Sunday, December 25, 2011

काबिले-ए-गौर..

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ज़मीर पर
कर लिया है
खड़ा तुम ने
हिमाला
जमानासाज़ अलफ़ाज़ का,
नहीं निकलेगी
उस से गंगा
रूहानी
एहसासात की,
जो मिला देगी
तुझ को
उस समंदर से,
हिस्स जिसका
बन जाता है
बादल सिफ़र में
बरसता है जो
बन कर
आबे हयात
सूखी प्यासी
तड़फती
ज़मीं पर !
(जमानासाज़=धूर्त/cunning/opportunist. हिस्स=संवेदना)

फर्क...कुहू कुहू

# # #
कोयल को
कौवे के
घोंसले में
खुद के अंडे
रखते देख,
तुम ने भी
रख दिये थे
आँखों में मेरी
अल्फाज़ी एहसास
अपनी मोहब्बत के....

फर्क बस इतना है,
नन्हे चूजे
बन कर कोयलिया
छेड़ेंगे
सुरीली तान
कुहू कुहू की,
और तेरे ये
जूठे झूठे
मुर्दे एहसासात
बह जायेंगे
संग मेरे अश्कों के...

Wednesday, December 21, 2011

ताज़गी सपनों की...

# # #
बरहना है ना
अफताब,
ढकी है
बिजलिया
हिजाब में,
आलसी है ना
समंदर
देखी है
रवानी नदियों में ,
कितना बासी है ना
सच,
हुई है महसूस
ताज़गी
सपनों में ...

Tuesday, December 20, 2011

जब लम्हा आखरी आये...:नायेदा आपा

(नायेदा आपा कभी कभी कुछ ऐसा कह देती है जिसके बहुत गहरे मायने निकल सकते हैं..इन एक्स्प्रेसंस को कोशिश की है मैंने अल्फाज़ देकर आप से शेयर करने की.)
# # #
तू मेरा
कोई नहीं,
मैं भी तो तेरी
कोई नहीं,
कोई तो
किसी का
कोई नहीं.....

क्यों
बैठे रहते हो
दिन रात यूँ
मेरे करीब,
कहती हूँ ना
तुम से
तुम नहीं हो
कोई यीशु,
जो चढ़ रहे हो
सलीब.....

आई थी
मैं अकेली
जाना है मुझे
अकेला,
तुम संग
जो बीता
समझो
था वो
इक हसीन मेला...

चले थे
जब तक
साथ
वो राहें थी
अपनी,
जुदा जुदा है
मंजिल
क्या कथनी
क्या करनी...

कब तक
सहे जाओगे
दर्द तुम पराये,
कब तक
संभालोगे
बोझिल से
सरमाये.....

मानो मेरी
पहचानो ए दोस्त !
बरहना हकीक़त को,
पड़े हो
किस फेर में
छोड़ो
अँधी अक़ीदत को...

फाना पजीर जिस्म से
क्यों
मोह इतना जताते हो,
दिये जा रहे हो
तुम हर दम
बदले में
क्या पाते हो....

मत करो
खुदकशी,
तुम को
कसम हमारी,
हम देख लेंगे
खुद ही
जो भी है
किस्मत हमारी..

रूहानी इस रिश्ते को
अब जिस्मानी क्यों
बनाते हो,
न जाने क्या
निभाने को
खुद को यूँ
सताते हो...

थाम लेना
हाथ मेरा
जब वो मुझे
लेने आये,
मुस्कुरा कर
कर देना रुखसत
जब लम्हा
आखरी आये...

राह खर्च....

# # #
मेहमान बस
तू है यहाँ,
झूठी
मिल्कयित का
दावा कैसा,
कथनी-करनी
पुण्य-पाप
मिल बनेंगे
राह-खर्च का पैसा...

छाया से तुम हो सुहाने....(आशु)

# # # # #
छाया से तुम हो सुहाने,
मगर चुभती धूप सी मैं...

खुशकिस्मत हो
मेरे सजन तुम
दोपहर
शजर के तले बिताते
मगर ये कैसे
ठोस पत्थर
हाय ! मेरे हिस्से में आते.
साँवरिये से
तुम सलोने,
मगर बदसूरत
सोने सी मैं...

वक़्त के तुम
चीर परदे
गूंजते हो
तान बन कर,
और मैं तो
फूल सी हूँ,
धूल होती
सांझ को झर.

तुम बेशक्ल शक्ल होते,
मगर शक्ल बेशक्ल सी मैं...

छाया से तुम हो सुहाने,
मगर चुभती धूप सी मैं...

Tuesday, December 13, 2011

काँटा...

# # #
क्यों हो
शिकायत
तुम ने जो
चुभाया
काँटा ?
जानती हूँ
जो भी मिला
तुमको
उसी को तो
बांटा...

Saturday, December 10, 2011

चले जाना.....

# # #
चले जाना
चले जाना
के नंगे पांवों
चले जाना,
मेरी फ़ित्रत है ये
यारों !
के कोई
फैसला उसका...

चुभन काँटों की
लगती है मुझे
अपनी सी
ए यारों !
तोड़ डाले है
इस दिल को
कुचल कर
टूटना उनका..

Wednesday, December 7, 2011

तन-मन...

# # #
फूल को नहीं
आभास महक का,
खार को नहीं
एहसास चुभन का,
फल नहीं जानता
जायका रस का,
इल्म जो भी है
वह है
हमारे तन-मन का...

Monday, December 5, 2011

गुलाब और पारिजात


# # #
गुलाब !
क्यों है
आसक्ति तुम्हे
इस जिस्म से,
मुरझाने तक,
नहीं होते हो
आज़ाद तुम
ममत्व के
एहसास से,
देखो ना
पारिजात को
खिला और
सहज ही
झर गया...