण कर,
बना तीक्ष्ण
स्वयं को
शिखर कि तरहा..

बन्दे !
फैलना नहीं है
जमीन पर
तुझ को
पर्वत कि तरह,
पाना है
खुद को...
खुदा को,
उठके ऊपर
शिखर कि तरहा...

[१)सांद्रण=घना करने कि प्रक्रिया,to concentrate ,ज्यादातर yah 'term' द्रव के विषय में प्रयुक्त होता है यहाँ उपयुक्त अर्थ देने हेतु इसका अपवाद स्वरुप प्रयोग किया गया है....अप्रासंगिक नहीं है..क्योंकि तीक्ष्ण होने के लिए सघन होना पड़ता है, अणुओं परमाणुओं को अधिकाधिक संलग्न करते हुए उनके दायरे का संकुचन करना होता है...अर्थात मन कि शक्तियों को केन्द्रित कर पैना बनाना होता है. २) उदाहरणों की सीमायें है..बस बात कहने का एक जरिया है.]

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