Saturday, April 21, 2012

लेता क्यों थाह आकाश की.....


लेता क्यों थाह आकाश की.....
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पंछी एकाकी
बैठा निज नीड़ 
बसी है मन में 
कैसी पीड़, 
नहीं उड़ता
भोला पंख पसार 
लेता क्यों थाह 
आकाश की ?

प्रातः संध्या में मेल नहीं,
शशि रूठे माने खेल नहीं 
सूरज बूढ़े में बचपन है
यहाँ कुछ भी तो अनमेल नहीं  
तू समझ सीमा 
विश्वास की,
लेता क्यों थाह 
आकाश की ?

तूफाँ का पवन से याराना 
क्यों शम्मा पे जलता परवाना
सच मिल जाता अनुमानों से 
लगता अनजाना पहचाना 
गुल खिला 
मुरझाया 
टपक गया, 
यह कथा अनवरत 
विकास की, 
लेता क्यों थाह 
आकाश की ?

माना कि ख्वाब भी होते हैं
जागी आँखों में सोते हैं 
बनते हैं और बिखरते है 
वे टूट टूट कर रोते हैं,
कंधे लदी है लाश 
विफल प्रयास की,
लेता क्यों थाह 
आकाश की ?

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