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Wednesday, November 30, 2011
मंजिल..
# # #
खिल कर
गिरा था
हो कर फ़ना
खूब खिला
खूब महका
फूल
जड़ के ही
पांव में,
मंजिल
रूहानी
सफ़र की
होती है
अपनी
पनाह
और
खुद की ही
छांव में..
(अलफ़ाज़ दिये हैं सर के किसी खास मूड में सुनी बात को.)
Tuesday, November 29, 2011
आगाज़...
# # #
क्यों बहूँ मैं
बहाव के संग,
नहीं मिलना मुझ को
खारे समंदर से,
तैरुंगी मैं
बर-खिलाफ इसके,
पहुँचने
पहाड़ की
ऊँची चोटी तक,
आगाज़ है जहाँ
कलकल बहती
इस पाकीज़ा नदी का...
Sunday, November 27, 2011
प्रतिच्छाया....
# # #
सूरज न होता
उदय-अस्त
भ्रमित हमारे
नैन,
जो तपे निरंतर
गगन में,
प्रतिच्छाया
उसकी रैन...
बिना दृष्टि...
# # #
बिना दृष्टि के
शब्द है
लेखनी मल
समान,
क्यों छींटे
काला सतत,
बिसरा
कागज
सम्मान.
निहाल..
# # #
गिरी सागर में
गगन से,
भई सागर
तत्काल,
'मैं' जब छूटी
बूँद से,
हो गयी बूँद
निहाल...
खिंच आता है
कुछ ऐसा
जीवन में
जिससे
बढ़ जाती है
ऊर्जाएं
और
होता है घटित
सामर्थ्य
उस निराकार को
आकार देने का
स्व-हृदय में...
मैत्री...
# # #
ना जाने क्यों
बांध देते हैं
हम
मैत्री सी विराट
भावना को
समय
देह
और
नेह के
संकीर्ण
घेरों में..
होती है मैत्री
साक्षी
सत्य की
अस्तित्व की
जीवन की
काल की,
करते हुए
प्रवाहित
असीम जीवन उर्जा....
होती है
रूह
मित्र
रूह की,
गुरु भी,
सेवक भी,
प्रेरक भी,
मार्गदर्शक भी,
सखा भी
साथी भी
साक्षी भी...
(इसमें नया कुछ भी नहीं है...लेकिन कम में सब कुछ समेट लेने का प्रयास है. आशा है मेरे पाठक, एक एक शब्द पर गौर फर्मायेगे,)
क्या नाम इसका प्यार है...
# # #
महक से
क्या फूल का यह
अनलिखा करार है,
पहले
तुझको
सौंपूं
हवा को
और
खुद झर जाऊं
मैं फिर,
या कहीं
क्या नाम
इसका
प्यार है ?
Wednesday, November 16, 2011
दास्तां..
# # #
सुन रहा था
मेरी कहानी
शिद्दत से
जमाना,,
ये तो
थे हम ही
के पाये गये
सोये,
अफसाना
कहते कहते..
Tuesday, November 15, 2011
सफ़र...
# # #
कितनी
आसां है
राह इज़हार की
बस
अलफ़ाज़,
काफिया
और बहर...
होता है
मगर शुरू
ख़ामोशी के
बियावां से
एहसास को
महसूस करने का
सफ़र...
Sunday, November 13, 2011
सापेक्ष..
# # #
ढेर गन्दगी का,
जन्नत है
बीज के
खातिर
और
है वही जहन्नुम
एक फूल के
खातिर....
Thursday, November 10, 2011
धूर्त
# # #
बेधड़क सोये
शेर को
दंश लगाया
मच्छर,
जागा वनराज
दहाड़ा भी,
लहू वो
पीता रहा
निरंतर..
कीचड़ की कहानी.....
# # #
कर दिया
इनकार माटी ने
समा लेने
खुद में
पानी को
और
पानी ने भी
दिखा दिये तेवर
'नहीं बहाऊंगा
माटी को
संग अपने,
बस हो गया था
यहीं से
आगाज़
'कीचड़ की कहानी' का...
साक्षी..
# # #
रहता है
बन कर
साक्षी
मर्यादा का
यह किनारा,
बिसरा कर
सब कुछ
निगलती उगलती
रहती है जिसको
निरंतर
सागर की
चंचला लहरें..
Tuesday, November 8, 2011
जीवन और मरण
# # #
देन है
एक अनुभूति की
यह जीवन,
बना देता है
जिसको
फिर से
एक अनुभूति
मरण !
जाला...
# # #
मकड़ी ने जाला
बुना
निकाल देह से
तार,
माया ठगनी ने
रचा
दिखता जो संसार
(राजस्थानी सूक्ति से प्रेरित)
सांच और आंच..
# # #
नयनों के इसी
महल में,
बसती है
संग
सपनों के
अक्षत कुंवारी सांच,
क्या मजाल जो
आये
उसके सतीत्व पर
हल्की सी कोई
आंच..
भूल...
# # #
भूल हुई
पर
भूल को
जाना मत
तू भूल,
होश रहे
घट में सदा
यह
भूल-सुधार
उसूल.
वीतराग
# # #
मोह बंधन से
हो परे
निर्मम
ना होते
संत,
वीतराग का
अर्थ है
करुणा सिन्धु
अनन्त.
धूर्त
# # #
बेधड़क सोये
शेर को
दंश लगाया
मच्छर,
जागा वनराज
दहाड़ा भी,
लहू वो
पीता रहा
निरंतर..
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Mehaq Jindagi Ki
Vinod Singhi