Sunday, August 30, 2009

रस्सी...

# # #
रहने देता है
कौन सीधा
रस्सी बेचारी को ?
इख्तियार-ए-गैर में
हुआ करती है
वह तो,
देकर गाँठ
उसको
अपने मन की,
हो बेफिक्र
किनारे
हो जाता है
खुदपरस्त
इंसान....

Saturday, August 29, 2009

अपच/Apach........

परोसो मत
करके
मनुहार
अपने
सच्चे सीधे
विचार......

हो जायेंगे
अपच से
गरल
तुम्हारे
अमृत सम
ये सोच
सरल......

Paroso mat
Karke
Manuhaar
Apne
Sacche seedhe
Vichaar.............

Ho jayenge
Apach se
Garal
Tumhare
Amrit sam
ye soch
Saral...............

Friday, August 28, 2009

मुल्ला बना मसीहा.......

मुल्ला इतने सेकुलर कि कभी अपने मज़हब और दूसरों के मज़हब में फर्क नहीं करते क्योंकि सब फिरकों से ऊपर है एक मज़हब जिसे दुनिया का हर इंसान किसी ना किसी शक्ल में अख्तियार करता है, वह है खुदगर्जी उर्फ़ स्वार्थपरता. इस धर्म में मानव अपना उल्लू सीधा करता है.....इस मज़हब का पहला और आखरी उसूल है "हमारा क्या ? हम को क्या ?" किसी भी घटना पर यह उसूल लागू करके इस मज़हब को मानने वाले अपना रास्ता तय करते हैं. मसलन कोई दुखी मजलूम है उसकी मदद करनी है.....ऐसे में बन्दा सवाल उठाएगा हमारा क्या ? याने हमें क्या फायदा होने वाला है ( देवियों और सज्जनों-इह लोक में परलोक में नहीं)-हमारा क्या ? अगर जवाब 'ना' में है तो 'हमको क्या ?' बिलकुल इनेक्सन वाला भाव..खिसक जाना पतली गली से. और अगर लगे कुछ बनेगा...तो पूछिये मत--तब तो भली बनी. जुट जायेंगे मेरे यार वसुधेव कुटुम्बकम का सिद्धांत अपनाते हुए.

विनेश सर ने मुल्ला के चंदे का धंधा चलाने, नंदू पंडत बन जाने का किस्सा आप से अनधिकृत रूप से शेयर किया था, आज मैं आपको बताने जा रही हूँ, मुल्ला का एक और कारनामा. यह स्पेशल खोज है, आपके लिए एक्सक्लूसिव रिपोर्ट. टेलीविजन वालों के हाथ लग जाती तो ना जाने कई मनोरंजन भारती, शम्स ताहिर खान, संजय बरगट्टा, दीपक चोरसिया, निधि कुलपति, सिक्ता देव इत्यादि दिन भर आपका ही नहीं अखिल भारत का साथ निबाहते मगर यह तो सिर्फ आपके लिए हैं.....

नंदू पंडत का रोल मुल्ला के लिए अच्छी खासी ट्रेनिंग का जरिया भी बना. अन्धविश्वासी लोगों का दोहन कैसे किया जाय धर्म के नाम पर मुल्ला ने और अच्छे से जन-समझ लिया. आप तो जानते ही हैं कि साधू सन्यासी, चोर और ठग एक स्थान पर जम कर नहीं रह सकते. मुल्ला को बोरियत होने लगी थी देदासर गाँव से....शायद वहां कुछ करतब भी मुल्ला के ज़ाहिर हो गये थे.....एक दिन आफताब के जलवा होने से पहिले मुल्ला खिसक गये वहां से.......पहुँच गये एक नए गाँव में....वहां देखा कि बड़े शामियाने लगे हुए हैं....माइक पर कभी मौलवी की तक़रीर सुनाई दे रही थी--जैसे कोई किसी को लताड़ रहा हो.....कुछ अन्तराल के बाद कवाल्ली के लटके सुनाई दे रहे थे----'तू ही है..बस तू ही.....मैं तेरा गुलाम मौला......इत्यादि. देखा एक पुरानी सी मजार है, उस पर मेला लगा हुआ है....हरे काले पैरहन में भागम भाग कर रहे हैं मौलवी लोग......मोर पंखियाँ दिखाई दे रही है......लोबान (धूप) की का धुआं एक पाक सी खुशबू चारों जानिब बखेर रहा है. खोंचेवाले, कबाब वाले, शरबत वाले, मिठाई -सैवय्याँ वाले और मुरीदों कि भीड़ बड़ा प्यारा सा मंज़र था. मुल्ला ने सोचा कि मंज़ल आ गयी....कम से कम पड़ाव तो ज़रूर. मुल्ला ने कुछ वक़्त बिताया वहां के हालातों को समझने में और मुल्ला हो गया था वेल कन्वेर्सेंट वहां की हिस्ट्री-ज्योग्राफी, फिजिक्स-मेथ्स-केमिस्ट्री, बायोलोजी भी.
अचानक मजार की जानिब से बड़े मौलवी कि आवाज़ आई, "उस अंधे को मेरे करीब लाओ." नसरुद्दीन को धकेलते हुए, कई जूनियर मौलवी अँधेरी कोटड़ी में घूस गये और निकाल कर ले आये एक फटेहाल अंधे को. अँधा अपने बेतरतीब से हाथों से झाडू लगाने जैसी हरक़त कर रहा था, पत्थरों से लड़खडाता गिरता पड़ता आगे बढ़ रहा था.

अँधा बड़े मौलवी के करीब पहुंचा, उसके कदमों में मुंह के बल गिर पड़ा. उसने अपने ओंठों से मजार की टूटी फूटी सीढियों को चूमा. बड़े मौलवी ने उसके सिर पर हाथ फेरा. अँधा फौरन चंगा हो गया.
उसने घोषणा कि, "लिल्लाह मेरी आँखों कि रोशनी लौट आई. मैं देख सकता हूँ.....मैं देख सकता हूँ."
कंपति हुई आवाज़ में वह चिल्लाने लगा, " ऐ बहाउद्दीन वली मुझे दिखाई देने लगा. देख सकता हूँ मैं...कैसा चमत्कार हुआ है. वाह !"

लोगों की भीड़ उसके पास इकठ्ठा हो गयी. लोग उसे पूछने लगे, "बताओ मैंने किस रंग कि कमीज़ पहनी है ?." भूतपूर्व अँधा कहता, "बैंगनी." कोई पूछता, "मैंने कौन सा हाथ उठाया ?." ' एक्स ' कहता, "बायाँ." हरेक सवाल का हमारा ' एक्स ' बहुत ही सटीक जवाब दे रहा था.
सबको यकीन हो आया कि अँधा ठीक हो गया, उसे दिखने लगा. तभी मौलवियों कि फौज ताम्बे के थाल लिए उस भीड़ में घुस आई और और चिल्ला चिल्ला कर कहने लगे, "ऐ सच्चे मुसलमानों ! तुमने अपनी आँखों से अभी अभी एक करिश्मा देखा है, मस्जिदों कि देखभाल, यतीमखाने के खर्चों के लिए कुछ खैरात दो." सब से पहले एक अमीर ने नोटों का एक बण्डल थाल में डाल दिया, उसके बाद शुरू हो गये दरमियाने तबके के लोग, अफसर, नौकरी पेशा लोग...... खुले हाथों लोगों ने रुपये पैसे थाल में डाले. तीन चार बार थाल बदलने कि मशक्कत मौलवियों को करनी पड़ी....धीरे धीरे खैरात में थोडी सुस्ती आ गयी. एक लंगड़े को कोठारी से बाहिर निकाल कर लाया गया. उसने भी मजार कि सीढियों को चूमा और बैसाखियाँ फैंक दी. लंगड़ा चल रहा था टांगे उठा कर. मौलवी लोग फिर थाल लेकर भीड़ में घुस गये और हांक लगाने लगे, " ऐ मुसलामानों ! तुम ने अभी अभी एक और करिश्मा देखा. दिल खोल कर खैरात करो...अल्लाह के करम तुम्हे हासिल होंगे." मुल्ला नसरुद्दीन हर बात पर अपनी गहरी नज़र राखे हुए था....उसने भी हुंकार लगायी , " ऐ मौलवियों ! तुम इसे करिश्मा कहते हो और मुझ से खैरात मांगते हो....पहली बात तो यह है कि खैरात देने के लिए मेरे पास फूटी कौड़ी तक नहीं है. और दूसरी बात यह है कि मैं खुद एक पहुंचा हुआ फकीर हूँ और इस से भी बढ़ कर करिश्मा मैं दिखा सकता हूँ." मौलवियों ने समवेत स्वर में उद्घोष किया, " तू फकीर है ? ऐ मुसलमानों, इसकी कोई बात मत मानो. इसकी जुबान से शैतान बोल रहा है."
नसरुद्दीन भीड़ कि तरफ मुड़ा. लगा तकरीरी अंदाज़ में बोलने, " ऐ मुसलमानों ! इन मौलवियों को यकीन नहीं है कि मैं करिश्मा दिखा सकता हूँ. मैंने जो कुछ कहा है, उसका सबूत दूंगा. इस छप्पर वाली कोठरी में जो अंधे, लंगडे, बीमार बिस्तर पर गिरे पड़ें हैं, मैं इन सब को बिना हाथ से छुए ठीक कर सकता हूँ. मैं सिर्फ कुछ लफ्ज़ कहूँगा और ये लोग अपनी-अपनी बीमारियों से छुटकारा पा जायेंगे. खुद ही उठ कर इतनी तेजी से भागेंगे कि तेज़ अरबी घोड़े भी इनको नहीं पकड़ पाएंगे."

छप्पर वाली कोठरी की दीवाल पतली और कच्ची थी. जगह जगह से दीवारें चटक रही थी. नसरुद्दीन ने एक ऐसी जगह खोज निकाली थी, जहाँ दीवाल में दरारें कुछ ज्यादा थी. मुल्ला नसरुद्दीन था खूब खाया खेला. उसने अपने कंधे से वहीँ धक्का दिया. थोड़ी सी मिटटी गिर गयी. मिटटी गिरने की थोडी सी सरसराहट हुई, मुल्ला ने फिर एक धक्का दिया..... जरा एक धक्का जोर से वाला. इस बार मिटटी का एक बड़ा सा लौंदा जोरदार आवाज़ के साथ अन्दर जा गिरा, दीवार के उस बड़े छेद से अँधेरे की तरफ से गर्द उड़ती दिखाई दी. मौलवी लोग मुल्ला कि नौटंकी देख रहे थे, मगर कुछ भी बोल नहीं पा रहे थे. नसरुद्दीन कोठरी में सोये घबराए हुए अपाहिजों को चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था, " जलजला आ गया, भागो......भागो......." और उसने दीवाल को एक धक्का और मार दिया. फिर मिटटी भरभराते हुए गिरने लगी.

कोठरी के बाशिंदे बिलकुल ठीक हो गये थे और अपनी जान बचाने भाग रहे थे......'कोठरी का सारा हुजूम' मौलवियों का किया धरा था. किसीको अँधा किसी को लंगड़ा बना कर बैठ दिया था...जरूरत के मुताबिक एक एक को बुला कर चमत्कार दिखाया जा रहा था. यहाँ तो थोक में मुल्ला ने चमत्कार दिखा दिया था. मौलवी भी इम्प्रेस हो कर, अल्लाह के गुण गान कर रहे थे, मुल्ला कि जय-जयकार कर रहे थे. और पब्लिक सचमुच चकित थी कि "जंकी किरपा पंगु गिरी लांघे, अंधे को है देत दिखाई."
मुल्ला छा गया था.....

आगे मौलवियों और मुल्ला में एमिकेबल हो गया था. खैरात से होने वली आमदनी से एक नीयत हिस्सा मुल्ला को मिलने लगा था....मुल्ला एक पहुंचे हुए फकीर के तौर पर मशहूर हो गया था और अपनी प्रोफेशनल प्रक्टिस, याने डोरा-जंतर-ताबीज वगैरह की, वहीँ पर तकिया बना कर जमा चुका था.
आप बाकी बातों की बखूबी कल्पना कर सकते हैं........



सृजन के बीज मंत्र......

उकेर सकते हो
प्रस्तर पर चित्र
खीच कर
आड़ी तिरछी
गोल-मोल लकीरें
किन्तु
होंगे नहीं वो जीवंत
बिना रंगों की सृष्टी के.......

कर सकते हो
एकत्रित
शब्दों की भीड़
किन्तु
नहीं बनेगी कविता
बिना अन्तरंग की दृष्टी के ..........

मिला सकते हो
तुक से तुक
किन्तु
नहीं रच सकते
मधुर गीत
बिना उमड़े
ह्रदय में संगीत की वृष्टि के........

Thursday, August 27, 2009

अनायास/Anaayas.........

स्वर्णिम
चिंगारी
बीज है
अग्नि-पुरुष का,
स्पर्श हुआ..........
आलिंगन हुआ ......
हुई थी
अनायास
प्रकाश कि उत्पति
किन्तु
अनजाने में
अनायास
गर्वोन्मत्त हो गयी थी
व्यर्थ में
भोलीभाली
भ्रमित सी
बाती.........................

Swaranim
Chingaari
Beej hai
Agni-purush ka,
Sparsh hua.......
Aalingan hua......
Hui thi
Anaayas
Prakash kee utpati
Kintu
Anjane men
Anayas
Garvanoamatt ho gayi thi
Vyarth men
Bholibhali
Bhramit si
Baati.......................

छेद ज़िन्दगी के/Chhed Zindagi Ke......

ज़िन्दगी के
चन्द छेदों का
मलाल क्यों ????????
बिंधा हुआ गौहर
जगह पाता है
ताज में
बिन बिंधा मोती
पिस जाता है
खरल में............

(बिना बिंधे याने बिना छेद वाले मोती/गौहर को दवा बनाने के लिए हकीम लोग खरल में पीसते हैं.)

Zindagi ke
Chand chhedon ka
Malaal kyon.........??????
Bindha hua gauhar
Jagah pata hai
Taz men
Bin bindha moti
Pis jata hai
Kharal men.....

(Bina bindhe yane bina chhed wale moti'gauhar ko dava banane ke liye haqim log kharal men peesten hain.)

क़र्ज़/Karz..........

पढ़ कर
चन्द किताबें
ले लेतें हैं हम क़र्ज़
बिन परखी
बिन समझी
अक्ल का
क्यों ना बना कर
खाद-ओ-बीज
उनको
खिलाएं चमन हम
अपने अंतर की
शक्ल का .........

Padh kar
Chand kitaben
Le lete hain hum karz
Bin parakhi
Bin samajhi
Akl ka
Kyon na banaa kar
Khad-o-beej
Unko
Khilayen chaman hum
Apne antar ki
Shakl ka.........

Monday, August 24, 2009

छेह और नेह/Chheh aur Neh.....

घड़ा था फूटा
दिया था बुझा
चल दिए थे
तुंरत
जल और अगन ........

फूल था झरा
सपना था टूटा
रह गये थे
किन्तु
महक और मन...........

Ghada tha phoota
Diyaa tha bujhaa
Chal diye the
Turant
Jal aur Agan......

Phool tha jharaa
Sapana tha toota
Rah gaye the
Kintu
Mehaq aur man....

Sunday, August 23, 2009

सांझ ढले.......

(आज nano नहीं, फॉर ए चेंज एक नगमा पेश कर रही हूँ. मात्राओं में थोडी सी खामी है....सुझाव हों तो दीजियेगा)


सांझ ढले बिना दस्तक इस घर में कोई आया है
दिल की राहों से है गुज़रा, मेरी सांसों में समाया है. !!

उसके आने से मन तन में मेरे झंकार सी उठी है
बिन साजो आवाज़ के, कैसा संगीत उभर आया है. !! १ !!

हवाएं उसको छूकर छुए जा रही है मेरे तन को
पवन में असीर ठंडक ने, रों रों मेरा जलाया है. !! २!!

खोयी हुई थी मैं अब तक अनजाने से अंधेरों में
उसके कदमों की आहट से, उजाला भर आया है. !! ३ !!

खुशियाँ ही खुशियाँ, बिखरी हरसू मेरे जहाँ में
गुलाब मेरी बगिया का, खिजां में खिल आया है. !! ४ !!

तोड़ी है कसमे हमने रस्मों से हुआ किनारा है
तेरे आने से हर लम्हा, फ़रिश्ता बन आया है. !! ५ !!

चहकी है मेरी हर जुम्बिश एक नयी सी छुवन से
देख कर नया रूप मेरा, आज दर्पण भी शर्माया है. !! ६ !!

मुल्ला ने जर्मनी में साहित्य सभा में शिरकत की

कबूतरबाजी के किस्से आप सब ने हाल ही में मीडिया में देखे/पढ़े होंगे. कबूतरबाजी लखनवी नवाबों वाली नहीं, क्योंकि जब से जानवरों के लिए इतनी हमदर्दी पैदा हो गयी कि....कबूतरों ने भी खिलाफत शुरू कर दी, इसलिए इन्सान को ही कबूतर का नाम दिया जाने लगा....बिना वीसा पासपोर्ट के या और किसी बहाने, मसलन म्यूजिक/डांस शो वगैरह, बाहिर मुल्कों में लोगों की तस्करी करने को आजकल कबूतरबाजी कहने लगे हैं...प्रोफ़ेसर विनेश सर साहित्य के क्षेत्र में अन्तराष्ट्रीय स्तर के तमाशेबज़ हैं. ऐसी सेटिंग कर रखी है कि कभी किसी अदबी कांफ्रेंस में, तो कभी सांस्कृतिक या अध्यात्मिक बैठक में, कभी मैनेजमेंट सम्बन्धी विषयों पर बोलने के लिए सर बाहर मुल्क जाते रहतें हैं....छुट्टियाँ की छुट्टियाँ, मौज मस्ती भी, मेल मुलाकात भी और रौकडे भी. गोटी फिट करने के नुस्खे कोई सर से सीखे
आप सब जानते ही हैं कि जितना बड़ा विद्वान् होता है उसकी दोस्ती उतने ही बड़े मूर्ख से होती है, जितना बड़ा ईमानदार इन्सान होता है उसके दरबार में सबसे बड़ा बेईमान पाया जाता है....शायद विपरीतता का आकर्षण का कारण रहा हो. विनेश सर जैसा कि आप जानते हैं पढ़े लिखे शालीन मानव और उनके दोस्त मुल्ला ज़हीन मगर बेवकूफ, भावुक मगर दुष्ट....यारों के यार मगर मतलब परस्त. मगर ना जाने क्या जादू किया है मुल्ला ने सर पर भी कि आजकल मुल्ला पर तुरत लिखतें हैं, दीवानी सीरीज़ बेक सीट ले चुकी है. अभी पिछले दिनों सर ने कहा था कि उन्हें "बोबी डार्लिंग कि ब्रिगेड में शामिल होना पड़ेगा." शायद संगीता आपा के पोस्ट पर लिखा था, भाई बहन कि बातें हैं, जाने दीजिये. लेकिन जहाँ आग होती है वहीँ धुआं होता है...और जहाँ धुआं होता है वहां बर्फ नहीं आग ही होती है. कहने का मतलब यह है कि हमें आश्चर्य है कि विनेश सर मुल्ला कि बात क्यों नहीं टाल पाते. मुल्ला ने उनके आहारे कैसे कबूतर बाजी कि इसका किस्सा आपको बताऊंगी तो आप भी कुछ केयास लगाने लगेंगे. नो ओफेंस, मगर सोच्स्थान तो सभी का सक्रिय हो ही जाता है.
हुआ यूँ कि एक दफा जर्मनी में वहां के प्रबुद्ध लोगों ने भारतीय और जर्मन काव्य में सामंजस्य की चर्चा के लिए एक सम्मलेन का आयोजन किया. जहाँ विनेश सर को भी बुलाया गया....शायद शफक कम्युनिटी से भी दो विदुषी कवियत्रियों को विनेश सर कि अनुशंसा पर आमंत्रित किया गया था.....कुल मिला कर तीन लोगों को बुलाया गया था. विनेश सर ने संगीता आपा और मुदिताजी/मुझ में से कोई एक को मेरिट के आधार पर इस अन्तराष्ट्रीय सम्मलेन में ले जाना चाहा था. मगर मुल्ला आ गये आड़े. क्या घुट्टी पिलाई सर को कि उनके सोच बदल गये.....

मुल्ला बोला : "अमां! खयाल करो....मान लिया कि ये लोग अच्छा लिखती हैं मगर इन्हें कह मत देना, बुरा मान जाएँगी....तुम ठहरे छडे हालाँकि शरीफ हो.खुली सोचों वाले हो....इनका बहुत सम्मान करते हो....लेकिन दुनियादारी का लिहाज़ तो रखना ही पड़ेगा ना...." (मुल्ला पीक थूक कर चुप हो गये)...टुकुर टुकुर विनेश सर को घूरना शुरू कर दिया. विनेश सर- चुप !!! मुल्ला बोला: "पिछले दफा नायेदाजी भी कह रही थी पढ़ा लिखा होने से क्या है, विनेश बहुत सीधे दिल का है, मुल्ला खयाल रखना, यह मेरा देवर ही नहीं छोटा भाई है.. हमें कितनी बड़ी जिम्मेदारी दे दी है उन्होंने...फिर हम तुम्हारे दोस्त भी तो हैं मास्टर...हमें तो सब कुछ देखना पड़ेगा ना." तीर निशाने पर लगा था....सर नाना प्रकार के सोचों से घिर गये थे.
मुल्ला सौ घाघों का एक घाघ, उस ने सोचा ग्राउंड वर्क हो गया. लगा मिमियाने, " प्रोफ़ेसर, तुम को तो बस दूर के लोग दीखते हैं, पास बैठों की कोई क़द्र नहीं. अमां हमारी भी इच्छा है जरा जर्मनी घूम आने की. ऐसे तो ज़िन्दगी में कभी भी नहीं जा सकेंगे. तुम्हारे जैसा हमदम दोस्त मिला है....कितना दरियादिल है तुम....उंच नीच, जात पांत, मज़हब फिरका कुछ भी नहीं गिरा सकते तुम्हारी सोचों को...देखो ना कहाँ तुम कहाँ हम....क्या हुआ हम भी जमींदार खानदान के हैं मगर हमारा इतिहास तो तुम्हे बता ही चुके हैं. असली ठाकुर हो तुम तो....प्राण जाय पर बचन ना जाई.....कहा था ना उस दिन कि मुल्ला तुम्हारी ख़ुशी के लिए सब कुछ करूँगा. आज मौका आ गया है, अपने बचन पूरे करो, हम को भी अपने संग जर्मनी ले चलो....हमें तो अच्छा लगेगा ही तुम्हे भी हमारे जैसे दोस्त की सोहबत नसीब होगी."
टू कट इट शोर्ट, जैसे तैसे मुल्ला ने मास्टर को मन लिया कि उसे भी जर्मनी साथ ले जायेंगे. प्रोफ़ेसर बोला, "मुल्ला यह सम्मलेन भारतीय कवियों और जर्मन कवि गेटे के कार्यों में लक्षित साम्यता पर विवेचन करने के लिए है. मैं गेटे के कामों और हिन्दुस्तानी कवि जय शंकर प्रसाद पर पेपर प्रस्तुत करूँगा. तुम ग़ालिब और गेटे पर अपनी वार्ता पेश कर देना." मुल्ला बोला, " यार ग़ालिब चचा तो हमारे महबूब शायर है मगर यह गेटे जर्मन वाला तो हमारे लिए बिलकुल नया है." वैसे मुल्ला हर कोई शेर ग़ालिब के नाम से पढने के आदी हैं. विनेश सर बोले, "मुल्ला, काफी वक़्त है, तुम महक से या मुदिताजी से गेटे के बारे में जानकारी हासिल कर लेना. फिर मैं तो हूँ ना." मुल्ला लगा कहने, "घर की बात मास्टर बाहर नहीं जाये....जो करना है तुम ही कर दो.....लिख दो एक पेपर ग़ालिब और गेटे पर भी, हम रट्टा मार लेंगे और वहां उगल देंगे." यह बात ज्यादा प्रैक्टिकल थी. विनेश सर मान गये. मुल्ला हर मुश्किल को मौका समझनेवालों में है. संगीता आपा को खबर कर दी कि वोह, मास्टर और मुल्ला जर्मनी जा रहे हैं....संगीता आपा ने सोचा कि ऐसे जाहिल आदमी का साथ उचित नहीं, उन्होंने तवियत का बहाना बनाया और खिसक ली इस मनसूबे से.

मुल्ला के लिए यह समस्या नहीं अवसर था.
सरदार गुरबन्दर सिंह एक सेल्फ मेड इन्सान थे. अविभाजित पंजाब के किसी पिंड (गांव) की पैदाईश थी दारजी की. बाप वहां ताला चाभी वाले हुआ करते थे. बालक गुरबन्दर ने बाप से ताला चाभी के काम कि ट्रेनिंग ली थी. बंटवारा हुआ, यहाँ के लोग वहां और वहां के लोग यहाँ किसी तरह आये. गुर-बन्दर भी एक शरणार्थी के रूप में भटिंडा पहुंचे. अपने ताला चाभी के फन कि बदौलत चौधरी असरफ खान कि हवेली का ताला खोल कर काबिज़ हो गये. असरफ खान ना जाने क्या क्या ख्वाब लेकर उस पर गया था, और मुहाजिर बन कर रह गया...सुना है यहाँ का कारोबारी असरफ वहां बूट पोलिश करता था. हाँ तो हवेली पर कब्ज़ा किया, कई किरायेदार भी रख लिए.....वहां मोटर मेकेनिक का काम भी सरदार ने सीखा हुआ था, सो एक मोटर गराज भी खोल लिया. जोड़ तोड़ में माहिर अनपढ़ सरदार बस ठेकेदार बन गया, कोई २०० बस ट्रक सरदार के पास हो गये. सफ़ेद पायजामा कमीज पहनता...नीली पगडी लगाता....सरदार कि गिनती भटिंडा के इज्ज़तदार लोगों में होने लगी थी....सरदार हैदराबाद आता जाता रहता था....शायद किसी रिश्तेदार के यहाँ.....मुल्ला की दोस्ती रेल के डब्बे में हुई थी सरदार से और धीरे धीरे प्रगाढ़ हो गयी थी. सरदार ने मुल्ला से कहा था कि अपनी इज्ज़त में इजाफा करने के लिए उसे अगर बाहिर मुल्क जाने का चांस मिल जाये तो वाहे गुरु दी किरपा हो जाये....मुल्ला ने सरदार को फंसाया, उस से पहिले का कोई १० हज़ार का क़र्ज़ माफ़ करा लिया और ऊपर से २५ हज़ार और ऐंठ लिए. बोला मुल्ला आकर भोले भाले विनेश सर से, "मास्टर संगीताजी तो जाएँगी नहीं, क्यों ना सरदारजी को ले जाएँ, वे भी बुल्लेशाह और गेटे पर भाषण दे देंगे....तुम लिख देना सरदार आहिस्ता आहिस्ता रट्टा लगा लेगा, फिर पेपर तो रहेगा ही."
जैसा कि कहा जा चुका है किसी अज्ञात कारण से विनेश सर मुल्ला कि हर बात मानते हैं. थोड़े नाटक-नौटंकी के बाद सरदार का कार्यक्रम भी फाईनल हो गया.
यथा समय प्रोफ़ेसर विनेश राजपूत, मुल्ला नसरुद्दीन 'बदायुनी' और भाई गुर-बन्दर सिंह 'रंगीला' बर्लिन पहुँच गये. वहां के एक ऑडिटोरियम में सम्मलेन था....मंच पर तथा हॉल में....ग़ालिब, गेटे, जयशंकर प्रसाद, मेक्समुलर, गाँधी आदि हस्तियों के चित्र लगाये गये थे....भारत और जर्मनी के झंडों से हॉल को सजाया गया था......विनेश सर ग्रे सूट में, मुल्ला काली अचकन, सफ़ेद पायजामे औत टोपी में, सरदार जी सफ़ेद चूड़ीदार शेरवानी और नीली पगड़ी में बहुत जम रहे थे. हॉल में जर्मन नर नारी भरे थे...वहां के साहित्य प्रेमी जिन्हें बस जर्मन भाषा ही समझ में आती है. तीनों के पपेर्स का जर्मन तजुर्मा सर्कुलेट किया जा चुका था, हाँ यह तय था कि तीनों वक्ता अपना प्रस्तुतीकरण अपनी भाषा में ही करेंगे...विनेश सर हिंदी में, मुल्ला उर्दू में और सरदारजी पञ्जाबी में. मुल्ला और सरदार ने विनेश सर के लिखे संभाषण को हाथ तक नहीं लगाया था. खाने पीने में, मौजमस्ती में वक़्त गुजार दिया था. तीनों ही पोजिटिव माईंड वाले, मोमेंट्स में जीने वाले.......प्रोफेसर विनेश ने बहुत अच्छी तरह से बाबू जय शंकर प्रसाद और गेटे पर बोला. समझें या ना समझें जर्मनों ने तालियाँ बजायी. भाषण एक्स-टेंपो हमारे मुल्ला और सरदार जी का भी खूब रहा, दोनों ने अपने भाषण में कुदरती जोश के अलावा गीत/ग़ज़ल/गाना भी शामिल किया था....विनेश सर से ज्यादा तालियाँ दोनों ने बटोरी. .....कहते हैं, जब भी दोनों ग़ालिब-गेटे या बुल्लेशाह-गेटे के नाम लेते, जर्मन श्रोता झूम झूम कर तालियाँ पीटते, दोनों जब भी गाते तालियाँ और जोरों से बजती. कुल मिलाकर कार्यक्रम सफल रहा......खाली विनेश सर सिर धुनते रहे. आप सोचतें होंगे कि जब मुल्ला और सरदार ने भाषण रट्टा नहीं तो क्या बोला था...और वह इतना असरदार क्यों था ? दोनों के भाषण आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है.

मुल्ला का प्रेजेंटेसन (just sample)

खवातीन हजरात ! ग़ालिब गेटे अपनी अपनी माँ के बेटे (तालियाँ) ....ग़ालिब-गेटे बिस्तर पर लेटे.(तालियाँ) इंडिया जर्मनी....ग़ालिब गेटे.....नौकर से कहो बिस्तर समेटे.(तालियाँ) जनाब हैदराबाद में आकर अगर कल्लू मियां की हैदराबादी बिरयानी ना खाई तो क्या किया, बड़े बड़े देगों में चावल के दाने केशर में लपेटे---ग़ालिब-गेटे (तालियाँ) जुम्मन मियां कि बीवी जमालो पड़ोसी के साथ भाग गयी....जुम्मन अब कैसे गुज़रे दिन और रात लूंगी लपेटे...ग़ालिब-गेटे.(तालियाँ) अब लगे गाने : सितारों में मुहम्मद नज़रों में मोहम्मद, मोहम्मद ही मुहम्मद है.....(तालियाँ..) बलमा हमार मोटर कार लईके आयो रे ....बलमा हमार...ग़ालिब-गेटे (तालियाँ) . हैदराबाद का एअरपोर्ट शहर के बीच में हैं....इंडिया-जर्मनी. हैदराबाद आयें तो सलारजंग म्यूज़ियम ज़रूर देखिएगा-ग़ालिब-गेटे.(तालियाँ) चारमिनार इलाके में आपको सब कुछ मिलेगा-ग़ालिब-गेटे.(तालियाँ) बंजारा हिल्स पोश इलाका है, वहां रहने का मज़ा ही कुछ और है (ग़ालिब-गेटे) तवायफ हूँ मुजरा करुँगी..ग़ालिब-गेटे (तालियाँ).................(सैम्पल-ऐसा ही कोई एक घंटा चला)

सरदार गुर-बन्दर सिंह जी की तक़रीर

फायियों pharjayiyon ! हुन तुसी स-दार कुर-बन्दर से खबरें सुणो....बुल्लेशाह-गेटे ! ओजी दिल्ली ते विच साढे नेताओं ने भांगडा पाड़ा...बुल्लेशाह-गेटे. ताला कोई सा हो जी, असी उस दी चाभियाँ बना संकदा...बुल्लेशाह-गेटे...पंजाब मेल जेहडी चंगी कोई ट्रेन नहीं, थ्री टियर विच बाबूजी नूं पैसा फड़ा ते सो जाओ, भटिंडा आ ज्याना....जर्मनी-इंडिया. ओये तुतक तुतक तुतीय..हे जमालो... बुल्लेशाह गेटे...
काली तेरी चोटी है परांदा तेरा लाल है...बुल्लेशाह-गेटे. हो मोला कि जाना मैं क्या चीज हुन....मैं धोबी नहीं लोहार हुन....बुल्लेशाह दी गलां गेटे नु सुनावां..... साढे नाल कोई दौ सो बसां है...टाटा दी है, अशोक लेलैंड दी है, वोल्वो दी है.....सब चंगी है.....इंजन चंगा, बॉडी चंगी, एक्सीलेटर चंगा....जे नहीं चंगा उस नूं असी चंगा कर दिता.....बुल्लेशाह-गेटे (तालियाँ)..........(सैम्पल....ऐसा ही कोई एक घंटा चला.)


(the plot of this post is partially inspired by a urdu story by Krishan Chander and another by Pakistani writer Shaukat Thanwi-----though this presentation is original in totality )

Friday, August 21, 2009

Mahamudra.....

You pulsate
Pulsates your beloved
You come to
The deepest layer of body
Matter loses its existence
Energy waves are there
You are then
A dancing energy
No boundaries exist
Body becomes
A vaporous thing
Body evaporates
Only energy is left
A very subtle rhythm is there
Beats of hearts and bodies
Come together in total harmony
There remains two no more
Yin moving into yang
Yang moving into Yin
You are no more
Your love becomes death like
You die as a material image
Your thinking yourself as body..dies
You evolve as energy
And when this happens
With the whole existence
This is Mahamudra
This is the great orgasm
This is the greatest orgasm.......

Wednesday, August 19, 2009

आँखें और पाँव........

पर्वत की शिखा पर
खडी हो कर
देखा था नन्ही चींटी ने :
हाथी मानो बकरी जितना हो
ऊँट बस खरगोश के बराबर
बहुत खुश हुई थी चींटी
बढ गया था
'कॉन्फिडेंस लेवल'
लगी थी सोचने :
"बहम था मेरा
बस...........
आँखन देखी से
निकल गया,
अब डर काहे का ?"
तेज कदमों से
उतर आई थी नीचे
फिर दिखने लगे थे
हाथी और ऊँट
बड़े बड़े... लम्बे से कद वाले.
घबरा गयी थी चींटी
लगी थी पूछने पर्वत से :
"लिल्लाह क्या हो गया यह
चन्द लम्हों में !
यह फर्क कैसे हो आया?"
बोला था पर्वत :
"अरे चींटी !
पहले आँखे थी तुम्हारी
मगर पाँव थे मेरे
और............अब
आँखे भी तेरी और
पाँव भी तेरे."

Tuesday, August 18, 2009

रोम रोम में/Rom Rom men.........

ताम्बे के कलश ने
आखिर पूछ ही
लिया था
मिटटी के घडे से:
"जल
मेरे साथ उष्ण
तुम्हारे संग शीतल
हो जाता है क्यों ?"
"बात बस इतनी ही है
तुम रखते हो उसे जुदा
और मैं तो
समा लेता हूँ उसे
रोम रोम अपने में"
दिया था उत्तर घडे ने........

Tambe ke kalash ne
Aakhir puchh hi liya tha
Mitti ke ghade se:
"Jal mere sath ushna
Tumhare sang sheetal
Ho jata hai kyon ?"
"Baat sbas itni hi hai
Tum rakhte ho use juda
Aur main
Sama leta hun use
Rom rom men apne."
Diya tha uttar ghade ne.....

Sunday, August 16, 2009

निर्वात/Nirvaat

बहुत जी ली है
जग की परिभाषाएं
जी लूंगी और भी,
सोच ना पाई थी
कभी
स्वयं को...
जिंदगी की
आपाधापी में,
होता रहा
महसूस
एक निर्वात सा,
स्पर्श तुम्हारे ने
बिन छुए ही
छू लिया
मेरे सत्त्व को
बढ़ गयी है
तड़फ
बदलने
निर्वात को
संपूर्णता में
शून्यता में..............

निर्वात=Vaccum (in the sense of Physics), शून्यता = Emptiness, void (in the sense of philosophy/spirituality), सत्त्व=Essence सम्पूर्णता=wholeness.

रातें मचलती रही...............

दिन ढलते रहे
रातें मचलती रही
वो तो पत्थर रहा
मैं पिघलती रही........!!दिन ढलते रहे- रातें मचलती रही !!


बिजली गरज़ती रही
बारिश लरज़ती रही
मैं तड़फती रही
हरसू जलती रही..........!! दिन....!!

चाहत डरती रही
जुबाँ अटकती रही
मैं भटकती रही
यूँ ही चलती रही .........!! दिन......!!

बाहें ठंडी रही
साँसे मंदी रही
नज़रें अंधी रही
हर शै खलती रही .......!! दिन....... !!

पीड़ा बढती रही
शूलें गड़ती रही
खुद से लड़ती रही
नज़रें संभलती रही ......!! दिन ........!!

दस्तक होती रही
मोहलत सोती रही
फुर्सत रोती रही
कुंठा पलती रही .........!! दिन......... !!

झूठें छुटती रही
सोचें उठती रही
क़समें टूटती रही
रस्में बदलती रही .......!! दिन...........!!

रोशनी होती रही
फिजा महकती रही
शामें चहकती रही
कलियाँ खिलती रही .....!! दिन.....!!

Friday, August 14, 2009

यहाँ भी-वहां भी........

हीर राँझा
शीरीं फरहाद
लैला मजनूं
सोहनी माहिवाल की
मोहब्बत को
गाया जाता है
यहाँ भी
वहां भी.........

उर्दू सी मीठी जुबान
ग़ालिब के शे'र
मीर की ग़ज़ल
बुल्लेशाह का तराना
खुसरो के नगमे
ठुमरी दादरा
नातें कव्वाली
एक से हैं
यहाँ भी
वहां भी...........

काली दाल
तंदूर की नान
सरसों का साग
मकई कि रोटी
अवधी बिरयानी
मुगलई पकवान
जायेका देते हैं
यहां भी
वहां भी......

अम्मी का लाड़
अब्बा की डांट
भाभी की प्यार भरी च्यूंटी
देवर की ठिठोली
सास ननद की बातें
पड़ोसी की ताका झांकी
हमसाया की मददगारी
यारों कि यारी
बारात के हंगामे
बिटिया की आंशुभरी विदाई
रिश्ते-नातों की खुशियाँ
नाते-रिश्तों के दर्द
समाये हैं ज़िन्दगी में
यहाँ भी
वहां भी...........

इन्त्ज़ामियां की ज्यादती
सिफारिश और घूसखोरी
लुकाव-छुपाव-दुराव
दोगली सियासत
शोर्ट कट का ज़ज्बा
झूठ और फरेब की बातें
अमीर गरीब के दरमियाँ खाई
लीडरों की बेवफाई
कमोबेश
यहाँ भी है
वहां भी.....................

फर्क कुछ नहीं
काट रही है
नयी पौध
फसलें ज़हर की
बोये थे बीज जिस के
सियासतदानों ने
फिरकापरस्तों ने
कोई बासठ साल पहिले
यहाँ भी
वहां भी.........

Thursday, August 13, 2009

भजन.....(Rajasthai Bhasa men)

(तर्ज़ : राजस्थानी लोक गीत 'पणिहारी' )

आवो म्हारे घर कान्हजी औ
म्हारा मदनगोपाल
म्हारा नंदगोपाल
उबी उबी जौवूं थारी बाट, बृजलाला...........

पलक पावडा बिछा रया सा
म्हारा गुवालां रा सिरदार
सुणज्यो गोप्यां रा दिलदार
पाट बिराजो सा , बृजलाला..............

अंसुवन धोवुं चरणकमल
श्यामा करो बिस्-राम
मोहन करो आराम
थक्या थक्या आया सा, बृजलाला............

शरबत मीठो गुलाब रो
कान्हा चांदी री गिलास
कईं ना लागी थाने प्यास
होठां सुं लगाओ सा , बृजलाला...................

छप्पन भोग पकवान है
कान्हा सोने केरो थाल
सोरम आवे अपरम्पार
आप आरोगो सा , बृजलाला..........

रेशम रा गिदरा बिछा दिया सा
पोढो जसोदा रा लाल
माता देवकी रा लाल
लोरी सुणावां सा, बृजलाला.........

सुपने में बिन्दरा बन सज्यो सा
म्हारा नटवर लाल
म्हारा मदनगोपाल
रास रचाओ सा , बृजलाला.........

जल जमना रो जोर को सा
बिंरो लीलो लीलो रंग
जियां थांरा सगळा अंग
बांसरी बजाओ सा, बृजलाला........

आणंद हिये में देवज्यो सा
म्हारा पालन हार
म्हारा किरपानिधान
शोभ्या थारी गावां सा, बृजलाला..........

Tuesday, August 11, 2009

भेद अभेद का /Bhed abhed ka

आक और गुलाब में
करता है अंतर
मनुज
खेल है यह
पूर्वाग्रह और
विभेद का,
तलाश लेती है
मधुमख्खी
सुमधुर मधु
दोनों ही में -------
यही है
भेद अभेद का .......

Aak aur gulab men
Karta hai antar
Manuj
Khel hai yah
Purvagrah aur
Vibhed ka......
Talash leti hai
Madhumakhkhi
Sumadhur madhu
Dono hi men.........
Yahi hai
Bhed abhed ka ........

Monday, August 10, 2009

अवगुण/Avagun

काँटा बाड़ का
बाड़ को नहीं
खुभता
अवगुण खुद का
खुद को नहीं
चुभता.......

Kaanta barh ka
Barh ko nahin
Khubta
Avagun khud ka
Khud ko nahin
Chubhta.....

(Inspired by a Rajasthani wisdom)

Sunday, August 9, 2009

तुम ने पुकारा और हम चले आये : मुल्ला ने साबित किया

इन्सान इतना biased हो जाता है की हर संजोग में उसूल तलाश कर लेता है. जैसे कि एक सोसाइटी बिल्डिंग में रहने वाले एक लड़की और एक लड़के में इश्क हो जाना.....या भैय्या की साली से छोटे भाई का प्रेम हो जाना....और कहना कि 'मुझको बनाया गया है तेरे लिए'.

बहुत सी बातें महज़ संयोग होती है सिद्धांत नहीं.

अब मुल्ला नसरुद्दीन की ही बात लीजिये. मुल्ला गया था अफ्रीका शिकार करने. असलियत क्या थी अल्लाह जाने, अफ्रीका गया या नहीं ? अगर अफ्रीका गया तो शिकार को गया या नहीं ? शिकार को गया तो इतना exposure हुआ कि नहीं ?.......कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन्हें अनुत्तरित छोड़ देना ही उचित होगा.
हाँ तो, दोस्त लोग इकठ्ठा हुए उसके शिकार के कारनामें सुनने के लिए. मुल्ला था कि अपनी आदत के अनुसार, घी मिर्च लगा कर , खूब बढा चढ़ाकर.....चटखारे लेते हुए अपने किस्से सुनाये जा रहा था. यह बात और थी कि मुल्ला कि डींगे किसी को भी भरोसा नहीं दिला पा रही थी. मगर मुल्ला नॉन-स्टाप FM रेडियो की तरह बजाते जा रहे थे.
मुल्ला ने हांका कि एक ऐसा जानवर वहां उस ने पाया कि जब भी जानवर को अपनी मादा को बुलाने होता है तो जोरों से चिंघाड़ता है, मादा कहीं भी हो, जंगल के किसी भी कोने में बैठी-खडी-पड़ी हो, सीधी दौडी चली आती है.
जैसा कि होता है और खासकर मुल्ला की महफिल में जहाँ विनेश सर जैसे ज्ञानी पाए जाते हैं....सर यह कह बैठे, "अमां यार नसरुद्दीन ! कैसी आवाज़ करता है वह जानवर जरा हम को भी तो वैसा कर के बतलाओ."
मुल्ला बड़े जोर से चिंघाड़ कर उस जानवर कि आवाज़ में चिल्लाया. जब वह चिल्लाया उसी वक़्त बगल का दरवाज़ा खुला और उसके बीवी ने कहा, " कहो मुल्ला, क्या बात है ?"

कहते है ना संगत का असर आता है. गौरे के पास काला बैठता है तो उसका रूप नहीं तो गुण जरूर आ जाते हैं. मुल्ला भी तो विनेश सर जैसे बुद्धिशाली तर्क प्रवीण 'मासटर' का जिगरी यार......सोचा कि बात बन गयी.

मुल्ला लगा कहने, "देखो, उसूल समझ में आया.....सिद्धांत घुसा भेजे में. नर की चिंघाड़ और मादा का चले आना....देख लिया आवाज़ का जादू, हाथ कंगन तो आरसी क्या ? खाम-ओ-ख्वाह तुम लोग मुझे लपेटने वाला समझते हो."

कोख/Kokh

सीप के गर्भ से
उपजा कंकर भी
मोती कहलाकर
बन जाता
अनमोल
कहने को
एक ही कबीला
लेकिन
कोख कोख का मोल.........

Seep ke garbh se
Upja kankar bhi
Moti kahlakar
Ban jata anmol
Kahne ko
Aek hi kabeela
Lekin
Kokh kokh ka mol.......

(Inspired by a Rajasthani Wisdom)

Saturday, August 8, 2009

धीरजधर/Deerajdhar

धीरजधर
सागर सा
कहाँ
जो सहता हर
प्रतिघात,
करती रहती
लहरें
निशि दिन
नाना रक़म
उत्पात.............

Dheerajdhar
Sagar sa
Kahan
Jo sahta har
Pratighat,
Karti rahti
Lahren
Nishi din
Nana rakam
Utpat...........

Friday, August 7, 2009

पात्रता/Patrta...........

विराजित स्थिर
बूँद एक ओंस की
शूल की नोक पर
दिया है स्थान
धरा ने
जलधि को
सीना स्वयं का
चीर कर
किन्तु सागर है
आडोलित
अस्थिर
कंटक है कैलाश
बूँद शिव शम्भु
परमेश्वर.....

Virajit sthir
Boond aek aons ki
shool ki nok par
Diya sthan
Dharaa ne
Jaldhi ko
Seena swayam ka
Cheer kar
Kintu sagar hai
Adolit asthir
Kantak hai kailash
Boond Shiv Shambhu
Parmeshwar............

Thursday, August 6, 2009

शमीम/Shameem...........

फूल !
रूप पाया तू ने
माटी से
सूरज से पाए हैं रंग
छुयेगी पवन तुझ को
फैलेगी महक चहुँ दिशी
बन कर शमीम.....

शमीम=खुशबूदार हवा का झोंका

Phool !
Roop paya hai tu ne
Maati se
Suraj se paye hain rang
Chhuyegi pawan tujhko
Failegi mehaq chahun dishi
Ban kar shameem...........

Shameem=Khusboodar hawa ka jhonka.

Wednesday, August 5, 2009

परनिंदा...

# # #
रखने
काबू में
जुबान को,
किये थे
कुदरत ने
जतन बहुत से,
बना कर
परकोटा
होठों का
जड़ा था
ताला मौन का,
सौंप दी थी
कुंजी ज्ञान की
इंसान को....

नहीं हुआ था
सहन यह सब
जीभ की
बालसखी
'पर-निंदा' को,
पड़ गयी थी वो
चिंता में,
कैसे करे मुक्त
जिव्हा को
प्रकृति के
कारागृह से....

एक दिन
देख कर
नितांत एकांत
जा पहुंची थी
'परनिंदा'
मानव मन की
अट्टालिका में
मानव
भूल गया था
आपा अपना
सुनकर
कर्ण-मधुर
चिकनी चुपडी
बातें उसकी ......

किया था
क्रियान्वन
परनिंदा ने
अपने मंसूबों का,
करके महसूस
इन्सान को
वश में अपने
चुरा ली थी
कुंजी ज्ञान की,
और
खोल कर
मौन के ताले को
निकल आई थी
संग जिव्हा के.......

Tuesday, August 4, 2009

अर्जीनवीस/arzinavees

मिल जाती गर
फूल को
उम्र खार की,
खिजां और बहार
गवां देते मायने अपने,
हमारा अजीम शायर
'वक़्त'
बन कर रह जाता
महज़ एक अर्जीनवीस........

खार= कांटा, खिजां=पतझड़ ऋतु, बहार= बसंत ऋतु, अर्जीनवीस=प्रार्थना-पत्र लिखनेवाला( अक्सर कचहरी के बाहर बैठते हैं और अर्जियां, हलफनामें, दलील वगैरह की बंधी बंधाई सी रूटीन ड्राफ्टिंग करतें हैं)

Mil jati gar
Phool ko
Umr khaar ki
Khizan aur bahaar
Ganwa dete mayne apne
Hamaara azeem shayar
Waqt
Ban kar rah jata
Mahaz aek arzinavees..........

Khaar=kaanta, Khizan=patjhad ritu Bahaar=basant ritu, Arzinavees=one who sits near court and earns his livelihood by writing applications, affidavits, deeds etc. in routine language which lacks flow and rhythm.

Sunday, August 2, 2009

घर का भेदी लंका ढावे/Ghar ka bhedi lanka dhawe....

पांव ने पूछा था
सुई से
कैसे निकाल पाती हो तुम,
जल्द इतना कांटे को
"भोले ! सूना नहीं तुमने
घर का भेदी लंका ढावे."
दिया था जवाब सुई ने.........

Paon ne puccha tah
Sui se
Kaise nikaal pati ho
Jald itna kaante ko
"Bhloe ! suna nahin tumne
Ghar ka bhedi lanka dhawe."
Diya tha jawab sui ne........

भाईचारा

बैठ गया था आकर कौवा एक
अड्वे के मस्तक पर
मार मार कर चोंच उसने
हंडिया से सिर पर,
परख लिया था कि
पुतला है निर्जीव.........

कौवे ने कांव कांव का सुर छेड़
दे दिया था नेह निमंत्रण
अन्य पक्षियों को :
आ जाओ भाईयों
होकर निर्भय
क्यों ना चुगा जाय खेत को
मिटाने हेतु तीव्र उदराग्नि को .........

कृषक ने देखा था मंज़र
पखेरुओं की टोली
चुगे जा रही थी खेत
करते हुए अदा शुक्रिया
दिलदार कौवे का,
लगा निशाना गुलेल से
मारा था ढेला
उसने कौवे पर,
हो गया था ढेर तत्क्षण
काक सुजान
उड़ गये थे सारे पखेरू
होकर भयातुर और परेशान.....

सिखाना है सबक सबको
सोच रहा था किसान
बांध पंजों से लटकाया था उल्टा
मृत कौवे को उसने
बीच खेत में खड़ी
एक खेजडी पर
ताकि हों जाएँ सब भयभीत
खेत चुगने की फिर से
हो ना कोई बातचीत ........

देख शव निज बंधु का
अनगिनत कौवे
मचा रहे थे 'कांगारोल'
उछल उछल कर
और मारे जा रहे थे चोंच
अडुवे के सर पर.........

काश होती मनुष्य जाति में भी
ऐसी संवेदना
ऐसी एकता
ऐसा भाईचारा............

_____________________________________________________________

(यह कविता एक राजस्थानी दृष्टान्त को शब्द देने का प्रयास है... कुछ राजस्थानी शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनके मायने भी दिए जा रहें हैं)

१) अडुआ=बिजूका, याने एक पुतला जिसे घास-बिचाली-बांस आदि से बनाया जाता है...आदमी के कपडे पहनाये जातें हैं, हंडिया से सिर बनाया जाता है, और खेत में पक्षियों को डराने के लिए स्थापित किया जाता है.

२)खेजडी= एक पेड़ जो रेगिस्तान में होता है.

३)कांगारोल = शोर से तात्पर्य है.