Tuesday, June 8, 2010

द्वेषी...

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नहीं होता है
भय
दीमक
लग जाने का
जड़ विहीन
अमरबेल को,
किन्तु
जिस वृक्ष की
जड़े हों
गहरी
गिराने
उसको
हो जातें हैं
सक्रिय
क्षण प्रतिक्षण
द्वेषी बहुतेरे...

यह बात
और है
लौट जाते हैं वे
थक कर
या
तौड़ देते हैं
दम
हार कर
इस
नाकामयाब
जद्दोजेहद में...

शज़र का क्या ?
अडिग खड़ा
देता है छांव
द्वेषी को
स्नेही को
परिचित को
अपरिचित को,
बात है
बस
जड़ों की
स्वभाव की
संस्कारों की...

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