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विस्मृत हुई है
छवि तुम्हारी,
हो तुम बस एक
स्वप्न निशा का,
हो गयी चेतन
सजग आज मैं,
पाकर ज्ञान
गंतव्य
दिशा का....
Tuesday, August 24, 2010
Tuesday, August 17, 2010
पैगाम...(Extempore)
# # #
पैगाम-ए-उल्फत हम
पहुंचाते रहे,
इलज़ाम हम पे
वो लगाते रहे,
चल दिये थे 'महक' जब हम
महफ़िल-ए-ज़िन्दगी से
किस्से ख़ास-ओ-आम
याद आते रहे......
पैगाम-ए-उल्फत हम
पहुंचाते रहे,
इलज़ाम हम पे
वो लगाते रहे,
चल दिये थे 'महक' जब हम
महफ़िल-ए-ज़िन्दगी से
किस्से ख़ास-ओ-आम
याद आते रहे......
निशाँ....(Extempore )
# # #
निशाँ मेरे
अश्कों के
देखो इन
दीवारों पे है,
चंद अक्स
मेरी खिजा के
बहारों पे है....
निशाँ मेरे
अश्कों के
देखो इन
दीवारों पे है,
चंद अक्स
मेरी खिजा के
बहारों पे है....
Monday, August 16, 2010
Thursday, August 12, 2010
अजनबी से मुलाक़ात ना हुई होती....(आशु ग़ज़ल)
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उस अजनबी से मुलाक़ात ना हुई होती
ज़िन्दगी यूँ हमारे साथ ना हुई होती.
चाहतों के भरम ना दूर हुए होते जानम
मोहब्बत की जो असल बात ना हुई होती.
गुमां था के जानते हैं सब कुछ हम तो
सोचते हैं आज किताबात ना हुई होती.
जल के रह जाती ये फसल ज़िन्दगी की
प्यासे खेतों पे यह बरसात ना हुई होती.
रोशनी मिलती 'महक' को ना कभी भी
मुखातिब जो अँधेरी रात ना हुई होती.
उस अजनबी से मुलाक़ात ना हुई होती
ज़िन्दगी यूँ हमारे साथ ना हुई होती.
चाहतों के भरम ना दूर हुए होते जानम
मोहब्बत की जो असल बात ना हुई होती.
गुमां था के जानते हैं सब कुछ हम तो
सोचते हैं आज किताबात ना हुई होती.
जल के रह जाती ये फसल ज़िन्दगी की
प्यासे खेतों पे यह बरसात ना हुई होती.
रोशनी मिलती 'महक' को ना कभी भी
मुखातिब जो अँधेरी रात ना हुई होती.
रौंगटे......(Extempore )
##########
बेजुबाँ
ना थी वो
बे अक्ल भी नहीं
सी लिए थे
होंठ उसने
पहन ली थी
ख़ामोशी....
ज़ुल्म सह कर
चुप रही
घुटती रही
जलती रही,
माशरा बेपरवाह था
छाई थी मानो
बेहोशी...
बाप ने सौदा किया था
खुद अपनी
औलाद का,
पहली से थी
वोह बिटिया,
किस्सा है यह
हैदराबाद का.....
माँ सौतेली ने
था बचाया
उसको
उस लम्पट
शेख से,
बेवा बनकर
बख्श दी थी,
ना जनी थी
जिसको
कोख से....
बह रहा था
दरिया खूँ का
उस ज़ालिम के
जिस्म से,
मिटा डाला था
आज उसने
जुल्मी को
इंसानी
किस्म से..
जुनूँ था के
दे रही थी
हैवाँ को वो
गहरी चोटें,
चंडी बनी थी
नेक खातून
हो रहे खड़े थे
रौंगटे...
बेजुबाँ
ना थी वो
बे अक्ल भी नहीं
सी लिए थे
होंठ उसने
पहन ली थी
ख़ामोशी....
ज़ुल्म सह कर
चुप रही
घुटती रही
जलती रही,
माशरा बेपरवाह था
छाई थी मानो
बेहोशी...
बाप ने सौदा किया था
खुद अपनी
औलाद का,
पहली से थी
वोह बिटिया,
किस्सा है यह
हैदराबाद का.....
माँ सौतेली ने
था बचाया
उसको
उस लम्पट
शेख से,
बेवा बनकर
बख्श दी थी,
ना जनी थी
जिसको
कोख से....
बह रहा था
दरिया खूँ का
उस ज़ालिम के
जिस्म से,
मिटा डाला था
आज उसने
जुल्मी को
इंसानी
किस्म से..
जुनूँ था के
दे रही थी
हैवाँ को वो
गहरी चोटें,
चंडी बनी थी
नेक खातून
हो रहे खड़े थे
रौंगटे...
Monday, August 9, 2010
ऊर्जा...
########
शुमार है
रजा
उसकी में
हमारी
ऊर्जा ,
पोशीदा
हर इक
फिजा में है
उसकी
ऊर्जा,
पहचाननी है
खुद में
हमको
उसकी
उर्जा,
जो है
हम में
वह नहीं है
महज़
उसका
कर्जा......
हमारी ही है
हमारी है
यह बेशुमार
उर्जा...
शुमार है
रजा
उसकी में
हमारी
ऊर्जा ,
पोशीदा
हर इक
फिजा में है
उसकी
ऊर्जा,
पहचाननी है
खुद में
हमको
उसकी
उर्जा,
जो है
हम में
वह नहीं है
महज़
उसका
कर्जा......
हमारी ही है
हमारी है
यह बेशुमार
उर्जा...
Wednesday, August 4, 2010
अकेले में...
# # #
टूटे हुए खिलौने भी
जी को
बहलाया करते हैं,
दिल के अधूरे अरमां
वो भी पूरे
किया करते हैं,
खिलखिलाते हैं
'महक'
सर-ए-वज़्म यूँ ही,
दरिया-ए-अश्क
अकेले में
बहाया करते हैं...
टूटे हुए खिलौने भी
जी को
बहलाया करते हैं,
दिल के अधूरे अरमां
वो भी पूरे
किया करते हैं,
खिलखिलाते हैं
'महक'
सर-ए-वज़्म यूँ ही,
दरिया-ए-अश्क
अकेले में
बहाया करते हैं...
Tuesday, August 3, 2010
आक्रामक
# # #
नीरीह बन
मैं
सहती जाती हूँ
सब कुछ
बहुत कुछ,
लेकिन
भंग होती है
जब परिसीमा,
विखंडित
हो जाता है
धैर्य मेरा
और
हो जाती हूँ मैं
आक्रामक
लगभग
अचानक...
नीरीह बन
मैं
सहती जाती हूँ
सब कुछ
बहुत कुछ,
लेकिन
भंग होती है
जब परिसीमा,
विखंडित
हो जाता है
धैर्य मेरा
और
हो जाती हूँ मैं
आक्रामक
लगभग
अचानक...
ऐ ज़िन्दगी..
# # #
निभाई है खूब यारी
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
चोट दी है करारी
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
हंस के मनाया था
जब जब तू रूठी थी,
जी भर के रुलाया है
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
आगोश में थी जब तक
छुअन में था अपनापन,
सताया है वक़्त-ए-जुदाई
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
चाहत पे मेरी पर
होता था गुरूर तुझ को,
आज सब कुछ भुलाया है,
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
साथ जीए जाने के वो
अहद अनगिनत,
बेदर्दी से तोड़े हैं आज,
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
रूह की बातों को
तू जाने भी तो कैसे,
साथ जिस्म का ही दिया है
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
मिलेगी 'महक' फिर से,
फैलेगी वो हर सू,
फूल बस एक ही तो मुरझाया है
तू ने ऐ ज़िन्दगी...
निभाई है खूब यारी
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
चोट दी है करारी
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
हंस के मनाया था
जब जब तू रूठी थी,
जी भर के रुलाया है
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
आगोश में थी जब तक
छुअन में था अपनापन,
सताया है वक़्त-ए-जुदाई
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
चाहत पे मेरी पर
होता था गुरूर तुझ को,
आज सब कुछ भुलाया है,
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
साथ जीए जाने के वो
अहद अनगिनत,
बेदर्दी से तोड़े हैं आज,
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
रूह की बातों को
तू जाने भी तो कैसे,
साथ जिस्म का ही दिया है
तू ने ऐ ज़िन्दगी !
मिलेगी 'महक' फिर से,
फैलेगी वो हर सू,
फूल बस एक ही तो मुरझाया है
तू ने ऐ ज़िन्दगी...
Monday, August 2, 2010
बेखबर....
# # #
कोई
खबर नहीं
बेखबर हैं
हम,
जो होना है
होगा
बेअसर है
हम,
हर लम्हे
जीए जा रहे हैं
'महक',
लुत्फ़-ए-सुकूं से
तर बतर हैं
हम....
कोई
खबर नहीं
बेखबर हैं
हम,
जो होना है
होगा
बेअसर है
हम,
हर लम्हे
जीए जा रहे हैं
'महक',
लुत्फ़-ए-सुकूं से
तर बतर हैं
हम....
भीड़ में पहचान अपनी...
(बस आपके बीच होने की तमन्ना यहाँ ले आती है, ना ज्यादा पढ़ रही हूँ, ना ही कमेंट्स दे रही हूँ...बस यही एहसास ख़ुशी दे रहा है आप सब के साथ हूँ....मुआफ कीजियेगा.)
# # #
भीड़
भीड़ होती है
हुसैन सागर के
किनारे की
कनाट प्लेस के
गलियारेकी
टाईम्स स्क्वायर की
गली-चौबारे की...
भूल कर
पहचान अपनी
दौड़े जा रहे हैं
पुतले से सब कोई
ना जाने
किस जानिब....
मेरे हमदम आईने !
सिर्फ
तू ही तो है
जो करा रहा है
पहचान मेरी
मुझ से,
घर की
समाज की
दुनियाँ की
इस जानी अनजानी
बेतरतीब
भीड़ में.......
# # #
भीड़
भीड़ होती है
हुसैन सागर के
किनारे की
कनाट प्लेस के
गलियारेकी
टाईम्स स्क्वायर की
गली-चौबारे की...
भूल कर
पहचान अपनी
दौड़े जा रहे हैं
पुतले से सब कोई
ना जाने
किस जानिब....
मेरे हमदम आईने !
सिर्फ
तू ही तो है
जो करा रहा है
पहचान मेरी
मुझ से,
घर की
समाज की
दुनियाँ की
इस जानी अनजानी
बेतरतीब
भीड़ में.......
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