# # #
अच्छा
बहुत अच्छा
लगता है
बिन बोले
बोलना तुम्हारा,
लेकिन होती है
उहापोह
तलाशती हूँ जब
मायने
अपने मन की सोचों के
तेरी नज़रों में...
फिर पूछती हूँ
खुद से ही
रुक रुक कर
यह मेरी धुंधली सी समझ
कोई ग़लतफ़हमी तो नहीं ?????
फिर
एक दिलासे की
तरहा
फलसफाना
अंदाज़ में
कहती हूँ
अपने आप से
शायद ऐसा
तब होता है
जब हम
अपनी सोचों के
अक्स
देखतें है
बना आईना
औरों को
या
बिना जाने
कर बैठते हैं
दावा
समझ पाने का
किसी को ...
टूट कर फिर
समझाती हूँ
खुद को,
चलो अच्छा हुआ...
और
रुक जातें है
कदम बढने से
मगर अफ़सोस !
मेरे कहने
और
तुम्हारे मौन से
जन्मे
ये पुर-रंग
कोमल से सपने
बिन बोले
बिन रोये
म़र जाते हैं
कच्ची मौत
खुदा खैर करे...
Thursday, February 10, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment