Sunday, February 27, 2011

कयास...

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शहर कहे
अच्छा तुझे
बात नहीं
कुछ खास,
यदि पड़ोसी
भला कहे
तब करना
विश्वास ..

हर पल जो
बरते तुझे
करे वो ही
सत्य प्रकाश,
अन्य
परायों की तरह
लगाया करे
कयास..

दरकार...

# # #
मोल भयो
इन नयनन को,
रह्यो
जब तलक
पलकन पे
इन्तिज़ार,
मिली गयो
मोहे पिया
री सखी !
अजहूँ,
मोहे काहे
अंखियन की
दरकार..

Monday, February 21, 2011

टूट जाये न माला कहीं प्रेम की : नायेदा आपा

अंकित ने इस गीत/भजन को अपने बचपन में सुना था और उनके अधरों पर रहता है अकसर यह गीत.
इसका मुखड़ा और पहिले दो अंतरे वो ही हैं जो वे गया करते हैं, बाद के तीन अंतरों को जोड़ने की कोशिश मैंने की है. मिलावट लाख कोशिश कर के भी 'ओरिजनल' के मुआफिक नहीं हो पायी है, मगर कोशिश दिल से की गयी है. हलकी मस्ती में 'कवाल्ली स्टाईल' में गाया जाये तो बहुत अच्छा लगेगा यह सीधा-साधा सा नग्मा.


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टूट जाये न माला कहीं प्रेम की !
वरना अनमोल मोती बिखर जायेंगे !!

मानो ना मानो ख़ुशी आपकी.
दो दिन के मुसाफिर बिछड़ जायेंगे. !! टूट जाये.....!!

यह न पूछो के हम से किधर जाओगे.
वो जिधर भेज देगा उधर जायेंगे. !!टूट जाये...!!

मिल लो सभी को लगा के गले.
कुछ अभी.. तो..कुछ उस.. पहर जायेंगे !!टूट जाये...!!

आपस में है राजी... और खुश हम यहाँ.
मत ना सोचो...शेखो बरहमन किधर जायेंगे. !!टूट जाये...!!

जिंदगी जो मिली है तो जी लो सनम.
घुट घुट के रहेंगे तो म़र जायेंगे. !!टूट जाये...!!

Tuesday, February 15, 2011

अभिज्ञान सत्य का : नायेदा जी की एक रचना

# # # #

कुरआन पढने से कहीं अधिक गाये जाने की पवित्र पुस्तक है। कुरआन किसी विद्वान अथवा दार्शनिक द्वारा लिखित नहीं है, यह तो सीधे प्रभु से प्राप्त छंदों का अनूठा संग्रह है जिसमें है एक संगीतमय सन्देश मानवता के लिए प्रभु की ओर से । कुरआन में एक महान लय-ताल है जो उसके माधुर्य में लीन होने पर ही प्राप्य हो सकती है। यह कविता एक सुगंध परिमल है जो पाई हैमैंने, हो कर संग पवित्र कुरआन के.
# # #
सुनना
वही होता है
सटीक
होता है जिसमे
ध्यान अर्थ का
और
होती है
तत्परता
स्वीकारने
विवेकशील
तथ्यों को....

पाने हेतु
अभिज्ञान
सत्य का ,
नहीं है
कोई प्रयोजन
अकारण
विरोध और
तर्क का....


यदि
घड़ रहा हूँ मैं
झूठ कोई
तो होउंगा
उत्तरदायी
केवल मैं ही
कर्म अपने का,
नहीं है कोई
दायित्व
तुम पर
उसका....

यदि तुम
झूठला रहे हो
सत्य को तो
उसमें है
क्षय केवल
तुम्हारा
ना कि मेरा...

सरिता और सागर

# # #
पूछने लगा था
सागर
सरिता से,
क्यों है तू
जनप्रिय इतनी
अपनाते हैं क्यों
सब कोई तुझ को
और
पाकर साथ तेरा
हो जाते हैं
प्रसन्न क्यों..

कहा था
सविनय
सरित ने,
मैं तो लेती हूँ
और दे देती हूँ
लगातार,
रखती नहीं
पास कुछ भी
लिए अपने,
और
तू है क़ि
रहता है डूबा
बस
खुद की ही
चिंता में,
किये जाता है
जमा
जो कुछ भी
होता है
हासिल
तुझ को...

Sunday, February 13, 2011

अब मुस्कुराइए : अंकित भाई कृत

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गम-ए-हयात में खुद को ना मिटाइये,
औढ़े से अंधेरों से बाहिर तो आईये.

गुरुर के फसानों से वाकिफ है आप भी,
बस सादगी से यह जिंदगी रंगीं बनाईये.

नाला-ए-मुर्गे सहर को मोहताज़ कब सूरज,
कुदरत की हकीक़त से ना नज़रें चुराइए.

रंजिशों को दिल में रखे हुए दफ़न,
इस जिंदगी को खुद की लहद ना बनाईये.

गया कल कब आया है दुबारा लौट कर
आज ही सच है,हसीं महफ़िल सजाईये.

खोला कीजे दरीचे अपने घर के भी कभी,
मौसम बड़ा दिलकश है, टुक लुत्फ़ उठाईये.

हंसने से बनते हैं माहौल खुशगवार
उदासी के ड्रामे हो लिये अब मुस्कुराईये।

गम-ए-हयात=Sorrow of life. गुरूर=pride नाला-ए-मुर्गे सहर=voice
of the bird that sings in morning.(मुर्गे की बांग) रंजिश=distress,dejection, enemity.
दरीचे=window. लहद=grave.

Thursday, February 10, 2011

उहापोह : नायेदा आपा रचित

# # #
अच्छा
बहुत अच्छा
लगता है
बिन बोले
बोलना तुम्हारा,
लेकिन होती है
उहापोह
तलाशती हूँ जब
मायने
अपने
मन की सोचों के
तेरी नज़रों में...

फिर पूछती हूँ
खुद से ही
रुक रुक कर
यह मेरी धुंधली सी समझ
कोई ग़लतफ़हमी तो नहीं ?????

फिर
एक दिलासे की
तरहा
फलसफाना
अंदाज़ में
कहती हूँ
अपने आप से
शायद ऐसा
तब होता है
जब हम
अपनी सोचों के
अक्स
देखतें है
बना आईना
औरों को
या
बिना जाने
कर बैठते हैं
दावा
समझ पाने का
किसी को ...

टूट कर फिर
समझाती हूँ
खुद को,
चलो अच्छा हुआ...

और
रुक जातें है
कदम बढने से
मगर अफ़सोस !
मेरे कहने
और
तुम्हारे मौन से
जन्मे
ये पुर-रंग
कोमल से सपने
बिन बोले
बिन रोये
म़र जाते हैं
कच्ची मौत
खुदा खैर करे...

Sunday, February 6, 2011

सो व्हाट ? (So What ?) : होगा क्या इस से ?

(कल एक लेख में इस रुसी लोक कथा का जिक्र आया था, आप से शेयर कर रही हूँ, सम्पूर्ण शब्द मेरे नहीं हैं है. प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से कतिपय परिवर्तन किये हैं यत्र तत्र.)

एक कवि एक वृक्ष के नीचे बैठा है. सुबह का सूरज उदय हुआ है और कवि उस वृक्ष के तले अपनी कविताओं का वाचन कर रहा हैं. कोई भी नहीं है वहां. बस एक कौआ बैठा हुआ है वृक्ष पर.

कवि अपनी पहली कविता पढता है : "पा लिया है मैंने संसार का समस्त द्रव्य, प्राप्य है अब मोहे कोष सुलेमान का, हूँ मैं साक्षात् कुबेर, सब कुछ तो है पास मेरे, जो भी था पाया जाना, पा लिया है मैंने."

बहुत गौर से देख रहा है कवि चारों ओर. कोई तो नहीं है वहां, बस बैठा है एक कौआ वृक्ष पर. हँसता है जोरों से कौआ और कहता है, " सो व्हाट ? होगा क्या इस से ?"

घबरा कर देखता है कवि, कोई नहीं है वहां, बस बैठा है कौआ अकेला वृक्ष पर. कवि कहता है, "क्या यह कौआ बोलता है सो व्हाट ? मैंने तो बड़े बड़े मनुष्यों के समक्ष अपनी कवितायेँ पढ़ी है और लोगों ने प्रशंसा की है और तू एक मूर्ख कौआ कहता है- सो व्हाट ? होगा क्या इस से ?"

कौआ कहता है, " निश्चित ही मैं ही कह रहा हूँ. धन की मूढ़ता मनुष्यों को छोड़ कर ना तो किसी पशु को है, ना ही किसी पक्षी को, ना किसी पौधे को है. तो यदि तुम मनुष्यों के बीच यह कविता पढोगे कि मैंने सुलेमान का खज़ाना पा लिया है तो लोग ताली बजायेंगे ही, क्योंकि वे भी सुलेमान का खज़ाना अपने अंतर मन से पाना चाहते हैं. वे भी उतने ही नासमझ है जितने कि तुम. उनकी नासमझी कविता नहीं बन पाती, तुम्हारी नासमझी बन गयी है कविता. इसके अतिरिक्त कोई अंतर तो नहीं."

कौआ फिर कहता है, " लेकिन पा लिया है तू ने सारा खज़ाना, फिर क्या होगा ? सो व्हाट ? होगा क्या इस से ?"

कवि कहता है, "नासमझ कौए तू समझेगा नहीं. मैं दूसरी कविता सुनाता हूँ."
लेकिन वह आदमी तो वही है, कवितायेँ कितनी भी करे उसका मन वही है, उसका लोभ वही है. दूसरी कविता में वह कहता है, "मैंने जीत ली है पृथ्वी सारी, मैं हो गया हूँ सम्राट चक्रवर्ती. कोई नहीं है ऊपर मुझ से, सब है तले मेरे पावों के."

फिर हँसता है कौआ, कहता है, "सो व्हाट ? होगा क्या इस से ? माना कि सारे लोग आधीन हो गये तुम्हारे, आ गये पावों के नीचे तुम्हारे और हो गये तुम स्वामी सब के, लेकिन क्या होगा इससे, क्या पा लोगे तुम इस से ?"

कवि ने क्रोधित होकर कहा ""छोडो इसे भी." और तीसरी कविता पढ़ी, "मैंने पढ़ लिए हैं शास्त्र समस्त, पढ़ी है मैंने गीता और कोरान, उपनिषद् और बाईबिल, मैंने किया है प्राप्त ज्ञान समस्त, नहीं है कोई ज्ञानी ऊँचा मुझ से, मैं हो गया हूँ सर्वज्ञ, जानता हूँ मैं सब कुछ."

कौए ने कहा, " सो व्हाट ? होगा क्या इस से ? तुम ने सब जान लिया, तो भी क्या होगा. एक चीज फिर भी रह गयी अनजानी. तुम ने पा लिया धन सारा, लेकिन एक धन रह गया बिन पाया, पा लिया तुम ने साम्राज्य सारा, लेकिन एक राज्य अपरिचित रह गया." कौआ अपनी बाते कहता जाता है. कवि क्रोध में कवितायें फैंक कर चल पड़ता है.

उस कौए से किसी दूसरे कौए ने पूछा, "तू हर बात में कहता गया- सो व्हाट ? होगा क्या इस से ? कविता कौन सी पढ़ी जाती कि तू दाद देता ?"
उस कौए ने कहा, "एक ही कविता है जीवन की और वह है जीवन को जानने की. ना ही तो धन को जानने से कविता पैदा होती है और ना यश को जानने से और ना ही पांडित्य को जानने से...एक ही कविता है जीवन की--वह होती है पैदा जीवन को जानने से. और उस कवि को उस कविता का कोई पता नहीं है. जब तक वह, उस कविता को नहीं गाता तब तक मैं कहता ही चला जाता- सो व्हाट ? होगा क्या इस से?"

एकत्व..(आशु रचना)

# # #
भावों से
मिल गये
भाव,
मिला
सत्व से सत्व,
बिना प्रयास
जो हो घटित,
कहतें उसे
एकत्व...