Wednesday, June 23, 2010

कैसा था वो मंज़र सुबहा का...

# # #
कैसा था वो मंज़र सुबहा का...

सैर के बाद
रेबोक और नाईक पहने
चबा चबा कर
अंग्रेज़ी बोलते
या साहित्यिक
हिंदी उर्दू में
बतियाते
रीमलेस ऐनक लगाये
फ्रेंच कट दाढ़ी
मोटी तौंद वाले
चंद विचारवान
जिम्मेदार शहरी
भद्र लोग
कर रहे थे
चर्चा
बाल मजदूरों के
शोषण पर,
गरमागरम थी
चर्चा,
हर कोई अपने
महान विचारों को
कर रहा था पेश.....

एक ने कहा
हमें इन मजलूम बच्चों को
अपने बच्चों की
नज़र से देखना होगा,
दूसरे ने कहा
ये भी इन्सान है
इन्हें भी पढने लिखने और
आगे बढ़ने का हक है.
तीसरा भावुक हो रहा था,
अरे इन्ही में तो
बसते हैं भगवान्,
चौथे को शिकायत थी
सरकार से
जो इन बाल मजदूरों के लिए
कुछ भी नहीं कर रही.
पांचवे को तो हो रही थी
कोफ़्त
अल्लाह ताला से
क्यों पैदा किया
इन्हें गरीब के घर.
एक महाशय
कोर्पोरेट जगत के थे
कंपनी के खाते में
हर महीने
विदेश जाते थे
बताया था उन्होंने,
मग्रिबी मुल्कों में
बात कुछ और है
वहां बच्चों और बूढों की
कद्र यहाँ से 'मोर' है .
देखा इतने में
एक दस वर्ष का मासूम
लगभग इसी उम्र के
मालिक का
बोझिल बस्ता
स्कूल बस तक
ढ़ो रहा था,
सुबहा सुबहा ऐसा ही
एक बालक
मलकानी की थप्पड़ खा
रो रहा था
सन्डे का दिन था
मोर्निंग वाकर्स भी
थे फुर्सत में
टाइम पास का
अच्छा सब्जेक्ट था,
बुद्धि विलास
टाईम पास
मनोरंजन बस प्रोजेक्ट था,
चाईल्ड लेबर से बात
चाईल्ड अब्यूज
बच्चों के यौन शोषण
और
सेक्सुअल पर्वर्सन तक का
सफ़र तय कर चुकी थी
लुत्फ़ से उस
मजलिस की बांछे
खिल चुकी थी.
मिस्टर पोद्दार ने
अच्छी खासी गाली देकर कहा था,
"एय रमुआ, माँ के खसम
देखता नहीं है
साब लोगों को
एक एक सिकोरा
केसरिया चाय
और होना..
ला ज़ल्दी से ला फिर
अपनी बहन के संग सोना.

बारह साल का रामुआ
सोच रहा था,
अगर उसकी माँ का खसम
पोद्दार सा होता
वह भी रामेश पोद्दार
हुआ होता,
झक्कास युनिफोर्म में
ऑर्बिट च्युंगम चबाता
होण्डा सिटी में सवार हो
स्कूल जा रहा होता...

Monday, June 21, 2010

काल पिंजर...

# # #
निशा
कोयल काली है
दिवस
हंस सफ़ेद,
काल पिंजर
नित ले
फिरा गगन,
कर ना
सका उन्हें
कैद...

प्रतीक्षा

# # #
प्रतीक्षा
चंचल बाला
मन की
आसान जमाये
रहती बैठी
अंखियन के
झरोखों में,
और
ये मुए कान
उस पगली के
कारिंदे,
रहते मुस्तैद
बेताब से
आठों
पहर...

Sunday, June 20, 2010

सत्य के पदचिन्ह ( ?)

# # #
सत्य भी
होता
पांवहीन,
पदचिन्ह
उसके
कहीं नहीं है
बहिरंग में,
भ्रमित
भटक रहा
क्यों
तू प्राणी,
देख उसे
जरा
अन्तरंग में....

(सच और झूठ सापेक्ष होते हैं...मनुष्य अपने मत के अनुसार नाम देकर उन्हें चलाता है...वास्तविक सत्य हमारे अन्तरंग में होता है..जिसे बस अनुभव किया जा सकता है परिभाषित नहीं किया जा सकता..कहा जाता है झूठ के पाँव नहीं होते...हम सत्य के बारे में ऐसा कहने में घबराते...हिचकिचाते हैं...किन्तु कवि के सोचों की उड़ान की कोई कंडिशनिंग नहीं...वह तो उन्मुक्त है..इसलिए सत्य को आज मैंने अपाहिज कह दिया....)

कैसी विडम्बना...

# # #
मधुसंचय
श्रम में
मधुपर्णी ने
लगाया
श्वेद और
हृदय,
इलाज़ में
नुस्खा
औषध का
किन्तु
लिखता जाता
वैद्य...

(मधुपर्णी=मधुमख्खी)

Saturday, June 19, 2010

एक छोटी सी कविता

# # #

जिन्दगी में
तुम आये,
जिन्दगी
मुस्कुरायी,
जिन्दगी
खिलखिलाई,
सपनो को भी
पंख लग गये,
दिल के अरमां
जिन्दा हो गये,
कलियों से
खिलकर
फूल होगये,
शूल भी
राहों में
बिछे
फूल होगये,
जिन्दगी में
सारे रंग
भर गये,
मरुस्थल सी
जिन्दगी
हरियाली का
चमन हो गयी,
सूखी नदिया
बहता
एक
झरना हो गयी...

पूर्णता..

'मननीय' स्तम्भ के अंतर्गत मधु संचय के इस अंक में गुरु गोरखनाथ की यह वाणी संकलित की गयी है :

"भरया ते थीरं झलझलन्ति आधा, सिधें सिधें मिल्य रे अवधू बोल्या अरु लाधा."

भावार्थ है- आधा भरा हुआ घड़ा खूब आवाज़ करके अपने अधूरेपन की जानकारी सबको दे देता है, लेकिन जिस प्रकार पूर्ण कुम्भ को लेकर चलने पर किसी को पाता नहीं लगता है; उसी प्रकार सिद्ध जन से सिद्ध जन का मिलन जब होता है तो उनकी वार्ता बिना शब्दों के ही हो जाती है. आवश्यक होने पर भी वे कुछ बोलते है तो अनुभूत सत्य के बारे में संक्षिप्त बात होती है.
एक नेनो इस भाव के साथ :
आधा भरा : पूरा भरा
# # #
आधा भरा
घट
करके
खूब आवाज़
बता देता
हकीक़त अपनी,
नहीं मालूम
होता
मगर
चलना
किसी का
भरे घट को
लेकर...

(गोरख वाणी पर आधारित)

सेहत और सोना

('मधु संचय' में एक स्तम्भ 'स्वास्थ्य' केप्शन के साथ है. सेहत पर गज़ब बात लिखी है एक, मैंने नेनो में ढाल दिया है.)
# # #
सेहत को
कर दी
तू ने
जर्जर
जर बढाने के
चक्कर में,
नहीं
मिटेगा
जरर
अब
इस
बर्बादी-ए-जर में..

(जर=धन/सोना, जरर= नुकसान/हानि ) (मधु संचय सीरिज-जून २०१०)

प्रार्थना

(मधु संचय का अंक मात्र आठ पृष्ठों का है, किन्तु उसमें अथाह मधु भरा है...सुबह सुबह देखा और मुख पृष्ठ पर ही स्वामी सत्यमित्रा नंदजी के प्रार्थना पर विचार बस दो पंक्तियों में दीये हुए हैं...मैंने कोशिश की है उन्हें एक नेनो में भर कर पेश करने की.)
# # #
है क्षण
खुद को
जगाने का
प्रार्थना..

भ्रमित
ना हो
जीवन
निरर्थक,
मार्गदर्शन का
प्रकाशस्तंभ है
प्रार्थना.....

हों विकसित
स्वयं में
अन्तः विश्लेषण
करने का
अवसर है
प्रार्थना....

(मधु संचय सीरिज-जून २०१०)

जुगनू और तारे...

(अगला स्तम्भ है 'स्वाति-बूंद' कवि गुरु टेगोर के शब्द हैं वहां, जिन्हें मैंने एक नेनो में तब्दील किया है.)

# # #
बीच
पत्तियों में
चमकते
जुगनू,
डाल रहे हैं
तारों को भी
विस्मय में ...



(प्रत्येक वस्तु का अपना सौन्दर्य और महत्ता होती है.) (मधु संचय सीरिज-जून २०१०.)

Friday, June 18, 2010

भ्रमित मनोवृति....

(मधु संचय सिरीज-जून २०१०)

# # #
रेत सूखी
लिए हाथों में
भींचते है
मुट्ठियाँ,
फेंकते
रसदार
हिस्सा
खा रहे हैं
गुठsठियाँ !

नीलकंठ

(मधु संचय सीरीज-जून २०१०)

# # #
तह-ए-दिल से
पीकर
गरल
जहां का
बन गया तू
नील कंठ
जगदीश्वर,
शून्यता में
पाकर
पूर्णता
हो गया
तू
अर्धनारीश्वर....

मैंने भी अर्ज़ किया है : खोयी हुई जवानी

(मधु संचय सीरीज-जून २०१०)

# # #
क्या खोजती हो
बड़ी बी !
कमर अपनी
झुका कर
खाक
बिखरी में
अपनी
नज़रें
गडा
कर ?

मुई !
खोजती हूँ
खोयी
अपनी
जवानी,
घर
अपने को
फूंका कर...

चिन्ह...

(मधु संचय सीरीज)

# # #
किया
तू ने
सफ़र पूरा
अपनी
जिंदगानी का,
छोड़ गया
बस चिन्ह
अपनी
भली-बुरी
कारस्तानी का...

दूध और विष...

(मधु संचय सीरीज-जून २०१० अंक)

# # #
सुझाव
सार्थक,
मूढमति को
कर सकते
नहीं कदापि
शांत,
करेंगे
तप्त उसको
प्रत्युत,
कराएँ
यदि
दुग्धानुपान
सर्प को
मित्रों !
होगा
विष
केवल
उत्पत...

सत्यम शिवम् सुन्दरम !

(पत्रिका के हर अंक पर मुख पृष्ठ के शीर्ष पर लिखा होता है : सत्यम शिवम् सुन्दरम !)
# # #
कहतें हैं
सत्य
कटु होता
है
कैसे हो
सकता है
कटु किन्तु
सुन्दर...

सुन्दर बनने
हेतु
बनना होगा उसे
शिव
जहाँ कोई
परते नहीं
जो है
प्रत्यक्ष है..
कितने
विरोधाभास
कितने
ऐसे नज़ारे
जो कुछ भी हों
मगर
इस चमड़े की
आँखों वाली
दुनिया की
नज़र में
सुन्दर नहीं
सुन्दर नहीं...

अघोर,
जटाजूट
सिर पे,
रमाये
बभूत
अर्ध नग्न
तन पर,
शिखा से
प्रवाहित
सुशीतल
गंगा,
तीसरे
नयन में
किन्तु
बसी है
ज्वाला,
अगन और
जल
संग संग..
मेरे मौला !
सूरज सा
तेज़
प्रस्फुटित
मुखमंडल से,
चंचल
शीतल
चाँद को
किन्तु
सुसज्जित
जटाओं पे,
तांडव के
नृतक
नटराज
किन्तु
जमाये बैठे हैं
आसान
स्थिर
कैलाश के
बारीक
शिखर पर,
फकीर सी
शख्सियत
मगर
कहलातें है
त्रिलोकीनाथ,
अपना
कुछ भी
नहीं
मगर
महादानी
अत्यंत,
दे दिया
महल
याचक
विष्णु को
हो कर
फिर से
बेघर,
कराते हैं पूजा
अपने लिंग
एवम्
देवी की
योनि की,
तत्पर है
किन्तु
जलाने
हस्ती
कामदेव
मदन की,
पशुपतिनाथ
किन्तु
बांधे
मृगछाल
कमर को,
तुरंग सुन्दर
उपलब्ध
किन्तु
बनाए
सवारी अपनी
सांड
नन्दी को...
कितनी
गिनाएं
खासियतें
भोलेनाथ की,
दुनियां के
मालिक
त्रिकाल पति,
कहलाने वाले
किन्तु
भूतनाथ की...

तो
सत्य को
होने
सुन्दर
स्वीकारनी
होती है
समग्रता
शिव की तरह,
जहाँ है
असंगतियों
और
विरोधाभासों का
सह-अस्तित्व...

यही है
सत्यम
शिवम्
सुन्दरम !

मधु संचय

(सब से पहले पत्रिका का नाम पढ़ा और यह कविता घटित हुई)
# # #
हम
करने लगें हैं
संचय
विष का
कर के
शोषण
एवम्
विखंडन
औरों का,
भूल गये हैं
हम
शायद कि,
करती है
मधुमक्खी
संग्रह
शहद का
किये बिना
नुकसान
तनिक भी
फूलों का....

क्षण...

क्षण के
आगे भी
क्षण
क्षण के
पीछे भी
क्षण...

भूल जा
उस क्षण को
जो
चला गया;
सजा लो
उस क्षण को
जो है,
ताकि,
संवरे
स्वतः
वह क्षण
आना है
जिसे...

शब्द

शब्द
एक
अंकुरित
बीज
समाया है
जिसमें
अर्थ का
वृक्ष
उगेगा
किन्तु
पाकर
अनुभव की
धरती
संवेदनाओं का
जल....

Thursday, June 17, 2010

तरुवर....

# # #
झुक जाता है तब
फलों से लदा
शज़र
अपनी फ़ित्रत के तहत
देता है छांव
जब वह दरख़्त
मिट जातें हैं भेद
गैरों ओ अपनों के
उसकी कुदरत के तहत...

जपतें हैं प्रभु नाम
दरवेश... उसके तले
छांव में उसके कभी
किसी बुद्ध का
आत्मज्ञान फले
परिंदों ने डाले हैं
उसकी शाखों में डेरे
बच्चों के खिलखिलाते
झुण्ड करतें हैं उसके फेरे...

उसके लिए है ना कोई
गरीब और अमीर
कहा था किसीने जगा कर
अपना जमीर
"तरुवर फल नहीं खात है
नदी ने संचे नीर
परमारथ के करने
साधु ने धरा शरीर...."

Wednesday, June 16, 2010

समग्र जीवन (एक तिकड़ी)

# # #
चलो जी लेते हैं आज एक समग्र जीवन
'तुम' 'तुम' ना रहो 'मैं' 'मैं' ना रहूँ....

शायद पहिले ऐसा ना था....

'त'

This write just happened...this is not a literary piece but a child game type exercise...This jumble of words with its deep meanings, is addressed to those who instigate terrorism........humbly sharing with you...for meanings please see next column where i have given the meanings of Urdu words in English side by side, for better flow of understanding. Please, excuse me for one or two grammatical errors.......i have ignored them in the interest of poetry composition.
__________________
'त'
# # #
तफरीक
और
तबर्रा
तफरीह है
तुम्हारी,
तफ़सीर नहीं...

तफावत की
तफसील
तबर है इक
तहरीर नहीं...

तहम्मुल की
तलकीन
तासीर है
हमारी,
तसव्वुर में
तामीर हुई
कोई
तस्वीर नहीं...

तहमतें
लगाना
तौहीन
करना
तुअना है
तमकिनत
तुम्हारी का,
तकदीर वो
हमारी नहीं...
_______________

'त'
# # #
तफरीक (अलग करना)
और
तबर्रा (किसी के प्रति घृणा प्रकट करना)
तफरीह है (मनबहलाव)
तुम्हारी,
तफ़सीर नहीं...(टीका भाष्य- किसी धर्म ग्रन्थ का)

तफावत की (फर्क)
तफसील (व्याख्या)
तबर है इक (कुल्हाड़ी)
तहरीर नहीं...(लिखित प्रमाण)

तहम्मुल की (सब्र के साथ रहना)
तलकीन (शिक्षा)
तासीर है (गुण का प्रभाव)
हमारी,
तसव्वुर में (कल्पना)
तामीर हुई (रचना)
कोई
तस्वीर नहीं...(चित्र)

तहमतें (बदनामी लगाना)
लगाना
तौहीन (अपमान)
करना,
तुअना है (गर्भपात)
तमकिनत (प्रतिष्ठा)
तुम्हारी का,
तकदीर (भाग्य)
वो हमारी नहीं.....

Tuesday, June 15, 2010

अति : Excess

# # #
फल
गिरता है
होकर
सरोबार
रस से...
फूल
झरतें है
होकर
विहीन
रस से...

पहला
अध गया है
सुख से
दूसरा
हो गया
क्षीण
दुःख से...

गिराती है
अति दोनों की
सुख की भी
दुःख की भी...

प्रभाव

# # #
हिमपात और
गरम का
एक ही मूल
स्वभाव,
सूख जाता है
तरु
होता जब
दोनों का
प्रभाव.....

विकार

# # #
दर्पण को
अर्पण हुई
कर गौरी
श्रृंगार,
पर किंचित
जगा नहीं
दर्पण-मन
विकार...............

Monday, June 14, 2010

Leadership : नेतृत्व

# # #
सच्चे मार्गदर्शक
कदाचित ही
ज्ञात होते हैं
अनुयायियों में,

तदनंतर
आते हैं नेता
ज्ञात एवम् प्रशंसित
जन जन में,

उनके पश्चात
होतें हैं वो
जिन से
होतें हैं
भयाक्रांत
लोग,

कुछ ऐसे भी
होतें हैं
तथाकथित नेता
हेतु जिनके
तिरस्कार और
घृणा
होती है
जनता-जनार्दन में.

बिना दिये
अवदान
विश्वास का
प्राप्य होना
असंभव है
आस्था का,

मुस्कुराता है
शांत
उत्साहित
संतुष्ट
मार्गदर्शक,
विस्मृत कर
अहम् एवम्
आत्मश्लाघा को
कार्य सुसम्पादन के
उपरांत
एवम्
करके श्रवण
उद्घोष
सामान्य-जन का:

“हम कर सके यह कार्य सुसंपन्न !”

“हम ने किया है यह उत्तम कार्य !”

“हम कर सकते हैं सब कुछ !”

(Based on TAO TE CHING of LAO-TZU)

Sunday, June 13, 2010

प्रेम : A One-sided Note

(प्रेम को एक नज़रिए से देखा है...किसी के लिए भोगा हुआ यथार्थ हो सकता है, किसी के लिए बुद्धि विलास, किसी के लिए ब्रहम सत्यम जगत मिथ्या का सन्देश, किसी के लिए एक प्रतिक्रियात्मक लेखन, सच तो यह है कि प्रेम के बिना सब सूना...मगर ऐसा भी तो सोचा जाता है ना कभी कभी...पाठकों ! "यह अभिव्यक्ति एकांगी है... बिलकुल सापेक्ष")

# # #

प्रेम एक
दुर्लभ
पुष्पगुच्छ,
उपहार द्वारा
ले आता है
समीप
फिर करता है
जिद्द
पुष्पों से
अनुपान
करने की,
कर देता है दग्ध
वचनों
एवम्
इन्द्रियों को,
करता है
हरण
दृष्टि और
विवेक का,
करते हुए
नयन-हीन
प्रेम-अभिनेताओं को,
करके विचारों से
युक्ति( logic ) को पृथक
कर देता है,
तीव्र गतिमान
दिशाहीन
प्रवाह में
सम्मिलित.....

प्रेम,
करता हुआ
अभिनय
सोम रस का
बन जाता है
कालकूट ;
अथवा
जैसे हो
कोई
गंधहीन-रूपहीन
द्रव जो,
जलाता है ---
झुलसाता है,
नहीं छोड़ता
कोई भी अवशेष
ना धुंवा
ना भस्म...

प्रेम है
मदिरापात्र में
भरा
एक
प्राणघाती विष...

नोट्स : १) प्रेम २) आक्रामक

प्रेम
# # #
प्रेम एक
दुर्लभ
पुष्पगुच्छ
उपहार द्वारा
ले आता है
समीप
फिर करता है
जिद्द
पुष्पों से
अनुपान
करने की,
कर देता है दग्ध
वचनों
एवम्
इन्द्रियों को,
करता है
हरण
दृष्टि और
विवेक का,
करते हुए
नयन-हीन
प्रेम-अभिनेताओं को,
करके विचारों से
तर्क को पृथक
कर देता है
तीव्र
गतिमान
प्रवाह में
सम्मिलित.

प्रेम
करता हुआ
अभिनय
सोम-रस का
बन जाता है
काल-कूट;
अथवा
जैसे हो
कोई
गंधहीन-रूपहीन
द्रव जो,
जलाता है--
झुलसाता है,
नहीं छोड़ता है
कोई अवशेष:
ना धुआं
ना भस्म.

प्रेम है
मदिरा-पात्र में
भरा एक
प्राणघाती विष.

आक्रामक
# # #
मैं
निरीह बन
सहती जाती हूँ
सब कुछ,
लेकिन
भंग होती है
जब
परिसीमा
विखंडित हो जाता है
धैर्य
मेरा
और
मैं हो जाती हूँ
आक्रामक
लगभग
अचानक.

Saturday, June 12, 2010

सम मोर नोट्स : (१) यात्रा (२) मिटटी और पानी

यात्रा
# # #
निरंतर
करने वाला
यात्रा
संसार की,
कर लेता है
भ्रमण
जाने अनजाने
देश-देशान्तरों का,
किन्तु
खो देता है,
कभी कभी
लक्ष्य
अपने
जीवन का....

मिटटी और पानी

# # #

खड़ी थी
उस दिन
उद्यान में
किनारे उस
क्यारी के,
देखा
बढ़ कर
आगे,
पानी
कर देता है
सूखी मिटटी को
गीला
महका
देता है
बदल कर
रंग उसका.



More Notes To Myself : (१) जवाब (२) अविश्वास



(१)

जवाब

मैं तो हूँ
एक घाटी
जहाँ खड़े हो तुम
जो बोलोगे
बस
उसीको
पाओगे
जवाब में....

(२)

अविश्वास

शब्दों के भ्रम
नहीं दे पाते
सुख
मुझ को,
देखती हूँ जो
क्यों झूठ्लाये
जाते हैं वो....

यथार्थ
शब्दों और
आचरण का
जब
हो जाता है
भिन्न,
दे देता है
जन्म
अविश्वास को.....







आग्रह और आत्मलघुता : ' ए नोट टू माईसेल्फ'



जीवन के कटु, मधुर,स्नेहिल,आश्चर्य मिश्रित अनुभवों से कुछ बातें तुरत मस्तिष्क में आती रही थी और कुछ बातें पढने के दौरान मन को छू गयी थी जिन्हें मैंने समय समय पर कुछ पन्नो पर लिख डाला था. उनमें से कुछ-एक को आप के साथ 'नोट्स टू माईसेल्फ' सीरीज में 'शेयर' कर रही हूँ.


आग्रह
# # #

साथ रहते हुए
स्नेह का
आकर्षण
और
स्वामित्व की
भावना
हो जाते हैं
उमड़ते
उफनते
समुद्र के
ज्वार के
सदर्श....
बढ़ता
जाता है
यह
लगाव
तूफानी
वेग से,
आपसी आदर
और
सम्मान
प्रतीत
होतें हैं
केवल
औपचारिकतायें
और--------
सर्वोपरि
होता है
समेट लेने का
आग्रह.


आत्मलघुता
# # #

आत्मलघुता* ( *Low self-esteem)
होती है
अति-दुखदायी.

हीन-भावना* (*Inferiority complex )
ग्रसित
व्यक्ति
करता है
अनुभव
यातना
एक
रमणीक,
संपन्न
और
मनमोहक
वातावरण
में भी.

Friday, June 11, 2010

१) चुनाव २) भय : नोट्स टू माईसेल्फ

)

चुनाव

चुनना है
मुझे
सम्पूर्ण
होने में
अथवा
मानव
होने में.

(सम्पूर्ण=perfect, मानव=human)


)

भय

भय है
निश्चल,
करता है
बाधित
मेरी
अन्तःप्रज्ञा के
श्रवण को.

(भय=fear निश्चल=static अन्तःप्रज्ञा=intuition श्रवण=hearing)




Thursday, June 10, 2010

एक नोट खुद को...

# # #
जब भी कहती हूँ:
"मैं हूँ प्रकृति के साथ."
होता है
मेरा भावार्थ
दूर भागना
मानवों से.

वन और
ग्राम को
करना ही
प्रेम है
यदि:
"होना प्रकृति
के साथ."
तो
करना प्रेम
शहर और
'माल्स' के संग,
क्यों नहीं
कहला सकता :
"होना मानव के साथ."
"होना प्रकृति के साथ"

क्या 'मनुष्य'
नहीं है
अभिन्न अंग
प्रकृति का ?

फकीरी पर दो नेनो

मशहूर सूफी हज़रत ख्वाजा गरीब नवाज़ मुइंनुद्दीन चिश्ती के उर्स मुबारिक का मौका था। अजमेरशरीफ देशी-विदेशी सभी धर्म और जाति के लोगों की हाजिरी पा रहा था, जो पवित्र दरगाह में अकीदत और मुहब्बत के फूल पेश कर रहे थे. उस मौके पर थोड़ी चर्चा फकीरी की करने के लिए ये नेनोस लिखी थी....हालांकि यह बातें ख्वाजा साहब की ज़िन्दगी के मुअतल्लिक नहीं हैं, हाँ फकीरी गरीब नवाज़ का खास विषय रहा था.

सूखी रोटी

# # #
रतनों से
खाजे बने
बनी
गौहरों की
खीर !
सूखी रोटी की
चाह में
भूखा गया
फकीर !!

(गौहर=मोती)

बातें करो संभाल

# # #
मांग रहा है
भूजे चने
औढ़े
रेशमी
शाल !
खयाल करो
अल्लाह का
बातें करो
संभाल !!


Wednesday, June 9, 2010

रिश्तों के रखाव में : विद्या की सार्थकता

(This poem was created in a series inspired by my sister Nayedaaji...The essence of this poem is difference between information, knowledge/skill and education...There were three candidates for the post of Acharya..first one changed the path, second one jumped over the thorns and the third one cleaned the thorns without worrying for the delay as he felt that others are also to use that path....and the third one was selected...now please enjoy the creation.)

# # #

रिश्तों के रखाव में
सहजता का अभाव क्यों ?

एक बौद्ध मठ हेतु
होनी थी
आचार्य की नियुक्ति,
प्रत्याशी योग्य त्रय की
हुई थी तदर्थ प्रस्तुति,
महाप्रज्ञ मोदगल्यायन द्वारा
विचारित थी सूक्ष्म चयन युक्ति,
कंटक तीक्ष्ण बिछाए थे पथ पर
एवम् की थी गोपन स्वयं उपस्थिति,
मार्ग परिवर्तन दृष्टव्य त्वरित
प्रत्याशी प्रथम की थी प्रयुक्ति,
शूलों का त्वरित लंघन
बनी द्वितीय की सफल अनुसुक्ति,
बुहारा तृतीय ने कंटकों को
कर अन्य-हित की सु-स्मृति,
कष्ट निवारण पथिकों का प्रमुख
तत्पश्चात प्राथमिक पदेन प्राप्ति,
विलम्ब फल से जनित भय की
घटित हो गयी पूर्ण विस्मृति,
गुप्त स्थान से थी अवलोकित
महाप्रज्ञ को समस्त स्थिति,
विद्या-सार्थकता आधारित
हुई मोदगल्यायन की संस्तुति,
धोषित पदारूढ़ होने को
हुई तृतीय भिख्खु की उपयुक्ति,
साधु ! साधु ! ध्वनि गुंजरित
करे संघम धम्मम बुद्धम स्तुति...

स्वहित में मार्ग परिवर्तन,
स्वार्थजन्य संकीर्ण आयोजन,
दर्शित प्रसन्न निरंतर जन जन....

किन्तु सह-जनों के हित से
मानव का दुराव क्यों,
रिश्तों के रखाव में
सहजता का अभाव क्यों………..?


(नायेदा आपा की प्रेरणा से...)

Tuesday, June 8, 2010

बूंद एक बारिश की..

# # #

बूँद एक
बारिश की
गिरी थी
पर्वत पर,
और लगी थी
फिसलने
और गिरने
डरती सी
सहमती सी
लुढ़कती
लुढ़कती...

आन मिली थी
अपनी सी
चन्द बूंदों से
और
बन गयी थी
सरिता,
बढ़ रही थी
बहते बहते
मिलने
सागर से....
असीम से...

नहीं सोचा था
उसने कभी
ऐसा भी होगा
उसका
यह
अचिंता
मनोरम रूप....

अपनी फ़ित्रत


# # #
आइना
दिखायेगा
महज़
चेहरा तुम्हारा
तुझको,
जानना है

गर

फ़ित्रत
अपनी को
कुदरत
अपनी को,
निकाल ले
कुछ लम्हे
तन्हाई के,
झांकने को
खुद में...

द्वेषी...

# # #
नहीं होता है
भय
दीमक
लग जाने का
जड़ विहीन
अमरबेल को,
किन्तु
जिस वृक्ष की
जड़े हों
गहरी
गिराने
उसको
हो जातें हैं
सक्रिय
क्षण प्रतिक्षण
द्वेषी बहुतेरे...

यह बात
और है
लौट जाते हैं वे
थक कर
या
तौड़ देते हैं
दम
हार कर
इस
नाकामयाब
जद्दोजेहद में...

शज़र का क्या ?
अडिग खड़ा
देता है छांव
द्वेषी को
स्नेही को
परिचित को
अपरिचित को,
बात है
बस
जड़ों की
स्वभाव की
संस्कारों की...

Monday, June 7, 2010

आदत सी हो गयी है.....

# # #
जन्मते हैं
स्वप्न
सत्य की
कोख से,
उतरती
नहीं
बात
यह
गले उनको
सत्य को
जिन्हें
अक्षुण
कुंवारी
मनने की
आदत सी
हो गयी है.....

क्या जाने
जड़ों की
हकीक़त को
वो निरीह बन्दे
जिन्हें
गिनती
पत्तों की
करने की
आदत सी
हो गयी है.....

सियार की कैद में सिंह...

# # #
पकड़ा तू ने
लफ्ज़ को,
वह है
धारदार
हथियार,
छोड़े तो
खाये उसे,
ज्यूँ
किया
सिंह को
कैद
सियार.

स्वाधीन....


#
# #
मारोगे फूंक
बुझ जायेगा
दीया
,
वो है
तेरे आधीन,
नहीं
बुझेगा
सूरज कभी
वह तो है
स्वाधीन
..
...

सौगातें.....

# # #
बने हैं
हम
बैल
कोल्हू
के,

पड़ी है
नकेलें
शब्दों की,
होगी
विमुक्त
जब
चेतना,
मिलेगी
सौगातें
अशब्दों की.....

Sunday, June 6, 2010

गिरगिट....

# # #
देखा करती थी
बचपन में
रंग बदलते
गिरगिट को
मासूम दिल में
उठता था
सवाल,
हर लम्हे यह
कैसे बदल
सकता है रंग ?
आज
देखती हूँ
जब
इंसानों के
बेढंगे ढंग
उनके भी
बदलते रंग
मेरे त-अ-ज्जुब की
झीनी सी
चादर
नज़र
आती है
बेरंग....

हमसफ़र...

# # #
बनाया था
हमसफ़र
तिनके ने
प्रवाहमय
वेगवती
पवन को
सोच कर :
इस से
शानदार
साथी
मिलेगा कहाँ ?
गिरा था
तिनका
अगन की
लपटो में,
काश !
समझ पाता
पहले से ही
पवन के
स्वभाव को..........

कठपुतली

# # #
तनक़ीद ने
किया
आग बबूला
तारीफों ने
जिसे
फुलाया,
कठपुतली है
इन्सां नहीं
भरोसा
खुद पर
जिसे
ना आया.

Saturday, June 5, 2010

फ़र्ज़ अदाई...

# # #
पञ्च सितारा
होटल के
अगवाड़े कि
पिछवाड़े
मरियल से कुत्ते
और
फटेहाल
मैले कुचेले
चिंथड़ों में
खुद को लपेटे
मशगूल थी
कुछ इंसानी शक्लें
अपने पेट की
अगन को
देने आहुति,
चकाचक सूट
नेक टाई
चमचमाते जूतों में
जन कवि गुज़रा था
उसी राह
बटोरने तालियाँ
गरीबी और
भूखमरी को
गाकर...

उसे करनी थी
इतिश्री
बस कह कर
अपने फ़र्ज़ की,
और
सुनकर
हाथों से हाथों को
टकरा
सब कुछ
झटका कर
करनी थी
फ़र्ज़ अदाई
सुननेवालों को..

हिकारत से
देखा था
उसने
और बढा दिये थे
कदम तेज़ी से,
चेहरे पर
घिन्न के
यथार्थवादी
चिन्ह लिए..

कवि सम्मलेन
कहीं और नहीं
हो रहा था
उसी
पञ्च सितारा में
जहाँ बहनी थी
सुरा
चहकनी थी
बुद्धिजीवी
सुंदरियां
और
उघड़ जाने थे
लपलपाते
छद्म शब्दकार,
जिनकी जेहन के
कब्रस्तानों में
दफ़न थी
चंद जिंदा कुंठाएं..
जिन्हें दे रहे थे
हवा
नव धनाढ्य
सरमायेदार..

वैसे ही लगे थे फल...

# # #
कानों को
दूसरों के
समझ कर खेत
मन किसान ने
बोये थे बीज
वचनों के
बना कर
जिव्हा को
हल,
जैसे थे बीज
वैसे ही
उगे थे बूटे
वैसे ही
लगे थे फल....


(A Rajasthani Wisdom)

बहता ठहरा पानी...

# # #
देख कर
सामने
गड्ढे को
आ गया था
लालच
बहते पानी को,
सोचा था उसने :
क्यों नहीं कर लूँ
विश्राम तनिक ?
बदल डाली थी
उस ने
चाल अपनी
समां गया था
खड्ड में
बहता पानी
हो गया था
ठहरा पानी ;
वक़्त बीता
बन गया था
कीचड
फैलने लगी थी
बदबू....

कांटे....

करता है
क्यों
अदावत,
काँटों से
अपना कर
उन को
बना ले
बाड़ तू,
करेंगे
रखवाली
बैरी नहीं
दोस्त
बन कर
तुम्हारे ही
खेत की
खलिहान की
घर की
और
गाँव की....

आशियाँ...

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उड़ते हैं
परिंदे,
आसमां में,
इस छोर से
उस छोर,
मगर
बना
नहीं
सकते
घोंसले
अपने
फलक में...

बनाने को
घर,
होता है
उतरना
जमीं पर,
खोजनी
होती है
पखेरुओं को,
शाख वह
जहाँ
तिनका
तिनका
जोड़
बना सकें
वो,
आशियाँ
अपना...