Tuesday, May 27, 2014

खुली हुई खिड़कियाँ (नायेदा आपा की रचना का रूपांतरण)

खुली हुई खिड़कियाँ (नायेदा आपा की रचना का रूपांतरण)
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हुसैन सागर के
किनारे
चलते चलते
हल्के कदमो
और
भारी मन से,
माँगा था
उस दिन
जब मैंने
तोहफा
खुलेपन का,
कहा था तू ने,
खुलती है
जब भी ये
खिडकियाँ,
होता है एहसास
एक सिसकती सी
ठंडी सांस को,
महके महके
गर्माहट भरे
खुले आकाश का,
लगता है
नया है
बहुत कुछ
अनजाना सा,
बहुत कुछ है
जानना और
पाना,

उमड़ता है
मगर
कभी कभी
एक तूफ़ानआसमां में,
थपेड़ता है
जोरों से
खुली हुई
खिडकियों को,
ना सिर्फ
खिडकियाँ,
हो जाते हैं बंद
दरवाज़े भी
डर कर
सहमे बिना...

संभाल लो ना
इन दरीचों
दरवाजों को
पहले से ही
अड़गी* पे,
ताकि खो ना दे
वे अपने
नए वुजूद को
और
खुलते रहें
वक़्त के साथ
और ज्यादा,
संभल के
समझ के......

*स्टोपर

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