Tuesday, April 26, 2011

हस्सास....

# # #
खाकर
पछाड़
लग जाती
किनारे के
सीने से
समंदर से
खफा
वो शोख लहर,
हस्सास किनारा
लौटा देता है
मगर
समझा कर
उसको
फिर से
अपने घर...

(हस्सास=संवेदनशील)

ढलान....

# # #
मूक
साक्षी है
हर उठान से
जुडी
ढलान,
गिरे थे
लुढ़के थे
कैसे
उत्तुंग शिखर
बन कर
ढेले और पत्थर...

Wednesday, April 20, 2011

छलावे..

# # #
वक़्त और
तकदीर
दो छलावे,
ताजिंदगी
जिये जाते हैं
जिनको हम
इत्मीनान से...

मंदिर-मस्जिद

# # #
होता है
जहाँ मन
स्थिर,
समझलो
वही है
मस्जिद
वही है
मंदिर..

Friday, April 15, 2011

बिखरे से लम्हे -अंकित भाई द्वारा रचित

( देवनागरीकरण -मुदिता मासी)

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बिखरे से लम्हे : अंकित

नहीं जानता यह त्रिवेणियाँ है, शे'र है या कुछ और. बस इतना ही कि अलग अलग लम्हों में कुछ जज्बात, कुछ सोच, कुछ कहने, कुछ सुनने उभरे, उन लम्हों को कलम बंद करने की कोशिश की. आज उन्ही लम्हों को आपके साथ बाँटने के लिए हाज़िर हुआ हूँ.

*(१)

बंद आँखों को अँधेरे सताते हैं,
जगे रहने से एहसास.
ए रात बता अब मैं क्या करूँ ?

*(२)

कौन किस को ढूंढ रहा था ना जाने,
कौन कर रह था किस का इन्तिज़ार.
चाँद को तेरी खिड़की के बाहर देखा गया.

*(३)

सपने सो गए थे थक कर,
तुम ने इतना क्यों ताका था.
बदलते हुए चाँद को.

*(४)

'तुम' 'मैं ' हो...'मैं ' तुम,
फिर संग चलने की आस क्यों.
क्यों ना अपनी अपनी राहों से चल,
पहुंचे संग संग मंजिल को.

*(५)

आओ मौन होकर,
महसूस करें एक दूजे हो.
बोलने से बातें परायी हो जाती है.

-अंकित

आचार...

# # #
पकाए
परोसे
कुंठाएं
विकार,
पाचक
संग में
झूठ के
आचार..

एक ही शिकवा

(नज़्म मेरी नहीं मेरी एक सीनियर दोस्त की है अच्छी लगी, शेयर कर रही हूँ)

# # #
गुजरे हैं
तूफाँ कितने
इस गुलशन से होकर,
हुए बर्बाद
गुल सारे
ना हुआ कोई
काँटों पे असर....

मुझे क्या
जन्नत
क्या दोज़ख,
मुझे क्या
देरो हरम का सरोकार,
मिल जाये
बस यह दुनिया,
आती है जहाँ
खिज़ा-ओ-बहार...

रहती है
तुमको
सारे जहाँ की
फ़िक्र,
मुझको है बस
एक ही शिकवा
ए मेरे हमसफ़र,
जब भी करूँ
मैं अपने ग़म का जिक्र,
कहता है तू
छोड़ न इसको
कोई और बात कर....

पैमाना..

# # #
तोडा है
मैं ने
जब से
तेरा-मेरा
पैमाना,
अंजुरी
अपनी से
पी लेते
अब
मनमाना...

अहम्....

-#-
अहम् ,
बाबत
खुद के
एक
घटिया सा
बहम....

अनुभूतियाँ

# # #
जुडा है जो
स्थितयों से
है परिवर्तनीय
परिस्थितियों से,
प्रभावित है
सतही सम्बन्ध
विसंगतियों से,
नहीं है
यथार्थ
भावों का दुराव
हृदय की
अनुभूतियों से...

फर्क ....

# # #
होता नहीं
फर्क कोई
जायका-ए-ज़बाँ में,
भरा हो शहद
चाहे
सोने के कटोरे
या
माटी के सिकोरे में..

Monday, April 11, 2011

क्यों खिलता है फूल : नायेदा

# # #
उस दिन हो गयी थी
मुलाक़ात मेरी
फूल से,
पूछ बैठी थी मैं,
ए दोस्त !
खिलते क्यों तुम ?
जिज्ञासा थी
सवाल में मेरे
आश्चर्य
और
ईर्ष्या भी...

सहजता से पूछ लिया था
फूल ने भी मुझ को,
"बताओ
तुम भी क्या सोचती हो -
मैं खिलता हूँ क्यों ?"

जैसा कि होता है,
हमारे बेमानी,
या
बेमायने वाले सवाल
और
अपने दिमाग में,
पहिले से भरे जवाब
होते हैं अक्स
हमारी सोचों के,
कह डाला था मैंने भी :
तुम खिलते हो
दूसरों को
देने के लिए
खुशबू...

फूल ने 'ना' में हिलाया था
सिर,
बोला था :
तब तो मुझे
खिलने के लिए,
किसी और का
करना होगा इंतज़ार,
या
रखना होगा उसको
हर वक़्त
अपने तस्सवुर में,
या होगा स्वीकारना ,
उस फानी शै का
अस्तित्व,
क्या मेरा खिलना
नहीं हो जायेगा
निर्भर उस पर ?
उसके ना होने के
एहसास से
रुक ना जायेगा
मेरे खिलने का क्रम ?

बोला था फूल:
कुछ और सोचो
और कहो.

कहा था फिर मैंने :
तब तुम खिलते हो
पाने के लिए
कोई इनाम...

फूल ने फिर 'ना' में
सिर हिलाया था,
बोला था फूल :
नहीं खिलता मैं
पाने हेतु
कोई पद्म पुरष्कार
या
वीर चक्र ,
मिलतें है वे तो कुछेक को ,
जब कि खिला करते हैं
फूल तो सारे,
कैसे होगा यह चयन?

बोला था फिर फूल:
कुछ और सोचो और कहो.

मैंने कहा था :
तब तुम खिलते हो
पाने के लिए
जग़ में
इज्ज़त और औहदा.

फूल ने एक बार फिर 'ना' में
हिला दिया था सिर अपना.
बोलाथा :
मुझे एहसास है
जनम के साथ ही
अपने
अल्प आयुष्य का ,
मुझे तोडा जाना है,
या गिर जाना है
मुरझा कर,
फिर
कैसी इज्ज़त ?
कैसा औहदा ?

बोला था फूल:
कुछ और सोचो और कहो.

जवाब दे चुका था
धैर्य मेरा ,
फूल के सटीक बयानों ने,
कर दिया था पस्त उसने
हौसला मेरा...
मगर सच को
जानने की उत्कंठा,
दे रही थी
हिम्मत मुझ को..

कहा था मैंने :
फिर क्या है मकसद
खिलने का तुम्हारे ?
क्या तुम हिलते डुलते हो
बिना मकसद के
इंसानों की तरहा ?
और खिलते हो
बस यूँ ही ?

फूल मंद मंद मुस्काया,
मुझ को भी थोडा चैन आया,
फूल ने कहा था झूमते हुए :
मैं अपने आनन्द,
अपनी मौज,
अपने सुकून में खिलता हूँ,
तुम्हारी बात में भी
आधा सच है,
मैं बिना मकसद खिलता हूँ,
मेरे खिलने में
'के लिए' नहीं'
बस 'में' है,
मैं खिलता हूँ जीने के जज्बे में ,
मैं खिलता हूँ मरने की मुक्ति में,
अंतिम सत्य जान चुका हूँ मैं,
इसलिए
दोस्त !
मैं खिलता हूँ
अपने दीवानेपन में...


मैं तबसे
'के लिए'
और
'में', के
रहस्य को जानने,
करने और होने के
भेद को आत्मसात करने,
समग्र स्वीकृति को अपनाने,
और
साक्षी भाव को हासिल,
करने के क्रम में,
खिले हुए फूल की,
संगत में,
मुझ जैसे बहुतों,
की पंगत में,
हूँ शुमार ....

Sunday, April 10, 2011

दर्पण : अंकित भाई

# # #

जीवन
हमारा है
एक दर्पण,
हम निशि-दिन
जमने देतें है
धूल
इस उजले दर्पण पर,
करते नहीं
प्रयास कभी
हठाने का
मेल इसके आंगन से
और
हो जाता है
नितान्त अंधा
अपना यह दर्पण,
कोई और तो क्या
हम स्वयं
देख नहीं पाते
प्रतिबिम्ब अपना सम्पूर्ण
होतें हैं जब जब
हम
सम्मुख
दर्पण के...


जब भी हम
सोचें औरों को
और
करें
उनकी व्यर्थ
आलोचना,
ठहरें तनिक
और
करें पूर्व उसके
सामना
उजले
दर्पण का....


दर्पण
मिथ्या न बोलेगा
जैसा है
वैसा ही
भेद वह
खोलेगा,
आओ
अपने मन को
दर्पण बनाये,
भले बुरे
सारे कर्मों को
देखें और
दिखाएँ...

Tuesday, April 5, 2011

प्यार भरा दिल

# # #
गुज़र कर
झरोखे की
जाली से,
टूट कर
कई टुकड़ों में
सर्द रुत की
धूप का
प्यार भरा दिल
गया है
बिखर
दीवानखाने के
कालीन पर
और
गरमा रही है
कलेजे को अपने
'पूसी' *
मेरी लाडो
चिपका कर
उनसे...

*बिल्ली..