Saturday, April 10, 2010

दीप ह्रदय का

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दीप ह्रदय का
जला के
अपना
दिया है
मुझ को
तू ने
उजाला,
जग-मग
जग-मग
जाग उठी है
मेरे जीवन की
रंगशाला.

स्वागत
प्रतिपल
प्रिय ! तुम्हारा,
हर क्षण मानो
हुआ हमारा,
तन मन प्राण
एक हो गये,
न लागे
हम को
अब कुछ
न्यारा.

मिट गयी
है
मेरी अमिट
आकांक्षा,
शेष हुई
सच
दीर्घ प्रतीक्षा,
आकर
धीमे धीमे
क़दमों से,
जगा गया तू
जिजीविसा,
तत्पर हूँ
सदैव
देने को
हुई
तिरोहित
मेरी
अपेक्षा.

पिघल गया
अस्तित्व
यूँ ऐसा,
तू मैं में...
मैं तू में...
यौगिक विलय
हुआ कुछ ऐसा,
मानो द्रव्य था
एक हमेशा,
भेद यह
तेरा मेरा कैसा ?

2 comments:

  1. पिघल गया
    अस्तित्व
    यूँ ऐसा,
    तू मैं में...
    मैं तू में...
    यौगिक विलय
    हुआ कुछ ऐसा,
    मानो द्रव्य था
    एक हमेशा,
    भेद यह
    तेरा मेरा कैसा ?

    bahut sunder bhav ....likhti rahein ....!!

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