# # #
जब से हुई है ना सयानी
नज़र की बेटी पहचान,
हैरान-परेशान है
बेचारे मायने
दोस्त उसके बालपन के,
घूम रहे हैं लाचार
बेगानों से
कभी इधर
कभी उधर.....
कितना साफ़ और सटीक था
सब कुछ पहले
बिलकुल दूध सा सफ़ेद,
अब तो पगली
आकर
नये यार मन के
बहकावे में
लगी है देखने
हीरे जवाहिरात
कांच के बेमोल टुकड़ों में,
और तो और
इस ने ना
फाड़ फाड़ कर
कर दिये हैं चीथड़े
झूठ के माप से
सच के रेशमी थान के..
देख देख कर
कुलच्छ
अपनी औलाद के
जलता है हिया
माँ का,
मगर करे तो करे क्या
लाँघ चुके हैं
दहलीज
बहले बहके से कदम
इस लाडली के...
Wednesday, March 28, 2012
Saturday, March 24, 2012
धर्मशाला...
# # #
सुनकर
दस्तक
नहीं खोला करते
तुरंत
दरवाजे को...
पूछा करते हैं
जांचा करते हैं
कौन है खड़ा,
देख कर मेजिक आई से
लगा कर सेफ्टी चैन
घुमाते हैं लेच को
सुन कर
पहचानी सी आवाज़
और
जान परख कर
निरापद आगंतुक को...
किन्तु यदि ना हो
चेतना तीव्र
चिंतन गहरा
स्पष्ट दृष्टि
घुस जाती है
उद्दंड वासनाएं
समझ कर
कोई धर्मशाला
हमारी
मासूम आँखों को...
सुनकर
दस्तक
नहीं खोला करते
तुरंत
दरवाजे को...
पूछा करते हैं
जांचा करते हैं
कौन है खड़ा,
देख कर मेजिक आई से
लगा कर सेफ्टी चैन
घुमाते हैं लेच को
सुन कर
पहचानी सी आवाज़
और
जान परख कर
निरापद आगंतुक को...
किन्तु यदि ना हो
चेतना तीव्र
चिंतन गहरा
स्पष्ट दृष्टि
घुस जाती है
उद्दंड वासनाएं
समझ कर
कोई धर्मशाला
हमारी
मासूम आँखों को...
Friday, March 16, 2012
फर्क इतना ही तो है......
# # # #
कहा था हंसी ने :
अरे अंसुआ !
कैसा है रे
स्वभाव तेरा
आते हो जब भी
छलकते हो
चुपके से
और
जाते हो ढलक
बिन बोले...
देखो ना !
एक मैं हूँ
उभरती हूँ जब भी
लगाती हूँ फेरा
संग अपनी गूंज के
ना जाने
कितने कितने
कानों का ...
सुन रहा था
बात यह
नाक
पड़ोसी दोनों का,
लगा था कहने
होले से
अंत-सयाना,
अरे ! फर्क इतना ही तो है
उच्च और निम्न
कुल की संतति में...
कहा था हंसी ने :
अरे अंसुआ !
कैसा है रे
स्वभाव तेरा
आते हो जब भी
छलकते हो
चुपके से
और
जाते हो ढलक
बिन बोले...
देखो ना !
एक मैं हूँ
उभरती हूँ जब भी
लगाती हूँ फेरा
संग अपनी गूंज के
ना जाने
कितने कितने
कानों का ...
सुन रहा था
बात यह
नाक
पड़ोसी दोनों का,
लगा था कहने
होले से
अंत-सयाना,
अरे ! फर्क इतना ही तो है
उच्च और निम्न
कुल की संतति में...
Tuesday, March 13, 2012
दातारी जहर की .....
# # # #
आक की
नन्ही कली को
दबाया था किसीने
जब चुटकी से,
निकल पड़ी थी
तेज़ धार
दूध की,
दखी थी जब
यह दातारी
ज़हर की,
छोड़ कर
इस धरती को
जा बसी थी
कामधेनु
स्वर्गलोक में....
छोड़कर
इस धरती को...
आक की
नन्ही कली को
दबाया था किसीने
जब चुटकी से,
निकल पड़ी थी
तेज़ धार
दूध की,
दखी थी जब
यह दातारी
ज़हर की,
छोड़ कर
इस धरती को
जा बसी थी
कामधेनु
स्वर्गलोक में....
छोड़कर
इस धरती को...
Sunday, March 11, 2012
लोगों का काम है कहना ....
# # # #
बन्दूक उठाई
और
दाग दी,
गिर पड़ा पखेरू
लगा था तड़फने
"कितना
माहिर है
निशानेबाज़"
बोल रहे थे लोग....
और
दूसरे दिन,
थम गयी थी
धड़कन दिल की,
म़र गया था
निशानेबाज़,
"कितनी बेरहम है
मौत."
कहा था
उन्ही लोगों ने...
बन्दूक उठाई
और
दाग दी,
गिर पड़ा पखेरू
लगा था तड़फने
"कितना
माहिर है
निशानेबाज़"
बोल रहे थे लोग....
और
दूसरे दिन,
थम गयी थी
धड़कन दिल की,
म़र गया था
निशानेबाज़,
"कितनी बेरहम है
मौत."
कहा था
उन्ही लोगों ने...
Thursday, March 8, 2012
तवाजुन-ए- नज़र
(विनेश सर की अनेकांत सीरीज में मेरा एक नन्हा सा योगदान.)
# # # #
नहीं तोड़ेने
नहीं गलाने
जेवर पुराने
गढ़ने को
कुछ नए गहने,
नहीं खोदनी है
जुनूने इन्कलाब में
नींव
किसी मौजूदा
मुकम्मल सोच की,
बनाने को
चंद नए पैमाने,
अपनाना है बस
एक बाहोश नजरिया
करने को आज़ाद
सच को
सदियों से घेरे हुए
दायरों से,
और
यह तवाजुन-ए- नज़र है
' अनेकान्त ' !
(तवाजुन=संतुलन)
# # # #
नहीं तोड़ेने
नहीं गलाने
जेवर पुराने
गढ़ने को
कुछ नए गहने,
नहीं खोदनी है
जुनूने इन्कलाब में
नींव
किसी मौजूदा
मुकम्मल सोच की,
बनाने को
चंद नए पैमाने,
अपनाना है बस
एक बाहोश नजरिया
करने को आज़ाद
सच को
सदियों से घेरे हुए
दायरों से,
और
यह तवाजुन-ए- नज़र है
' अनेकान्त ' !
(तवाजुन=संतुलन)
Subscribe to:
Posts (Atom)