Sunday, December 25, 2011

काबिले-ए-गौर..

# # #
ज़मीर पर
कर लिया है
खड़ा तुम ने
हिमाला
जमानासाज़ अलफ़ाज़ का,
नहीं निकलेगी
उस से गंगा
रूहानी
एहसासात की,
जो मिला देगी
तुझ को
उस समंदर से,
हिस्स जिसका
बन जाता है
बादल सिफ़र में
बरसता है जो
बन कर
आबे हयात
सूखी प्यासी
तड़फती
ज़मीं पर !
(जमानासाज़=धूर्त/cunning/opportunist. हिस्स=संवेदना)

फर्क...कुहू कुहू

# # #
कोयल को
कौवे के
घोंसले में
खुद के अंडे
रखते देख,
तुम ने भी
रख दिये थे
आँखों में मेरी
अल्फाज़ी एहसास
अपनी मोहब्बत के....

फर्क बस इतना है,
नन्हे चूजे
बन कर कोयलिया
छेड़ेंगे
सुरीली तान
कुहू कुहू की,
और तेरे ये
जूठे झूठे
मुर्दे एहसासात
बह जायेंगे
संग मेरे अश्कों के...

Wednesday, December 21, 2011

ताज़गी सपनों की...

# # #
बरहना है ना
अफताब,
ढकी है
बिजलिया
हिजाब में,
आलसी है ना
समंदर
देखी है
रवानी नदियों में ,
कितना बासी है ना
सच,
हुई है महसूस
ताज़गी
सपनों में ...

Tuesday, December 20, 2011

जब लम्हा आखरी आये...:नायेदा आपा

(नायेदा आपा कभी कभी कुछ ऐसा कह देती है जिसके बहुत गहरे मायने निकल सकते हैं..इन एक्स्प्रेसंस को कोशिश की है मैंने अल्फाज़ देकर आप से शेयर करने की.)
# # #
तू मेरा
कोई नहीं,
मैं भी तो तेरी
कोई नहीं,
कोई तो
किसी का
कोई नहीं.....

क्यों
बैठे रहते हो
दिन रात यूँ
मेरे करीब,
कहती हूँ ना
तुम से
तुम नहीं हो
कोई यीशु,
जो चढ़ रहे हो
सलीब.....

आई थी
मैं अकेली
जाना है मुझे
अकेला,
तुम संग
जो बीता
समझो
था वो
इक हसीन मेला...

चले थे
जब तक
साथ
वो राहें थी
अपनी,
जुदा जुदा है
मंजिल
क्या कथनी
क्या करनी...

कब तक
सहे जाओगे
दर्द तुम पराये,
कब तक
संभालोगे
बोझिल से
सरमाये.....

मानो मेरी
पहचानो ए दोस्त !
बरहना हकीक़त को,
पड़े हो
किस फेर में
छोड़ो
अँधी अक़ीदत को...

फाना पजीर जिस्म से
क्यों
मोह इतना जताते हो,
दिये जा रहे हो
तुम हर दम
बदले में
क्या पाते हो....

मत करो
खुदकशी,
तुम को
कसम हमारी,
हम देख लेंगे
खुद ही
जो भी है
किस्मत हमारी..

रूहानी इस रिश्ते को
अब जिस्मानी क्यों
बनाते हो,
न जाने क्या
निभाने को
खुद को यूँ
सताते हो...

थाम लेना
हाथ मेरा
जब वो मुझे
लेने आये,
मुस्कुरा कर
कर देना रुखसत
जब लम्हा
आखरी आये...

राह खर्च....

# # #
मेहमान बस
तू है यहाँ,
झूठी
मिल्कयित का
दावा कैसा,
कथनी-करनी
पुण्य-पाप
मिल बनेंगे
राह-खर्च का पैसा...

छाया से तुम हो सुहाने....(आशु)

# # # # #
छाया से तुम हो सुहाने,
मगर चुभती धूप सी मैं...

खुशकिस्मत हो
मेरे सजन तुम
दोपहर
शजर के तले बिताते
मगर ये कैसे
ठोस पत्थर
हाय ! मेरे हिस्से में आते.
साँवरिये से
तुम सलोने,
मगर बदसूरत
सोने सी मैं...

वक़्त के तुम
चीर परदे
गूंजते हो
तान बन कर,
और मैं तो
फूल सी हूँ,
धूल होती
सांझ को झर.

तुम बेशक्ल शक्ल होते,
मगर शक्ल बेशक्ल सी मैं...

छाया से तुम हो सुहाने,
मगर चुभती धूप सी मैं...

Tuesday, December 13, 2011

काँटा...

# # #
क्यों हो
शिकायत
तुम ने जो
चुभाया
काँटा ?
जानती हूँ
जो भी मिला
तुमको
उसी को तो
बांटा...

Saturday, December 10, 2011

चले जाना.....

# # #
चले जाना
चले जाना
के नंगे पांवों
चले जाना,
मेरी फ़ित्रत है ये
यारों !
के कोई
फैसला उसका...

चुभन काँटों की
लगती है मुझे
अपनी सी
ए यारों !
तोड़ डाले है
इस दिल को
कुचल कर
टूटना उनका..

Wednesday, December 7, 2011

तन-मन...

# # #
फूल को नहीं
आभास महक का,
खार को नहीं
एहसास चुभन का,
फल नहीं जानता
जायका रस का,
इल्म जो भी है
वह है
हमारे तन-मन का...

Monday, December 5, 2011

गुलाब और पारिजात


# # #
गुलाब !
क्यों है
आसक्ति तुम्हे
इस जिस्म से,
मुरझाने तक,
नहीं होते हो
आज़ाद तुम
ममत्व के
एहसास से,
देखो ना
पारिजात को
खिला और
सहज ही
झर गया...

Wednesday, November 30, 2011

मंजिल..

# # #
खिल कर
गिरा था
हो कर फ़ना
खूब खिला
खूब महका
फूल
जड़ के ही
पांव में,
मंजिल
रूहानी
सफ़र की
होती है
अपनी
पनाह
और
खुद की ही
छांव में..

(अलफ़ाज़ दिये हैं सर के किसी खास मूड में सुनी बात को.)

Tuesday, November 29, 2011

आगाज़...


# # #
क्यों बहूँ मैं
बहाव के संग,
नहीं मिलना मुझ को
खारे समंदर से,
तैरुंगी मैं
बर-खिलाफ इसके,
पहुँचने
पहाड़ की
ऊँची चोटी तक,
आगाज़ है जहाँ
कलकल बहती
इस पाकीज़ा नदी का...



Sunday, November 27, 2011

प्रतिच्छाया....

# # #
सूरज न होता
उदय-अस्त
भ्रमित हमारे
नैन,
जो तपे निरंतर
गगन में,
प्रतिच्छाया
उसकी रैन...

बिना दृष्टि...

# # #
बिना दृष्टि के
शब्द है
लेखनी मल
समान,
क्यों छींटे
काला सतत,
बिसरा
कागज
सम्मान.


निहाल..

# # #
गिरी सागर में
गगन से,
भई सागर
तत्काल,
'मैं' जब छूटी
बूँद से,
हो गयी बूँद
निहाल...


खिंच आता है
कुछ ऐसा
जीवन में
जिससे
बढ़ जाती है
ऊर्जाएं
और
होता है घटित
सामर्थ्य
उस निराकार को
आकार देने का
स्व-हृदय में...

मैत्री...

# # #
ना जाने क्यों
बांध देते हैं
हम
मैत्री सी विराट
भावना को
समय
देह
और
नेह के
संकीर्ण
घेरों में..

होती है मैत्री
साक्षी
सत्य की
अस्तित्व की
जीवन की
काल की,
करते हुए
प्रवाहित
असीम जीवन उर्जा....

होती है
रूह
मित्र
रूह की,
गुरु भी,
सेवक भी,
प्रेरक भी,
मार्गदर्शक भी,
सखा भी
साथी भी
साक्षी भी...

(इसमें नया कुछ भी नहीं है...लेकिन कम में सब कुछ समेट लेने का प्रयास है. आशा है मेरे पाठक, एक एक शब्द पर गौर फर्मायेगे,)

क्या नाम इसका प्यार है...

# # #
महक से
क्या फूल का यह
अनलिखा करार है,
पहले
तुझको
सौंपूं
हवा को
और
खुद झर जाऊं
मैं फिर,
या कहीं
क्या नाम
इसका
प्यार है ?

Wednesday, November 16, 2011

दास्तां..


# # #
सुन रहा था
मेरी कहानी
शिद्दत से
जमाना,,
ये तो
थे हम ही
के पाये गये
सोये,
अफसाना
कहते कहते..

Tuesday, November 15, 2011

सफ़र...


# # #
कितनी
आसां है
राह इज़हार की
बस
अलफ़ाज़,
काफिया
और बहर...

होता है
मगर शुरू
ख़ामोशी के
बियावां से
एहसास को
महसूस करने का
सफ़र...

Sunday, November 13, 2011

सापेक्ष..

# # #
ढेर गन्दगी का,
जन्नत है
बीज के
खातिर
और
है वही जहन्नुम
एक फूल के
खातिर....

Thursday, November 10, 2011

धूर्त


# # #
बेधड़क सोये
शेर को
दंश लगाया
मच्छर,
जागा वनराज
दहाड़ा भी,
लहू वो
पीता रहा
निरंतर..

कीचड़ की कहानी.....


# # #
कर दिया
इनकार माटी ने
समा लेने
खुद में
पानी को
और
पानी ने भी
दिखा दिये तेवर
'नहीं बहाऊंगा
माटी को
संग अपने,
बस हो गया था
यहीं से
आगाज़
'कीचड़ की कहानी' का...

साक्षी..


# # #
रहता है
बन कर
साक्षी
मर्यादा का
यह किनारा,
बिसरा कर
सब कुछ
निगलती उगलती
रहती है जिसको
निरंतर
सागर की
चंचला लहरें..

Tuesday, November 8, 2011

जीवन और मरण

# # #
देन है
एक अनुभूति की
यह जीवन,
बना देता है
जिसको
फिर से
एक अनुभूति
मरण !

जाला...

# # #
मकड़ी ने जाला
बुना
निकाल देह से
तार,
माया ठगनी ने
रचा
दिखता जो संसार

(राजस्थानी सूक्ति से प्रेरित)

सांच और आंच..

# # #
नयनों के इसी
महल में,
बसती है
संग
सपनों के
अक्षत कुंवारी सांच,
क्या मजाल जो
आये
उसके सतीत्व पर
हल्की सी कोई
आंच..

भूल...

# # #
भूल हुई
पर
भूल को
जाना मत
तू भूल,
होश रहे
घट में सदा
यह
भूल-सुधार
उसूल.

वीतराग

# # #
मोह बंधन से
हो परे
निर्मम
ना होते
संत,
वीतराग का
अर्थ है
करुणा सिन्धु
अनन्त.

धूर्त


# # #
बेधड़क सोये
शेर को
दंश लगाया
मच्छर,
जागा वनराज
दहाड़ा भी,
लहू वो
पीता रहा
निरंतर..

Saturday, October 29, 2011

अब और नहीं...


# # #
उसने
मीठा जहर
पिलाया
इसमें क्या
उसकी ख़ता,
खो गयी मैं
अपनी नींदों में
खोया था
मेरा पता.

औरों का
पाने अनुमोदन
मेरा
क्या क्या
खो गया,
'अपने से
मैं मिलूं ना मिलूं'
यह मसला
भारी हो गया.

रातों के
अंधियारे
बरबस
संगी मेरे हो गये,
कहते कहते
'और नहीं',
'अब और नहीं'
मेरे पल पल
माजी हो गये..


सवाल और जवाब


# # #
उठे थे कभी
कुछ सवाल
जेहन में मेरे,
पूछ बैठी थी
मैं खुद से ही :

हुई है क्या
पैदाईश
तुम्हारी
मर्ज़ी से
तुम्हारी ?

मिले हैं क्या
तुम्हे
तुम्हारे
पसंदीदा मां बाप ?

है क्या तेरे
दिल के मुताबिक
शक्ल,
रंग,
जिस्म,
उम्र,
फ़ित्रत
और
हालात ?

या
हैं ये सब हादसे ?

या के वुजूद जो
फसल है
बदइन्तेज़मी की ?

तुम चाहते हो ना
हो जाये
इन्तेज़ामात सारे
मुआफिक
तेरे सोचों के...

कितने
लाचार हो तुम ?
मजबूर हो तुम
कितने ?

क्या है नहीं कोई
अपना वुजूद तेरा ?

चाहते हो गर
हल,
लौट चलो
होशमंदगी के
उस दर्जे पर
मिलेंगे जहाँ
माकूल जवाब
इन इजहारजदा
सवालों के,
जिस्म के परे के
एहसासात की
जानिब से,

पहचान पाओगे
खुद को
करके आज़ाद
उन जालों से
बुने हैं जिनको
खुद तुम ने
बेखबरी के
आलम में....

(जो सीखा है मैंने)

कच्चा कुम्भ

# # #
ताप अंतर का
बिना लगे
कच्चा कुम्भ है
ज्ञान,
नन्ही कंकरिया
तृष्णा की
देती तोड़
अनजान....

(नायेदा आपा से सुने भावों को शब्द देने का प्रयास)

च्यूंटी...


# # #
खुद को
च्यूंटी काटना
जब भरे
आँख में नींद,
मुहूर्त फेरों का
यदि टला,
पछतायेगा 'बींद'* ..

(राजस्थानी ओंठे (anecdote) से प्रेरित नेनो)
*'बींद' राजस्थानी में दुल्हे को कहते हैं.

अल्लाह का नूर...


# # #
हर
मुश्किल का
होता है
हल...

थमना है
मौत
जीवन है
चल...

बनता है
फल
बीज
गल गल..

सूख कर
जल
बनता
बादल..

बुझ कर
दीया
बनता
काजल..

मिटता जब
आज
बनता है
कल..

मिटाता
मलाल
आंसू
ढल ढल..

साँसों के संग
जीवन
हलचल..

किनारों के
बीच
नदी
कलकल..

ना देख
अल्लाह का
नूर,
आँखें
मल मल..

Thursday, October 27, 2011

अनचखा विष

# # #
रहते हुए
खारे समंदर में,
सोचा था
कई बार
मैंने
विष को,
मेरे मंथन का
प्रतिफल
अमृत
जब
हुआ था
हासिल मुझ को,
पाया था
मैंने
वह कुछ और नहीं
मेरा अनचखा
विष ही तो था,
और
यही तो सच था
शायद
देवों दानवों की
कथा का...

Monday, October 24, 2011

मन की गिरह

# # #
गाँठ खुली
लम्बी हुई
उलझी उलझी
डोर,
खोलो ना
मन की गिरह
गर ऊँचा होना
और...

Saturday, October 22, 2011

मतिभ्रम...

# # #समझो मत
सूर्य ने
उग कर,
दिया
अन्धेरा मार,
पल को
बन्द कर
द्वार को,
फिर से
तिमिर तैयार...

[लगता है रीपीट परफोर्मेंस है, एंजॉय करिए :)]


Friday, October 21, 2011

साधक और मदारी..

# # #
साधक
आत्मा का
सदा
पाया जाय
अकेला,
बजा बजा कर
डुगडुगी,
मदारी
लगाये
भीड़ का रेला..

Thursday, October 20, 2011

निराई...

# # #
(जब मैं हैदराबाद होती थी, हमारे नेटिव प्लेस-राजस्थान के कुछ खेतिहर लोग हमारे मेहमान होते थे, उनकी जमीनी बातों में बहुत गहरा व्यावहारिक ज्ञान छलकता था..बचपन में सुनी कुछ शिक्षाप्रद बातें मस्तिष्क पर अंकित हो गयी, उनमें से यह एक है...)
# # #
पौध हुई
थोड़ी बड़ी,
संग पनपे
खर-पात,
हरित फसल
सूखी करे,
अवांछित का साथ...
*
*
*
तो
कर निराई
'जस नाथ'..
(जस नाथ बात कहने वाले का नाम था)

Wednesday, October 19, 2011

उपकार...


# # #
कैसे भूलेगा
दीया,
तम तेरा
उपकार,
हेतु तेरे
नेह दे रहा
स्वार्थमय संसार..

Monday, October 17, 2011

कच्चापन


# # #
कच्चापन
ना शेष हुआ,
क्यों करता
घट
अभिमान,
ना जाने
कोई ठेस
तुझे
कर दे
ठीकर समान....

Sunday, October 16, 2011

पैमाने परख के ....

# # #
कुम्हार आया
लेकर घड़ा,
मूंद कर आँख एक,
झाँका खरीदार ने
भीतर घट के,
आया नज़र
सूराख एक
नन्हा सा,
कह दिया
घड़ा है बेकार....

आया लोहार
लेकर चलनी,
हुआ खुश ग्राहक
देख कर
छेद है बहुत,
छनेगा अच्छा ,
कितनी अच्छी है
चलनी.....

असर...(Extempore)


# # #
होता नहीं असर
मेरी दुआ का
सोचता हूँ
ए खुदा
के ना है कोई
वुजूद तेरा.....

Tuesday, July 12, 2011

लाश..


# # #
देखो ना
तैरे जा रही है
लाश
सतह पर,
प्राण
चाहिए ना
डूब
जाने के लिए...

Saturday, July 2, 2011

हांड़ी काठ की चढ़ाएगा कब तक ! (तरही मुशायरा जुलाई, ११)


# # #
धोया निचौड़ा सुखाया के पहना,
तू मुझे आज़मायेगा कब तक !

जोगी भगाया भरमाया अन्ना
पब्लिक को बहकायेगा कब तक !

नाम ले ले कर जम्हूरियत का,
चेहरा तू ये छुपायेगा कब तक !

ख़त्म हुए दिन इजारेदारी के
खैर तू अपनी मनायेगा कब तक !

खुल चुकें है राज सारे के सारे,
हांड़ी काठ की चढ़ाएगा कब तक !

Saturday, June 25, 2011

आँगन...


# # #
होता नहीं
मैला
आईने का
आँगन,
अक्सों की
आवा जावी से..

Thursday, June 16, 2011

गुल्फिशानी

(यह महक की शुरूआती रचनाओं में से एक है, चूँकि यह उसने मुझे उस वक़्त भेजी थी किसी घटना विशेष के सन्दर्भ में,इसलिए मुझ जैसे भुल्लकड़ के जेहन में भी इसकी छाप ज़म से गयी...आज आप सब से शेयर करके खुश हो रहा हूँ.)

# # #
इल्तिफात थी
गम-ए-पिन्हा की
के था जोम
लज्ज़त-ए-अलम का,
गुल्फिशानी उनकी
न रास आयी
मुशाहिदा-ए-हक के
सफ़र में.



(इल्तिफात = कृपा-मेहेरबानी, गम-ए-पिन्हा= छुपा हुआ दुःख-दर्द।
जोम=घमंड/धारणा, लज्ज़त-ए-अलम= दुःख का आनन्द,
रास=पसंदगी/पसंद होना, गुल्फिशानी=फूलों की बारिश)
मुशाहिदा=निरीक्षण/अनुभव/अवलोकन, हक=सत्य )

Sunday, June 12, 2011

सच की आँख...

# # #
हो गया है
ज़ख़्मी
यह सच
जंग करते करते
आईने में
दीखते
अक्स से,
बस मूंद ले
यह
आँख अपनी
खुल जायेगी
आँखें सबकी...

Monday, June 6, 2011

किरदार

# # #
खैरात
और
भीख,
दो जुदा सी
दिखती
अदाएं
हथेलियों की..

Tuesday, May 17, 2011

मेरी मां.....

(शिवम् रचित)
# # #
मां तू कितनी अच्छी है,
मेरा सब कुछ करती है !
भूख मुझे जब लगती है,
खाना मुझे खिलाती है !
खेल कर मैला होता हूँ,
रोज मुझे नहलाती है !
जब मैं रोने लगता हूँ,
चुप तू मुझे कराती है !
मां मेरे मित्रों में सबसे
पहले तू ही आती है !

विजयोत्सव...

# # #
कैसा प्रण,
क्षण
प्रतिक्षण,
जीवन तो है
समरांगण
विजयोत्सव
होगा
महामरण...

पालतू...(आशु रचना)

# # #
तिमिर को
कैद करके
बना सकते हो
पालतू
तुम,
देखो
जरा बन्द
करके
धूप को,
म़र जायेगी...

पंसारी.....


(राजस्थानी लोकोक्ति से प्रेरित)
# # #
बहम पाला
दिखाया
कैसी है दिलदारी,
सूंठ की गाँठ ली,
बन बैठा पंसारी...

(पंसारी=व्यापारी जो जड़ी बूंटीयों, मसालों आदि में डील करता है, सूंठ=सूखी हुई जिंजर)

तारतम्य...

# # #
चलना,
रुकना,
रोकना,
तारतम्य,
संतुलन
आवश्यक है
सार्थक
जीने के लिए,
खोलना
और
बन्द करना
क्रमश:
छिद्रों को
ज़रूरी है
बांसुरी से
संगीत
जगाने के लिए...

Tuesday, May 10, 2011

छोड़ कर हाथ...

# # #
छोड़ कर
हाथ
परिपक्व मधुर
फल का,
संभालती है
डाली
किसी और
अधपके
खट्टे
कसेले
फल को,
बनाने
मधुर
रसभरा
उसको ...

Monday, May 9, 2011

कैसी व्यावहारिकता....?

# # #
मैं वरिष्ठ
तू कनिष्ठ,
चाहे हूँ मैं
कितना
अशिष्ट
पर
समझूं खुद को
विशिष्ठ
अभीष्ट !

Sunday, May 8, 2011

रिश्ते...

# # #
रिश्ते,
गलत अंतराल पर
टंके हुए
बोताम
जो होते हैं
निरर्थक...

Monday, May 2, 2011

खाद..

# # #
मिलते ही
खाद
अंधेरों की,
लहलहाई
फसल
सितारों की...

दो कदम -(नायेदा आपा द्वारा रचित )

(इसका देवनागरीकरण मुदिता दी ने किया, मतले का पहला मिसरा मैंने याने महक ने दिया है..नायदा आपा का ओरिजिनल शे'र नेक्स्ट है)
#########
मिटे क़दमों का फासला के कोई साथ चले
दो कदम तुम ना चले दो कदम हम ना चले.

(फासला चंद क़दमों ही का था मेरे हमनशीं
दो कदम तुम ना चले दो कदम हम ना चले.)*

दामन-ए-वक़्त डूबता था गरम अश्कों में
मेरे दिन यूँ ही ढले- रातें मेरी यूँ ही ढले.

दिल के अरमान खामोश सी दस्तकें देते ही रहे
लबों के बंद दरवाजे हम से हरगिज़ ना खुले.

मासूम ख़्वाबों की थी वो बे-ज़ुबां चाहत
सांसों के हिंडोले में झूले और नाजों से पाले.

गरूर-ए-हुस्न मेरा वो इश्किया दीवानगी तेरी
तारीकियों में बस हसरतों की शम्में जले.

काश! सुन लेते मेरी धड़कनों की थकी सी सदा
अब आलम है या रब! हम तेरी दुनिया से चले.

Sunday, May 1, 2011

दरवाजा....

# # #
खुल गया
अरसे से
बन्द
चिंतन मनन का
मोटा सा
दरवाज़ा,
कहा प्यार से
बहिरंग से
अन्तरंग ने,
चल तू भी
अन्दर आजा...

Tuesday, April 26, 2011

हस्सास....

# # #
खाकर
पछाड़
लग जाती
किनारे के
सीने से
समंदर से
खफा
वो शोख लहर,
हस्सास किनारा
लौटा देता है
मगर
समझा कर
उसको
फिर से
अपने घर...

(हस्सास=संवेदनशील)

ढलान....

# # #
मूक
साक्षी है
हर उठान से
जुडी
ढलान,
गिरे थे
लुढ़के थे
कैसे
उत्तुंग शिखर
बन कर
ढेले और पत्थर...

Wednesday, April 20, 2011

छलावे..

# # #
वक़्त और
तकदीर
दो छलावे,
ताजिंदगी
जिये जाते हैं
जिनको हम
इत्मीनान से...

मंदिर-मस्जिद

# # #
होता है
जहाँ मन
स्थिर,
समझलो
वही है
मस्जिद
वही है
मंदिर..

Friday, April 15, 2011

बिखरे से लम्हे -अंकित भाई द्वारा रचित

( देवनागरीकरण -मुदिता मासी)

#####

बिखरे से लम्हे : अंकित

नहीं जानता यह त्रिवेणियाँ है, शे'र है या कुछ और. बस इतना ही कि अलग अलग लम्हों में कुछ जज्बात, कुछ सोच, कुछ कहने, कुछ सुनने उभरे, उन लम्हों को कलम बंद करने की कोशिश की. आज उन्ही लम्हों को आपके साथ बाँटने के लिए हाज़िर हुआ हूँ.

*(१)

बंद आँखों को अँधेरे सताते हैं,
जगे रहने से एहसास.
ए रात बता अब मैं क्या करूँ ?

*(२)

कौन किस को ढूंढ रहा था ना जाने,
कौन कर रह था किस का इन्तिज़ार.
चाँद को तेरी खिड़की के बाहर देखा गया.

*(३)

सपने सो गए थे थक कर,
तुम ने इतना क्यों ताका था.
बदलते हुए चाँद को.

*(४)

'तुम' 'मैं ' हो...'मैं ' तुम,
फिर संग चलने की आस क्यों.
क्यों ना अपनी अपनी राहों से चल,
पहुंचे संग संग मंजिल को.

*(५)

आओ मौन होकर,
महसूस करें एक दूजे हो.
बोलने से बातें परायी हो जाती है.

-अंकित

आचार...

# # #
पकाए
परोसे
कुंठाएं
विकार,
पाचक
संग में
झूठ के
आचार..

एक ही शिकवा

(नज़्म मेरी नहीं मेरी एक सीनियर दोस्त की है अच्छी लगी, शेयर कर रही हूँ)

# # #
गुजरे हैं
तूफाँ कितने
इस गुलशन से होकर,
हुए बर्बाद
गुल सारे
ना हुआ कोई
काँटों पे असर....

मुझे क्या
जन्नत
क्या दोज़ख,
मुझे क्या
देरो हरम का सरोकार,
मिल जाये
बस यह दुनिया,
आती है जहाँ
खिज़ा-ओ-बहार...

रहती है
तुमको
सारे जहाँ की
फ़िक्र,
मुझको है बस
एक ही शिकवा
ए मेरे हमसफ़र,
जब भी करूँ
मैं अपने ग़म का जिक्र,
कहता है तू
छोड़ न इसको
कोई और बात कर....

पैमाना..

# # #
तोडा है
मैं ने
जब से
तेरा-मेरा
पैमाना,
अंजुरी
अपनी से
पी लेते
अब
मनमाना...

अहम्....

-#-
अहम् ,
बाबत
खुद के
एक
घटिया सा
बहम....

अनुभूतियाँ

# # #
जुडा है जो
स्थितयों से
है परिवर्तनीय
परिस्थितियों से,
प्रभावित है
सतही सम्बन्ध
विसंगतियों से,
नहीं है
यथार्थ
भावों का दुराव
हृदय की
अनुभूतियों से...

फर्क ....

# # #
होता नहीं
फर्क कोई
जायका-ए-ज़बाँ में,
भरा हो शहद
चाहे
सोने के कटोरे
या
माटी के सिकोरे में..

Monday, April 11, 2011

क्यों खिलता है फूल : नायेदा

# # #
उस दिन हो गयी थी
मुलाक़ात मेरी
फूल से,
पूछ बैठी थी मैं,
ए दोस्त !
खिलते क्यों तुम ?
जिज्ञासा थी
सवाल में मेरे
आश्चर्य
और
ईर्ष्या भी...

सहजता से पूछ लिया था
फूल ने भी मुझ को,
"बताओ
तुम भी क्या सोचती हो -
मैं खिलता हूँ क्यों ?"

जैसा कि होता है,
हमारे बेमानी,
या
बेमायने वाले सवाल
और
अपने दिमाग में,
पहिले से भरे जवाब
होते हैं अक्स
हमारी सोचों के,
कह डाला था मैंने भी :
तुम खिलते हो
दूसरों को
देने के लिए
खुशबू...

फूल ने 'ना' में हिलाया था
सिर,
बोला था :
तब तो मुझे
खिलने के लिए,
किसी और का
करना होगा इंतज़ार,
या
रखना होगा उसको
हर वक़्त
अपने तस्सवुर में,
या होगा स्वीकारना ,
उस फानी शै का
अस्तित्व,
क्या मेरा खिलना
नहीं हो जायेगा
निर्भर उस पर ?
उसके ना होने के
एहसास से
रुक ना जायेगा
मेरे खिलने का क्रम ?

बोला था फूल:
कुछ और सोचो
और कहो.

कहा था फिर मैंने :
तब तुम खिलते हो
पाने के लिए
कोई इनाम...

फूल ने फिर 'ना' में
सिर हिलाया था,
बोला था फूल :
नहीं खिलता मैं
पाने हेतु
कोई पद्म पुरष्कार
या
वीर चक्र ,
मिलतें है वे तो कुछेक को ,
जब कि खिला करते हैं
फूल तो सारे,
कैसे होगा यह चयन?

बोला था फिर फूल:
कुछ और सोचो और कहो.

मैंने कहा था :
तब तुम खिलते हो
पाने के लिए
जग़ में
इज्ज़त और औहदा.

फूल ने एक बार फिर 'ना' में
हिला दिया था सिर अपना.
बोलाथा :
मुझे एहसास है
जनम के साथ ही
अपने
अल्प आयुष्य का ,
मुझे तोडा जाना है,
या गिर जाना है
मुरझा कर,
फिर
कैसी इज्ज़त ?
कैसा औहदा ?

बोला था फूल:
कुछ और सोचो और कहो.

जवाब दे चुका था
धैर्य मेरा ,
फूल के सटीक बयानों ने,
कर दिया था पस्त उसने
हौसला मेरा...
मगर सच को
जानने की उत्कंठा,
दे रही थी
हिम्मत मुझ को..

कहा था मैंने :
फिर क्या है मकसद
खिलने का तुम्हारे ?
क्या तुम हिलते डुलते हो
बिना मकसद के
इंसानों की तरहा ?
और खिलते हो
बस यूँ ही ?

फूल मंद मंद मुस्काया,
मुझ को भी थोडा चैन आया,
फूल ने कहा था झूमते हुए :
मैं अपने आनन्द,
अपनी मौज,
अपने सुकून में खिलता हूँ,
तुम्हारी बात में भी
आधा सच है,
मैं बिना मकसद खिलता हूँ,
मेरे खिलने में
'के लिए' नहीं'
बस 'में' है,
मैं खिलता हूँ जीने के जज्बे में ,
मैं खिलता हूँ मरने की मुक्ति में,
अंतिम सत्य जान चुका हूँ मैं,
इसलिए
दोस्त !
मैं खिलता हूँ
अपने दीवानेपन में...


मैं तबसे
'के लिए'
और
'में', के
रहस्य को जानने,
करने और होने के
भेद को आत्मसात करने,
समग्र स्वीकृति को अपनाने,
और
साक्षी भाव को हासिल,
करने के क्रम में,
खिले हुए फूल की,
संगत में,
मुझ जैसे बहुतों,
की पंगत में,
हूँ शुमार ....

Sunday, April 10, 2011

दर्पण : अंकित भाई

# # #

जीवन
हमारा है
एक दर्पण,
हम निशि-दिन
जमने देतें है
धूल
इस उजले दर्पण पर,
करते नहीं
प्रयास कभी
हठाने का
मेल इसके आंगन से
और
हो जाता है
नितान्त अंधा
अपना यह दर्पण,
कोई और तो क्या
हम स्वयं
देख नहीं पाते
प्रतिबिम्ब अपना सम्पूर्ण
होतें हैं जब जब
हम
सम्मुख
दर्पण के...


जब भी हम
सोचें औरों को
और
करें
उनकी व्यर्थ
आलोचना,
ठहरें तनिक
और
करें पूर्व उसके
सामना
उजले
दर्पण का....


दर्पण
मिथ्या न बोलेगा
जैसा है
वैसा ही
भेद वह
खोलेगा,
आओ
अपने मन को
दर्पण बनाये,
भले बुरे
सारे कर्मों को
देखें और
दिखाएँ...

Tuesday, April 5, 2011

प्यार भरा दिल

# # #
गुज़र कर
झरोखे की
जाली से,
टूट कर
कई टुकड़ों में
सर्द रुत की
धूप का
प्यार भरा दिल
गया है
बिखर
दीवानखाने के
कालीन पर
और
गरमा रही है
कलेजे को अपने
'पूसी' *
मेरी लाडो
चिपका कर
उनसे...

*बिल्ली..

Thursday, March 31, 2011

आखरी सांस...

# # #
आखरी
सांस,
मिट गयी
आस,
रूह उड़ी
देह अकड़ी,
अगन ने
पकड़ी,
चन्दन की
लकड़ी...

(मधुरिमा बाईसा को महक की भेंट)

Wednesday, March 30, 2011

खेल अपरिचय का...

# # #
छीलते काटते
चेहरों पर
आच्छादित
अनजानेपन का
घास,
दोस्त मेरी ये
पैनी आँखे
घिस कर
हुई उदास...

रचा यह कैसा
खेल
अपरिचय का
लिए हास प्रहास,
कहता है अब
मैं कौन ?
कौन है तू ?
मेरा अपना सांस...

Tuesday, March 29, 2011

बंधा हुआ सच...

# # #
आता है
जब सच
कसमों से
बन्ध कर,
हो जाता है
वो
मालिक से
नौकर...

Sunday, March 27, 2011

दर्पण का अजनबी प्रतिबिम्ब : नायेदा आपा

कैसी विडम्बना होती है जब व्यक्ति खुद को अपने ही घर में अजनबी महसूस करने लगता है.........ऐसी ही एक मित्र का मनोविश्लेषण करने का अवसर मिला......इस रचना के मध्यम से आपके साथ शेयर कर रही हूँ.
********************************************************************
# # #
मैंने देखा
उस दिन
दर्पण में
प्रतिबिम्ब
अपना
और
लगा था मुझको
हो गयी हूँ मैं
अजनबी
अपने घर में ही नहीं
खुद से भी,
जाना पहचाना सा था
वो चेहरा
मगर भाव थे
अपरिचित से...

हुआ था
क्योंकर ऐसा ?
मैंने निज के
अधूरेपन
और
खालीपन को
भरने के बजाय
प्यार से
मुझे भरपूर प्रेम
और सम्मान
देनेवाले के.
छेड़ी थी
मुहीम मैंने
उसको
विजित करने की
अनधिकृत
स्वामित्व के
संयोजन से...

किया था
दुष्प्रयास मैंने
बांधने का
उसको
अपने शासन की
कठोर डोर में,
किया था
हरण
मैंने
उसके स्वातंत्र्य का...

मुझे
नहीं करने दिया था
प्यार उसको
चाहते हुए भी,
मेरी हीन भावना
और
ईर्ष्या ने,
नहीं हुआ था
स्वीकार्य
मुझको
सह-अस्तित्व
उसका.....

बस रचते थे
चक्रव्यूह
दिन रात
सोच मेरे,
घेरा जिसका
कालांतर में
पड़ चुका था
इर्दगिर्द मेरे
और
मैं
चित्कार रही थी
निरीह सी
बचाओ मुझे !
मुझे बचाओ !

बच जातें है
हम दूसरों से
या
पाल लेते है भ्रम
बचने का,
परन्तु नहीं
पा सकते
निजात हम
स्वयं से....

अपराध बोध
बहेलिये सा
करता है
पीछा
होता है
नामुमकिन
छुपना खुद से
लाख छुपाने पर भी,
और
हो जातें है
शिकार
उस शय्याद के
खूनी पंजो के,
नोचता है
जो बाहिर से नहीं
भीतर से....

प्रारंभ
क्षमा करने का
कर सकें
हम

स्वयं से ही
करके क्षमा
स्वयं को
अपने गुनाहों के लिए
और
पा सकें
जीवन ऐसा
जिसमें हो
सुकून,
शांति,
मैत्री
और प्रेम,
आलोकित हो
हृदय हमारा
करुणा से....

Saturday, March 26, 2011

दमित भावनाएं : नायेदा आपा की रचना

In English language this is 'REPRESSION' or 'SUPRESSION'..........yah hota hai jaab durbhagyawas hum swayam ko tan aur man dono hi star par EXPRESS nahin kar pate.....karan hai hamari conditioning jo barson se hoti jati hai aas-pas ke dawab ke karan,ya hamari 'confused' sochon ke karan. ya inflated ego ke karan........ Repression vyakti ki bhasa aur vyvhar men jhalakne lagta hai. A repressed person becomes violent-to others or to oneself or to both.

# # #
दमित भावनाएं
हो नहीं सकती
मार्ग
कभी भी
जीने का,
वो है ही नहीं
मार्ग
कोई भी कत्तई...

चली जाती है
वे
अचेतन में,
करती रहती है
प्रतीक्षा
ना जाने
किस मुक्ति की
और
तनिक से
उकसाने से
हो जाती है
प्रकट
धर कर रूप
हिंसा,
इर्ष्या,
सस्ती कामुकता,
और
अवसाद का.....

दमित भावनाएं
देती है
ऐसा जीवन
जो नहीं चाहा गया था
कभी भी,
कराती है वे
कृत्य अनचाहे,
और
दिखाती है
राह
स्व-विनष्टिकरण की
एवम्
स्वयं को कुछ ऐसा
बना देने की
जो होता है
विरुद्ध
स्वसत्व के...

दमित भावनाएं
बना देती है
इन्सान को
अनजान
खुद से ही :
एक अजनबी
अपने ही घर में,
और
प्रवृत करती है
उसको
धीमे विषपान से
शनै शनै
किन्तु
निरंतर घटित
आत्महत्या के लिए,
बनाते हुए
जीने को
महज
प्रक्रिया सांस लेने की
अथवा
मानव के आवरण में
दानवीय
निष्पत्ति की..

दमित भावनाओं का
सकारात्मक
प्रकटीकरण
और
उनकी विवेकपूर्ण
रिहाई
खोलती है द्वार
स्वमुक्ति
करुणा
प्रेम के
और
सौहार्द के....

याद आ रहा है
सिगमंड फ्रायड का
मानना की
हिंसा-प्रतिहिंसा के
जड़ में है
दमित भावनाएं
दमित भावनाएं......

Friday, March 25, 2011

ए मेरे जाँबाज़ हमसफ़र ! : नायेदा आपा रचित

# # #

उड़ा कर
नींदें
खुद की,
कोमल
थपकियों से
सुला दूँ
तुझ को....

बिन छुए
तेरा जिस्म
सहला दूँ
प्यार भरी
नज़रों से
तुझ को....

पी कर
दर्द सारे तुम्हारे,
जनमों की
खुशियों से
संवार दूँ
तुझ को.....

तू मुस्कुराये
हरदम
सुकूं से,
पाने
इस मंजर को
लूटा दूँ मैं
खुदको....

ए मेरे
जांबाज़ हमसफ़र !
क्यों गये हो
तुम थक ,
हो जाये ना
मायूस
ये मंजिल कहीं,
देख कर
उदास
तुझको...

Thursday, March 24, 2011

घुटन और खुले दरीचे : नायेदा आपा

# # #

बाद आधी रात
जब भी
लड़खड़ाते कदमों से
दारू की बास
मुंह में लिए
लौट कर
लाल बत्ती इलाके से
आता था घर
और
कहता था :
“घुटन हो रही है-बदजात !
खोल दो दरीचा
ताकि
राहत दे
ताज़ा हवा.”

खोल कर
बंद खिड़की को
तकती थी
चाँद तारों को
सर-ए-दामन-ए-शब,
लगाती थी
लाल दवा
चोटों पर
जो नवाजी थी
उस ज़ालिम ने
और
सुना करती थी
उसके बरहना
खर्राटों को..

महसूस होती थी
घुटन
उस कफस में
उसको भी
जो ख़िताब था
उस हरीम का ही नहीं
उसकी
दस्त-ए-ग़म
जिन्दगी का भी,
नौहे उसके
जाग जाग कर
हो कर
निढाल

कशाकश-ए-मर्ग-ओ-जिंदगी से,
देते थे आवाज़
बार
बार:
आओ !
बचाओ मुझको
खिजां के बेमहर
तल्ख़ एहसास से ....

आया था
अचानक
कोई ऐसा
राहों में उसके
जिसे
आया था दिल
उसके
सोच,
अंदाज़
और
वुजूद पे,
दे रह था
सुकून
बन कर
शरीक-ए-ग़म-खुदाई
उसका...

उसकी चाहत
ले आई थी
बहार--गुल
सूखे बियावां
सहरा में,
बखेर रहे थे
खुशबुएँ अपनी
लाखों सुर्ख गुलाब...

लगने लगा था
उसको
किया है करम
खुदा ने
उस पर,
दिया है झोंका
ठंडी हवा का
खोलकर
बंद दरीचे
उसकी तंग जिंदगी के
और
दी है निजात
उस जानलेवा
घुटन
से.....

फिर एक दिन
वही सय्याद
ले आया था
संग अपने
‘समाज’
नाम के
बाहुबली को,
जो था अपाहिज़
और
चलता था
बैसाखियों पर....

कहलाती थी
मजहब
एक बैसाखी
जो देती थी
दुहाई
फ़र्ज़ की बार बार ,
नाम दूसरी का था
कानून जो
साबित करने
'होने' को
उसकी घुटन के
देता था सजा
बरसों की,

तरेरे लाल लाल आँखें
वो बाहुबली
कभी इस बैसाखी से
कभी उस बैसाखी से
चोट पहुंचाता था
उसको
और
करता था तकरीर
उसको
ताजिंदगी
मन्कूहा बने रहने की.....

बेगैरत,
बेवफा,
बेहया
न जाने क्या क्या
नामों से
जा रह था
पुकारा उसको,
जिसका असल
हकदार था
वो आदमी जो
खड़ा था
पकडे हुए हाथ
उस ‘समाज’ का
जो उस वक़्त
सोया हुआ था
नींद
गफलत की
घुट रह था
जब
उस बदबूदार
अँधेरी जिंदगी में
दम किसी का.....


सुर्खियाँ थी
अगले दिन के
अख़बार की :
‘नाजायज रिश्तों ने दो की जान ली.’
‘विवाहेतर सम्बन्ध-प्रेमियों की आत्महत्या'
‘लव ट्राएंगल: टू डेड' ....

‘समाज’ के इजारेदार
हो रहे थे
फिक्रमंद
सोसाइटीमें गिरती हुई
मोरल वल्युजके लिए,
और
वो दोनों
मोहब्बत करनेवाले
लिए हाथों में हाथ
एक दूजे का,
सांसों कि सांसत से
आज़ाद
सो रहे थे
बेखबर
एक नींद
लम्बी सी.....


करीब ही
बज रहा था
रेडियो पर
मल्लिका-ए-तरन्नुम
नूरजहाँ का नगमा
“खुदा खुद प्यार करता है
मुहब्बत इक इबादत है”

मायने:
दरीचा=Window. सर--दामन--शब=Last part of the night. बरहना=Naked. कफस=Cage. हारीम=Four Walls of a house.दस्तेगम=Jungle of sorrows. निढाल=Exhausted. खिजा=fall,patjhad. तल्ख़=Bitter.अंदाज़=Manners/Mannerism. वुजूद=Existence. शरीकेगम-खुदाई=Involved in the miseries of world. सुकून=Mental peace. बियाबां=Desert, Forest. सहरा=Desert.
बहरेगुल=Season of flowers. सुर्ख=Red. करम=Generosity. सय्याद=Hunter, Fowler.
बैसाखियाँ=Crutches. मजहब=Religion फ़र्ज़=Duty मनकूहा=Wife. अर्धांगिनी.
तकरीर=Speech. बेगैरत=Shameless.बेवफा=Unfaithful.बेहया=Shameless.नाजायज=Illegitimate. इजारेदार=Monopolist, ठेकेदार.फिक्रमंद=Worried. इबादत=Worship.कशाकश-ए-मर्गो-जिंदगी= Struggle of life and death(जिंदगी-मौत से जूझना).नौहे=mourning/विलाप।

Wednesday, March 23, 2011

आखरी दांव : नायेदा आपा रचित

यह ग़ज़ल एक प्रेम विहीन सम्बन्ध को अल्फाज़ देने की कोशिश है.....जहाँ न तो जिस्म मिलतें है न ही रूह. नारी तब भी कोशिश में है कि उसकी मोहब्बत कुछ असर लाये।
मगर बन्दा पर-पीड़क प्रवृति का है जिसे मुहब्बत से कहीं ज्यादा लुत्फ़ किसी पर जुर्म बरपा करने में और किसी को तडफाने और तरसाने में मिलता है. यह पेशकश आसपास में ओबजर्व की गयी हकीकत पर आधारित है।
########

जो पथराया बाहिर देहलीज़ वो मेरा पांव था
छोड़ उसको चले जाना बस आखरी दांव था.

मोहब्बत मेरी थी पुरकशिश उसके लिए
दिया प्यार बेशुमार खाली फिर भी ठांव था.

मेरी बदकिस्मती ने मिलाया था उससे मुझको
तपिश में जली थी मैं बस अल्लाह ही छांव था.

मेरी रोई हुई आँखे एक तमाशा था उसको
गिडगिडाना मेरा उसकी मूंछों का तांव था.

तशनगी न बुझ पाई थी ताजिंदगी मेरी
क्या हुआ दरिया किनारे मेरा जो गांव था.

(तशनगी=प्यास, तपिश=गर्मी)

Tuesday, March 15, 2011

अहम्..(एक पहलू) : आशु रचना

# # #
अहम् है
बस एक
परिकल्पना
करना होता है
सतत
रख रखाव
जिसका,
होती है
वांछा जितने
बडे अहम् की,
करना होता है
आयोजन
वृहत उतना
रख रखाव का
जुटा कर
धन
ज्ञान
यश
सामर्थ्य
संपर्क
और भी
बहुत कुछ...

मन मेरे !
करना
इस्तेमाल इस
दानव का,
मगर
कभी ना
आजाना
बहकावे में
इसके...

साथ मेरा : नायेदा आपा के रचना

# # #
गर चाहते हो
साथ मेरा,
पहिले
मुझ से
तुम को
ए जाना !
तहे दिल से
खुद को
चाहना होगा,
अँधेरे एहसासों से
खुद को
उबारना होगा,
दूरियां मंजिल की
नहीं मालूम
मगर
हौसला चलने का
जगाना होगा,
खोया जो है
उसको
भुलाना होगा,
हासिल जो है
इस लम्हा
उसको ही
सजाना और
संवारना होगा,
गर उड़ना है
आसमां की
ऊँचाई पर
सफ़र धरती का
तुम को
पूरा-ना होगा,
तैर चुके हो
लहरों पर
बहुत तुम,
पाने को
मोती
अनमोल
गहरे में गोता
तुम्हे
लगाना होगा,
कोमल कितने हैं
एहसासात
जिंदगी के,
नरम हाथों से
उनको
संभालना होगा,
चुराले ना
शबनम को
सूरज
सुबह का,
अनाम से इस
रिश्ते को
खुद से भी
छुपाना होगा.

Sunday, February 27, 2011

कयास...

####
शहर कहे
अच्छा तुझे
बात नहीं
कुछ खास,
यदि पड़ोसी
भला कहे
तब करना
विश्वास ..

हर पल जो
बरते तुझे
करे वो ही
सत्य प्रकाश,
अन्य
परायों की तरह
लगाया करे
कयास..

दरकार...

# # #
मोल भयो
इन नयनन को,
रह्यो
जब तलक
पलकन पे
इन्तिज़ार,
मिली गयो
मोहे पिया
री सखी !
अजहूँ,
मोहे काहे
अंखियन की
दरकार..

Monday, February 21, 2011

टूट जाये न माला कहीं प्रेम की : नायेदा आपा

अंकित ने इस गीत/भजन को अपने बचपन में सुना था और उनके अधरों पर रहता है अकसर यह गीत.
इसका मुखड़ा और पहिले दो अंतरे वो ही हैं जो वे गया करते हैं, बाद के तीन अंतरों को जोड़ने की कोशिश मैंने की है. मिलावट लाख कोशिश कर के भी 'ओरिजनल' के मुआफिक नहीं हो पायी है, मगर कोशिश दिल से की गयी है. हलकी मस्ती में 'कवाल्ली स्टाईल' में गाया जाये तो बहुत अच्छा लगेगा यह सीधा-साधा सा नग्मा.


#############
टूट जाये न माला कहीं प्रेम की !
वरना अनमोल मोती बिखर जायेंगे !!

मानो ना मानो ख़ुशी आपकी.
दो दिन के मुसाफिर बिछड़ जायेंगे. !! टूट जाये.....!!

यह न पूछो के हम से किधर जाओगे.
वो जिधर भेज देगा उधर जायेंगे. !!टूट जाये...!!

मिल लो सभी को लगा के गले.
कुछ अभी.. तो..कुछ उस.. पहर जायेंगे !!टूट जाये...!!

आपस में है राजी... और खुश हम यहाँ.
मत ना सोचो...शेखो बरहमन किधर जायेंगे. !!टूट जाये...!!

जिंदगी जो मिली है तो जी लो सनम.
घुट घुट के रहेंगे तो म़र जायेंगे. !!टूट जाये...!!

Tuesday, February 15, 2011

अभिज्ञान सत्य का : नायेदा जी की एक रचना

# # # #

कुरआन पढने से कहीं अधिक गाये जाने की पवित्र पुस्तक है। कुरआन किसी विद्वान अथवा दार्शनिक द्वारा लिखित नहीं है, यह तो सीधे प्रभु से प्राप्त छंदों का अनूठा संग्रह है जिसमें है एक संगीतमय सन्देश मानवता के लिए प्रभु की ओर से । कुरआन में एक महान लय-ताल है जो उसके माधुर्य में लीन होने पर ही प्राप्य हो सकती है। यह कविता एक सुगंध परिमल है जो पाई हैमैंने, हो कर संग पवित्र कुरआन के.
# # #
सुनना
वही होता है
सटीक
होता है जिसमे
ध्यान अर्थ का
और
होती है
तत्परता
स्वीकारने
विवेकशील
तथ्यों को....

पाने हेतु
अभिज्ञान
सत्य का ,
नहीं है
कोई प्रयोजन
अकारण
विरोध और
तर्क का....


यदि
घड़ रहा हूँ मैं
झूठ कोई
तो होउंगा
उत्तरदायी
केवल मैं ही
कर्म अपने का,
नहीं है कोई
दायित्व
तुम पर
उसका....

यदि तुम
झूठला रहे हो
सत्य को तो
उसमें है
क्षय केवल
तुम्हारा
ना कि मेरा...

सरिता और सागर

# # #
पूछने लगा था
सागर
सरिता से,
क्यों है तू
जनप्रिय इतनी
अपनाते हैं क्यों
सब कोई तुझ को
और
पाकर साथ तेरा
हो जाते हैं
प्रसन्न क्यों..

कहा था
सविनय
सरित ने,
मैं तो लेती हूँ
और दे देती हूँ
लगातार,
रखती नहीं
पास कुछ भी
लिए अपने,
और
तू है क़ि
रहता है डूबा
बस
खुद की ही
चिंता में,
किये जाता है
जमा
जो कुछ भी
होता है
हासिल
तुझ को...

Sunday, February 13, 2011

अब मुस्कुराइए : अंकित भाई कृत

####

गम-ए-हयात में खुद को ना मिटाइये,
औढ़े से अंधेरों से बाहिर तो आईये.

गुरुर के फसानों से वाकिफ है आप भी,
बस सादगी से यह जिंदगी रंगीं बनाईये.

नाला-ए-मुर्गे सहर को मोहताज़ कब सूरज,
कुदरत की हकीक़त से ना नज़रें चुराइए.

रंजिशों को दिल में रखे हुए दफ़न,
इस जिंदगी को खुद की लहद ना बनाईये.

गया कल कब आया है दुबारा लौट कर
आज ही सच है,हसीं महफ़िल सजाईये.

खोला कीजे दरीचे अपने घर के भी कभी,
मौसम बड़ा दिलकश है, टुक लुत्फ़ उठाईये.

हंसने से बनते हैं माहौल खुशगवार
उदासी के ड्रामे हो लिये अब मुस्कुराईये।

गम-ए-हयात=Sorrow of life. गुरूर=pride नाला-ए-मुर्गे सहर=voice
of the bird that sings in morning.(मुर्गे की बांग) रंजिश=distress,dejection, enemity.
दरीचे=window. लहद=grave.

Thursday, February 10, 2011

उहापोह : नायेदा आपा रचित

# # #
अच्छा
बहुत अच्छा
लगता है
बिन बोले
बोलना तुम्हारा,
लेकिन होती है
उहापोह
तलाशती हूँ जब
मायने
अपने
मन की सोचों के
तेरी नज़रों में...

फिर पूछती हूँ
खुद से ही
रुक रुक कर
यह मेरी धुंधली सी समझ
कोई ग़लतफ़हमी तो नहीं ?????

फिर
एक दिलासे की
तरहा
फलसफाना
अंदाज़ में
कहती हूँ
अपने आप से
शायद ऐसा
तब होता है
जब हम
अपनी सोचों के
अक्स
देखतें है
बना आईना
औरों को
या
बिना जाने
कर बैठते हैं
दावा
समझ पाने का
किसी को ...

टूट कर फिर
समझाती हूँ
खुद को,
चलो अच्छा हुआ...

और
रुक जातें है
कदम बढने से
मगर अफ़सोस !
मेरे कहने
और
तुम्हारे मौन से
जन्मे
ये पुर-रंग
कोमल से सपने
बिन बोले
बिन रोये
म़र जाते हैं
कच्ची मौत
खुदा खैर करे...

Sunday, February 6, 2011

सो व्हाट ? (So What ?) : होगा क्या इस से ?

(कल एक लेख में इस रुसी लोक कथा का जिक्र आया था, आप से शेयर कर रही हूँ, सम्पूर्ण शब्द मेरे नहीं हैं है. प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से कतिपय परिवर्तन किये हैं यत्र तत्र.)

एक कवि एक वृक्ष के नीचे बैठा है. सुबह का सूरज उदय हुआ है और कवि उस वृक्ष के तले अपनी कविताओं का वाचन कर रहा हैं. कोई भी नहीं है वहां. बस एक कौआ बैठा हुआ है वृक्ष पर.

कवि अपनी पहली कविता पढता है : "पा लिया है मैंने संसार का समस्त द्रव्य, प्राप्य है अब मोहे कोष सुलेमान का, हूँ मैं साक्षात् कुबेर, सब कुछ तो है पास मेरे, जो भी था पाया जाना, पा लिया है मैंने."

बहुत गौर से देख रहा है कवि चारों ओर. कोई तो नहीं है वहां, बस बैठा है एक कौआ वृक्ष पर. हँसता है जोरों से कौआ और कहता है, " सो व्हाट ? होगा क्या इस से ?"

घबरा कर देखता है कवि, कोई नहीं है वहां, बस बैठा है कौआ अकेला वृक्ष पर. कवि कहता है, "क्या यह कौआ बोलता है सो व्हाट ? मैंने तो बड़े बड़े मनुष्यों के समक्ष अपनी कवितायेँ पढ़ी है और लोगों ने प्रशंसा की है और तू एक मूर्ख कौआ कहता है- सो व्हाट ? होगा क्या इस से ?"

कौआ कहता है, " निश्चित ही मैं ही कह रहा हूँ. धन की मूढ़ता मनुष्यों को छोड़ कर ना तो किसी पशु को है, ना ही किसी पक्षी को, ना किसी पौधे को है. तो यदि तुम मनुष्यों के बीच यह कविता पढोगे कि मैंने सुलेमान का खज़ाना पा लिया है तो लोग ताली बजायेंगे ही, क्योंकि वे भी सुलेमान का खज़ाना अपने अंतर मन से पाना चाहते हैं. वे भी उतने ही नासमझ है जितने कि तुम. उनकी नासमझी कविता नहीं बन पाती, तुम्हारी नासमझी बन गयी है कविता. इसके अतिरिक्त कोई अंतर तो नहीं."

कौआ फिर कहता है, " लेकिन पा लिया है तू ने सारा खज़ाना, फिर क्या होगा ? सो व्हाट ? होगा क्या इस से ?"

कवि कहता है, "नासमझ कौए तू समझेगा नहीं. मैं दूसरी कविता सुनाता हूँ."
लेकिन वह आदमी तो वही है, कवितायेँ कितनी भी करे उसका मन वही है, उसका लोभ वही है. दूसरी कविता में वह कहता है, "मैंने जीत ली है पृथ्वी सारी, मैं हो गया हूँ सम्राट चक्रवर्ती. कोई नहीं है ऊपर मुझ से, सब है तले मेरे पावों के."

फिर हँसता है कौआ, कहता है, "सो व्हाट ? होगा क्या इस से ? माना कि सारे लोग आधीन हो गये तुम्हारे, आ गये पावों के नीचे तुम्हारे और हो गये तुम स्वामी सब के, लेकिन क्या होगा इससे, क्या पा लोगे तुम इस से ?"

कवि ने क्रोधित होकर कहा ""छोडो इसे भी." और तीसरी कविता पढ़ी, "मैंने पढ़ लिए हैं शास्त्र समस्त, पढ़ी है मैंने गीता और कोरान, उपनिषद् और बाईबिल, मैंने किया है प्राप्त ज्ञान समस्त, नहीं है कोई ज्ञानी ऊँचा मुझ से, मैं हो गया हूँ सर्वज्ञ, जानता हूँ मैं सब कुछ."

कौए ने कहा, " सो व्हाट ? होगा क्या इस से ? तुम ने सब जान लिया, तो भी क्या होगा. एक चीज फिर भी रह गयी अनजानी. तुम ने पा लिया धन सारा, लेकिन एक धन रह गया बिन पाया, पा लिया तुम ने साम्राज्य सारा, लेकिन एक राज्य अपरिचित रह गया." कौआ अपनी बाते कहता जाता है. कवि क्रोध में कवितायें फैंक कर चल पड़ता है.

उस कौए से किसी दूसरे कौए ने पूछा, "तू हर बात में कहता गया- सो व्हाट ? होगा क्या इस से ? कविता कौन सी पढ़ी जाती कि तू दाद देता ?"
उस कौए ने कहा, "एक ही कविता है जीवन की और वह है जीवन को जानने की. ना ही तो धन को जानने से कविता पैदा होती है और ना यश को जानने से और ना ही पांडित्य को जानने से...एक ही कविता है जीवन की--वह होती है पैदा जीवन को जानने से. और उस कवि को उस कविता का कोई पता नहीं है. जब तक वह, उस कविता को नहीं गाता तब तक मैं कहता ही चला जाता- सो व्हाट ? होगा क्या इस से?"

एकत्व..(आशु रचना)

# # #
भावों से
मिल गये
भाव,
मिला
सत्व से सत्व,
बिना प्रयास
जो हो घटित,
कहतें उसे
एकत्व...

Sunday, January 23, 2011

प्रेम ??? : अंकित भाई रचित

# # #

मुझे कैसे
मिले प्रेम ?
प्रेम तो है
मेरे पास
सदैव
स्वाभाविक
नैसर्गिक....

गिरा देता हूँ
मैं
खोखली परिभाषाएं
प्रेम की
और
करता हूँ अनुभव,
प्रेम नहीं है
कर देना
कुछ सुकाम
अन्यों के लिए
या
कह देना उनको
कुछ सुखद शब्द
या
बस मुस्कुराना
और
मुस्कुराते रहना.
प्रेम बस है
प्रेम
केवल प्रेम...

नहीं होता है
प्रयास कोई
पाने हेतु
प्रेम को,
बस होता है
बनाना
स्वयं को
केवल मात्र
प्रेम ……

सदैव,
बनाया है
मैंने
जटिल इसको,
उलझाये रखा है
प्रेम सूत्रों को,
जब कि
है यह
सर्वथा सहज,
सरल……

करता हूँ
मैं प्रेम जब
होता हूँ
केवल प्रेम में
और
होता हूँ
बस स्वयं……

दर्शाता है
प्रेम ही
मुझे
वो बिंदु
वो अबिंदु
जहाँ
होता है
मिलन
मन मस्तिस्क का
तत्त्व से,
सत्व से...

Saturday, January 22, 2011

सदगुण

# # #
गुण ऊँचो करे
मनुज को,
आसन धरै
ना होय !
महल शिखर पर
बैठ कर,
कागा
गरुड़ ना होय ! !

सृजन...

(रेवाजी को सप्रेम !)

# # #
बैठी हूँ लेकर
भावों को,
कागज को
कलम को,
मौसम भी माकूल है
माहौल भी है शांत,
प्रतीक्षा है
केवल मात्र
विचारों की,
किन्तु
वे भी तो हैं
मनमौजी
ठीक मेरी तरह,
नहीं आयेंगे ना
दौड़ते हुए वे,
चला आता है जैसे
नन्हा बछड़ा
गैय्या के निकट
या
स्कूल से निकली
मेरी बेटी
मेरे करीब,
ढल रही है
सांझ,
जाऊं तो
कैसे जाऊं
इस पल
पीछे उन आवारों के ,
आ भी गये यदि
निगौड़े
जैसे तैसे,
नहीं मिलेंगे
शब्द
देने वाले
अर्थ उनको,
मिले बिना
सारे संजोग
असंभव है ना
सृजन..

Wednesday, January 19, 2011

प्रशंसा

फैल्थम ने कहा था : "प्रशंसा विभिन्न व्यक्तियों पर विभिन्न प्रभाव डालती है. वह विवेकी को नम्र बनती है और मूर्ख को और भी अहंकारी बनाकर उसके दुर्बल मन को मदहोश कर देती है."

# # #
ढह जाते हैं
पुल
मिथ्या प्रशंसा के,
मनुआ!
ना करना
उपक्रम
चलने का
उस पर..

(अमेरिकी रेड इंडियन लोगों में प्रचलित एक कहावत)

उपदेश

स्वामी रामतीर्थ ने कहा था : "जिसे हरेक देता है पर बिरला ही लेता है, ऐसी चीज है उपदेश और सलाह."
# # #
जब
देने लगे
सदोपदेश
लौमड़ी,
रखना
संभालकर
बतखों को
अपनी.....

(रेड इंडियन समुदाय कि एक कहावत से प्रेरित)

कायर

महात्मा गाँधी ने कहा था, "आध्यात्म के लिए पहली चीज है निर्भयता. कायर कभी नैतिक नहीं हो सकते." और गेटे (जर्मन कवि) ने कहा था, "कायर तभी धमकी देता है जब वह सुरक्षित होता है."

# # #
यदि मैं
करती नहीं
रचनात्मक
विरोध
किसी अपने की
गलत हरक़त का,
या तो
नहीं मैं
हितैषी उसकी
अथवा
हूँ मैं
एक कायर.