Tuesday, May 27, 2014

खुली हुई खिड़कियाँ (नायेदा आपा की रचना का रूपांतरण)

खुली हुई खिड़कियाँ (नायेदा आपा की रचना का रूपांतरण)
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हुसैन सागर के
किनारे
चलते चलते
हल्के कदमो
और
भारी मन से,
माँगा था
उस दिन
जब मैंने
तोहफा
खुलेपन का,
कहा था तू ने,
खुलती है
जब भी ये
खिडकियाँ,
होता है एहसास
एक सिसकती सी
ठंडी सांस को,
महके महके
गर्माहट भरे
खुले आकाश का,
लगता है
नया है
बहुत कुछ
अनजाना सा,
बहुत कुछ है
जानना और
पाना,

उमड़ता है
मगर
कभी कभी
एक तूफ़ानआसमां में,
थपेड़ता है
जोरों से
खुली हुई
खिडकियों को,
ना सिर्फ
खिडकियाँ,
हो जाते हैं बंद
दरवाज़े भी
डर कर
सहमे बिना...

संभाल लो ना
इन दरीचों
दरवाजों को
पहले से ही
अड़गी* पे,
ताकि खो ना दे
वे अपने
नए वुजूद को
और
खुलते रहें
वक़्त के साथ
और ज्यादा,
संभल के
समझ के......

*स्टोपर

Monday, May 26, 2014

हीन भावना (नायेदा आपा की कलम से )

हीन भावना (नायेदा आपा की कलम से )


(मेरी एक सहपाठी की 'पी.एच. डी।' के लिए रिसर्च का विषय था : "इन्फीरियरटी काम्प्लेक्स एंड वोय्लेंस-इन वर्ल्ड हिस्टरी". उस ज़माने में मेरे रिसर्च का काम भी चल रहा था. हम दोनों एक ही गाईड के तहत होने के नाते अपनी बातें शेयर करते थे. हल ही में वे सब बातें खयाल में आयी और नतीजा यह रचना है.)

तारीख के पन्ने
भरे हैं
जुल्म--सितम की
दास्तानों से,
इंसानी फ़ित्रत
परे हैं कब
इन अफसानों से ...

हुए है बहुत
दयानतदार,
मालिक
जेहनी और
रूहानी ताकत के
इंसानी तारीख में,
झलक पाते हैं
उनकी आज भी
तहजीब में....

खोजना था,
हीन भावनाओं का
क्या होता है असर
इंसानी फ़ित्रत पे,
क्यों बरपा करतें है
तहलका
ये लोग
सीधी साधी
कुदरत में...


नाम आये थे
सामने
सितमगर
तेमूर
मामाश्री सकुनी के
हिटलर
रास्पुटिन
क्लियोपेट्रा
महमूद गजनवी और
मुसोलिनी के.....


जिनमें
जिस्मानी कमी थी,
उनमें
हीन भावना
जोरों से जमी थी,
हिंसक
ईर्ष्यालु और
कुटिल थे,
तेमूर और मामाश्री
अति-जटिल थे....
यह निष्कर्ष
गलत ही नहीं,
बे-बुनियाद था,
शेर--पंजाब
राजा रणजीत सिंह का
सेकुलर और डेमोक्रेटिक
जज्बा
हमें खूब याद था,
ध्रितराष्ट्र की अपनी
मजबूरी थी,
सूरदास की
रचनाएँ भी तो
कहाँ अधूरी थी.....

फिर हिटलर
रास्पुटिन
क्लियोपेट्रा
महमूद
मुसोलिनी तो
पूरे थे,
उनकी बर्बरता के
किस्से,
क्या बेबुनियाद और
अधूरे थे ?

एक बात सब में थी
समान
इन्फीरियरटी काम्प्लेक्स या
हीन भाव की,
वो ही
इर्ष्या
द्वेष
हिंसा
प्रतिहिंसा बन,
बदल देती थी
तस्वीर उनके
स्वभाव की.....

दूसरों से जलना/
प्रभुत्व
हासिल करने
कुछ भी कर देना
उनकी आदत थी,
ऊँचे उसूलों की आड़ में
खुद-परस्ती और
हावी होना
उनकी ताकत थी.....

आगाज़ बुलुंद था
मगर जिंदगी
बेसकून थी,
आखिर था
दर्दनाक
हर बात बस
जूनून थी.....

हीन भावना के
शैतान ने
खुदा से
दूरियां बढाई थी
इन भटके हुओं के
करतबों से
इन्सानियत
शरमाई थी.....