Sunday, August 2, 2009

भाईचारा

बैठ गया था आकर कौवा एक
अड्वे के मस्तक पर
मार मार कर चोंच उसने
हंडिया से सिर पर,
परख लिया था कि
पुतला है निर्जीव.........

कौवे ने कांव कांव का सुर छेड़
दे दिया था नेह निमंत्रण
अन्य पक्षियों को :
आ जाओ भाईयों
होकर निर्भय
क्यों ना चुगा जाय खेत को
मिटाने हेतु तीव्र उदराग्नि को .........

कृषक ने देखा था मंज़र
पखेरुओं की टोली
चुगे जा रही थी खेत
करते हुए अदा शुक्रिया
दिलदार कौवे का,
लगा निशाना गुलेल से
मारा था ढेला
उसने कौवे पर,
हो गया था ढेर तत्क्षण
काक सुजान
उड़ गये थे सारे पखेरू
होकर भयातुर और परेशान.....

सिखाना है सबक सबको
सोच रहा था किसान
बांध पंजों से लटकाया था उल्टा
मृत कौवे को उसने
बीच खेत में खड़ी
एक खेजडी पर
ताकि हों जाएँ सब भयभीत
खेत चुगने की फिर से
हो ना कोई बातचीत ........

देख शव निज बंधु का
अनगिनत कौवे
मचा रहे थे 'कांगारोल'
उछल उछल कर
और मारे जा रहे थे चोंच
अडुवे के सर पर.........

काश होती मनुष्य जाति में भी
ऐसी संवेदना
ऐसी एकता
ऐसा भाईचारा............

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(यह कविता एक राजस्थानी दृष्टान्त को शब्द देने का प्रयास है... कुछ राजस्थानी शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनके मायने भी दिए जा रहें हैं)

१) अडुआ=बिजूका, याने एक पुतला जिसे घास-बिचाली-बांस आदि से बनाया जाता है...आदमी के कपडे पहनाये जातें हैं, हंडिया से सिर बनाया जाता है, और खेत में पक्षियों को डराने के लिए स्थापित किया जाता है.

२)खेजडी= एक पेड़ जो रेगिस्तान में होता है.

३)कांगारोल = शोर से तात्पर्य है.

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