Wednesday, August 5, 2009

परनिंदा...

# # #
रखने
काबू में
जुबान को,
किये थे
कुदरत ने
जतन बहुत से,
बना कर
परकोटा
होठों का
जड़ा था
ताला मौन का,
सौंप दी थी
कुंजी ज्ञान की
इंसान को....

नहीं हुआ था
सहन यह सब
जीभ की
बालसखी
'पर-निंदा' को,
पड़ गयी थी वो
चिंता में,
कैसे करे मुक्त
जिव्हा को
प्रकृति के
कारागृह से....

एक दिन
देख कर
नितांत एकांत
जा पहुंची थी
'परनिंदा'
मानव मन की
अट्टालिका में
मानव
भूल गया था
आपा अपना
सुनकर
कर्ण-मधुर
चिकनी चुपडी
बातें उसकी ......

किया था
क्रियान्वन
परनिंदा ने
अपने मंसूबों का,
करके महसूस
इन्सान को
वश में अपने
चुरा ली थी
कुंजी ज्ञान की,
और
खोल कर
मौन के ताले को
निकल आई थी
संग जिव्हा के.......

No comments:

Post a Comment