Monday, July 30, 2012

सुराख...


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परहेज़ बिना 
दवा 
बेअसर ,
क्यों हताश 
ऐ चारागर ,
पानी 
कैसे ठहरे 
घड़े में,
हो उसमें  
सुराख 
अगर...

Friday, July 27, 2012

ऐ कलम !


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ऐ कलम !
खातिर इज़हार के
चुनने दे 
अलफ़ाज़
खुद से ही 
मेरे एहसासात को,
ऐसा ना हो के 
गुमाने इल्म 
दे डाले कोई और शक्ल 
दिल में उपजे
कोमल ज़ज्बात को...

Tuesday, July 24, 2012

मुतअस्सिब....

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मुतअस्सिब 
दिल-ओ-ज़ेहन को 
कैसे हो 
मयस्सर
सच के 
एहसास,
समा सकता है 
खाली घड़े  में ही
एक फैला हुआ 
आकाश....

(मुतअस्सिब=पूर्वाग्रही,prejudiced)

बहता पानी..


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बहता 
पानी
खूब 
रवानी,
पड़ा सामने 
खड्ड,
नहीं रुका 
दरिया, 
भरा 
खोखलापन 
उसका,
गया आगे 
वह 
बढ़, 
हर गिरावट ने
बढा दी 
उसकी 
रफ़्तार
डाल मौजों की 
गलबहियां
किया 
समंदर ने
उसको 
खुद में 
शुमार.. 

Thursday, July 19, 2012

रेखाएं...


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हठ है
मिटा दूँ
रेखाएं 
हथेलियों की,
जानती हूँ 
मैं भी,
नहीं है ये 
खडिया से उकरे 
आकार 
काली सी 
स्लेट पर .....

Tuesday, July 17, 2012

कुछ और अनकही...

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निकल कर 
ऊँचे घर से 
बह चली थी 
मासूम नदी,
बांध लिया था
चंचला को 
प्रेमी दीवाने ने
किनारों सी बाँहों के 
आलिंगन में,
बहे जा रही थी
कल कल 
गाते हुए 
गीत प्रीत के 
होकर   
और उन्मत 
और उत्साहित 
और उमंगित,
मुड़ गये थे 
किनारे भी 
संग उसके प्रवाह के, 
क्या हो जाती 
विद्रोहिनी
लहरें उसकी 
और 
डुबो देती 
अवरोधक तटों को
या 
यह थी कोई 
स्वीकारोक्ति
गति के अधिकारों की
या
यह था कोई औदार्य प्रेम का
या 
कोई सहज अंतरनिर्भरता 
प्रेमियों की
या 
कुछ और अनकही ?

Saturday, July 14, 2012

तवाज़ुन.....


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रह सकता है
तैरता हुआ 
हल्का फुल्का 
तिनका 
उछलती कूदती
मदमाती  
लहरों पर,
नहीं होता उसे 
कोई खौफ 
डूब जाने का,
सच है
नहीं है जो 
भारी
कर सकता है
हासिल
वही तो  
एक मुकम्मल 
तवाज़ुन..... 

(मुकम्मल=पूर्ण, तवाज़ुन=संतुलन)

Tuesday, July 10, 2012

जिस्म यहाँ और रूह कहीं और थी,

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रुंधा सा गला , भीगी सी कोर थी 
तिरे शानों पे मिरे अश्कों की ठौर  थी. 


रोके से रुक गया था वो आशना 
जिस्म यहाँ और रूह कहीं और थी,


काँप उठी जमीं रो दिया आसमां 
वो  थी मेरी आहें  के कोई शोर थी. 


काली शब थी के घटा सावन की 
बादल था वही बारिश कोई और थी. 


महफ़िल में रही बरपा  खामुशी ही 
नग्मा था वही ,धुन कोई और थी.

Tuesday, July 3, 2012

उदार स्नेह


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लगा कर तिलक 
लौ का
किया था 
स्वागत
दीये ने 
अँधेरे का,
देखो 
दीपक के   
उदार स्नेह  ने 
कर दिया था 
रंग फीका
मावस के 
चेहरे का..

Monday, July 2, 2012

फ़ित्रत


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कली और फूल,
कोंपल और शूल.
निकलेंगे कहाँ,
जाने यह 
कुदरत,
मैं  माटी
जानूं मैं बस
बीज की फ़ित्रत.. 

Sunday, July 1, 2012

शीतल सावन...

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थातियाँ लुटती रही
बातियाँ बुझती रही
होते रहे चन्द हादसे
ज़िन्दगी चलती  रही.

झूठ सच लगने लगा
मन मेरा भगने लगा
किस पर क्या हावी हुआ
अनचाहा जगने लगा.

रुक के देखा था मैं ने  
क्या से क्या यह हो गया
मुझ से चेतन मानव का
सब कुछ क्यों ऐसे खो गया.

झाँका जो मैंने दर्पण में
खुद  से ही घबराया था
मैं नहीं वहां जो दिख रहा  
हा ! किस से मैं टकराया था.

गफ़लत ने घेरा था मुझको
मैं जश्न मनाता डूबा था
प्यास रूहानी बुझी नहीं
उस  झूठे दरिया से ऊबा था.

जब जागा था मैंने जाना
वो नहीं रास्ता मेरा था
भटका था मैं जिन गलियों में
नहीं कोई वास्ता मेरा था.

चोट ऊपरी  ताज़ा थी
उसने मरहम  लगा दिया
रोशन हो गया जहाँ मेरा
रस्ता उसने दिखा दिया.

लौटा हूँ जानिब खुद के मैं
खोया सुकूं फिर पाया है
तपते जलते इस  जीवन में
शीतल सावन घिर आया है.