Friday, August 1, 2014

एक बिछुड़ना अनूठा सा : अंकित

एक बिछुड़ना अनूठा सा : अंकित
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भीड़ में,
उस दिन तुम ने
मुझे अकेला छोड़ दिया था.
तेरे बिछुड़े हाथ
की तलाश में,
मैं कहाँ नहीं गया,
मिले
मुझे वो परिचित चेहरे,
जो मान्यताओं के चाबुक से,
मेरे नग्न अस्तित्व को,
लहू लुहान कर रहे थे,
दंडाधिकारी बन,
मेरे गुनाहों का विवेचन कर,
बिन माँगा फैसला सुना रहे थे.

साबित किया जा रहा था,
गलत हूँ मैं और,
गलत बन सकता हूँ.
जब जब मेरे रिसते घाव
खुले और दर्दाये,
दया के साथ
नमक भरी मुठ्ठियाँ खुल गयी.
मरहम की बात जब जब उठी,
उन्होंने भी याद दिलाया,
मुझ को भी याद आया,
कोई ऐसा भी आया था
मेरे जीवन में,
जिसने नज़रों से सहला,
भर डाला था बरसों पुराने
घावों को.
मुस्कानों की मरहम
जी खोल के दी थी.
मगर एक जल-जला
आया था अचानक.
चुपके से कुरेद
सब घावों को
हरा बना,
चल दिया था कोई.

पुकार बैठा था तुम को,
बुलाने लगा आवाजें देकर,
चले आओ ! चले आओ !
सोच थी जेहन में;
साथ गुजरे लम्हे,
देने पाने के अनथक दौर,
फिर से चले आयेंगे..
पल दो पल के लिए ही क्यों ना.
ताकि बिछुड़ें तो मुस्कान के साथ.
और फिर मिलने तक,
इसी मुस्कान को विरासत मान
हँसते हँसते जी लें.

तुम से तुम्हारी शिकायत करना चाहा,
मगर शब्द सूख चले थे,
आँखों में बहता पानी भी,
नहीं कह सकता था वह सब
जो मौन में है..
मन ही मन बोल रहा था,
शुक्रिया !
मुझे अकेलेपन का उपहार देने का,
मुझे मुझ तक लौटा लेने का ,
उन मुस्कानों का,
उन फूलों का,
जो तेरे मेरे दरमियाँ खिले थे,
जिनकी खुशबू से,
तुम ने महकना चाहा था.
सच ! यह तेरी-मेरी खुशबू है,
जब जब फैलेगी,
थोड़ी सी सुगंध उसकी भी होगी,
जो तुम्हारे साथ था,
जब पहली कली खिली थी,
शबनम प्यार से पत्तों पर,
आसन जमाया था.
एक दौर ऐसा भी आया था,
जब हम तुम पिघल कर
एक होने चले थे.
व्यथा इसकी नहीं,
में अकेला हूँ.
अकेलापन मेरी शुरुआत थी,
अकेलापन मेरा अंत है.
तुम जो खुद को पहचान
खुद से करने चले थे
स्वयं को निखार
अपना अस्तित्व
खुद बनाने की चाह लिए थे.
क्यों सौंप रहे हो
अपने आप को,
उन मूल्यों के आधीन
जो तुम ने कभी नहीं स्वीकारे.
थक गए हो तो,
सुस्ता लो.
गुस्से में हो तो,
बिखर पड़ो

कुंठाओं पर प्रेम
परत भी नहीं चढ़ती..
उम्र के तकाजे
परिचय से प्रेम तक
प्रतीक्षा नहीं करते.
इस दुनियावी रिश्ते की शुरुआत
शेह्ज़ादे के परी को चूमने
से होती है………..
और आख़िर में
एक तुड़ा मुड़ा सा मर्द
एक सहमी सहमी सी औरत को
देखता है टेबल के उस पार.

अंजाम बता लौटाने की मुहीम नहीं है,
महज एक ‘reminder ’
क्या दो आज़ाद परिंदे
एक डाल पर नहीं बैठ सकते ?
क्या जीने के लिए किसी को
सौंपना जरूरी है ?
बस अस्तित्व बोध की बात कर रहा हूँ,
जो तुम ने सुनी थी,
तुम ने स्वीकारी थी.
अनंत यात्रा में चल निकली थी तू,
किसी का हाथ थम,
जिसने कभी तुम्हे नहीं माँगा
तुम्हारे अस्तित्व को चाहा था/है.

जब उस मासूम अस्तित्व को
जो मेरे साथ उभरा था,
बेमौत मरते देखा,
रोम रोम मेरा व्यथित हो उठा.
मेरी व्यथा में बोध के संग
मोह भी समा गया था,
जो चोर की तरह
तेरे मेरे बीच आ चुका था.
शायद हम दोनों मिल
इस चोर को भगा देते
मगर बिछुड़ना संजोग था.

कुछ आड़े तिरछे वार कर
इस चित चोर ने
दे दियें है घाव
भय के…इर्ष्या के
और असमंजस के.
अनुभवों ने मुझे घाव को
घाव समझाना सिखा दिया है.
और एक चेतना सुश्रुत बन
मिटा रही है इन घावों को .

जीवन-चक्र पूरा कर
जब तुम्हे एहसास हो
कुछ भाव
उम्र, समाज और रवाजों से
हट कर भी होतें है.
अनाक्रमण और सहस्तित्व
पंचशील के शब्द मात्र नहीं
जीवन का यथार्थ भी हो सकतें है.
चले आना………….
दस्तक की जरूरत ना होगी.
में हूँगा
खुले आसमान के नीचे.
हम दो नहीं
हम जैसे अनेक होंगे
वहां देखना
ढाई आखर का नृत्य
एक अस्तित्वहीन
"अस्तित्व"..

दो आत्माएं हो रही है एक... ( by -अंकित भाई )

दो आत्माएं हो रही है एक... ( by -अंकित भाई )
# # #
मुझे स्पर्श करो
अपनी काया से
दर्शावो क्या है
तुम्हारे मन में
मुझे महसूस करने दो
तुम्हारे मौन सोचों को
जो
बह रहे हैं
युग-युगांतर से
उन कालातीत रहस्यों को
जो अव्यक्त हैं,
तप्त देहों में छुपे
उद्वेगों को
ऐन्द्रिक उत्तेजना के
अंतिम छोर पर
चंद्रालोकित
तरल स्वपन को
श्वास की गति से
परिचालित ध्वनि को
रेशम से विचारों को
और
उष्ण सिसकियों को.....

दो आलिंगनबद्ध जिस्म
निर्वसन चांदनी में
एक प्राचीन नृत्य
एक उद्वेग्मय कथानक
मन जुड़े हैं
मस्तिष्क जुड़े हैं
भाव बह रहे हैं
एहसास
सुकोमल प्रकाश में
खिल रहे हैं....

ऐसे घटित
हो रहा है प्रेम
दो आत्माएं
हो रही है एक...

रिश्ते : नायेदा आपा की एक रचना

रिश्ते : नायेदा आपा की एक रचना

# # #

रिश्तों को देखा है
मैंने
गौर से......

एक रिश्ता है
मैं' औरयहका,
जिसमें दूसरे को
बना देतें हैं महज़
वस्तु’,
एक बेजान सी
वस्तु
स्वामित्व जिसका
बन जाता है
रिश्तों की
पराकाष्ठा ,
नहीं किया जाता
आदर
दूसरे का
ह्रदय से
शर्तों से
भरा होता है
यह रिश्ता
जिसमें
प्रेम कम
मालिकाना
जूनून
होता है
ज्यादा,
हर ख़ुशी के पीछे
छुपा होता है
दर्द,
लाखों इन्सान
जिये जा रहे हैं
इन रिश्तों को
या मरे जा रहे हैं
इन रिश्तों में,
कर रहें हैं बर्बाद
खुद को
खुदाई को
उलझे हुए
धागों की तरहा......

एक और
रिश्ता है
मैंऔर
तुमका,
ऐसा रिश्ता
जीतें हैं जिसे
प्रेमीजन
करतें हैं
सम्मान
इक-दूजे का ,
करतें हैं विकास
दोनों ही,
करते हुए
संपन्न
एक-दूजे को,
नहीं समझा जाता
दूसरे को
इस्तेमाल और
उपभोग की
वस्तु,
सोचा जाता है :
'देना'
'पाना'नहीं,
ऐसा रिश्ता
होता है
तुल्य
प्रार्थना के
उपासना के..

होता है
एक तीसरा
रिश्ता भी,
जो शायद
होता नहीं
एक रिश्ता’,
नहीं होता है
उसमे
मैंऔर
यह
और ना ही
'मैंऔर
तुम’,
बस होता है
सब
एकमेक सा,
जीते हैं दो
एक हो कर,
बन जातें है
चरम आनन्द,
घटित होती है
स्थिति ऐसी
जिया करते हैं
जिसे
आध्यात्मिक
रहस्यदर्शी,
पाने को जिसे
रहतें है रत
ध्यानी
और
अवधानी...


(Inspired by a 'talk' of a great mystic.)

सौगात : नायेदा आपा

सौगात : नायेदा आपा

(गुरुदेव रबी ठाकुर की रचना का भावानुवाद)

अरी !
आएगी मौत
आखिर में
जिस दिन
तेरे दर पर,
तू क्या देगी
सौगात ?

कहूँगी उसको
खुशामदेद ! ! !
रख दूंगी
जानिब उसके
भरा हुआ
साँसों का प्याला,
ना जाने दूंगी
कैसे मैं उसको
बिलकुल
खाली हाथ ..........


कितनी
खिजां बहार की रातें,
उजली सुबहा
रंगीं शामें,
भरे हुए
सांसो में मेरे
है जिनके
मीठे मीठे
एहसास .......


कितने फल
कितने फूल,
रहते है
मेरे दिल में
रहते हैं झूल,
सुकून--ग़म की
धूप छांव में,
पले थे जो
खिले थे जो....

मौत आएगी
दर पर
जिस दिन,
सरमाया
दिन इतनो का,
सरंजाम
भी दिन इतनो का,
सखी !
आखरी पल में
उसको
थाल सजा कर
दे दूंगी सौगात........

ढाई आखर प्रेम का (नायेदा आपा रचित)

ढाई आखर प्रेम का (नायेदा आपा रचित)

(मेरी एक अन्तरंग सहेली, जो भी कारण हुआ, फोर्मल तालीम नहीं के बराबर पा सकी. उसकी निकाह एक ऐसे आदमी के साथ हुई जो बाहिर मुल्क से बहुत कुछ तालीम और इल्म हासिल कर के आया. वह एक नेक और जहीन इन्सान है, अपने वर्कफील्ड में बहुत ही कामयाब है, एक जिम्मेदार औलाद, खाविंद, बाप, दोस्त और शहरी है. उसके लिखे ड्रामे पाकिस्तान टीवी चेनल्स पर कई दफा एयर हो चुकें हैं, उसके लिखे गीतों में कशिश ,रवानी और गहराई है. एक सफल दम्पति है यह जोड़ा और अच्छे दोस्त भी.मुझे अपनी फ्रेंड को खुश पा कर बेहद ख़ुशी होती है. उससे हुई अन्तरंग बातों को मैंने इस नज़्म में ढालने की कोशिश की है यह सोच कर कि जिंदगी की यह सच्चाई शायद बहुत से दिलों को छू सके.)

वो मेरा दोस्त है,
मेरा हमदम,
मेरा खुदा,
मैं भी हूँ उसकी दोस्त
हमदम और खुदा....

हमने अपने
ख्वाबों की दुनिया को
इन चार हाथों
और
खुदा के करम से
बनाया है,
सजाया और संवारा है.
मैं नहीं समझ पाती
उसकी बहुत सी बातों को,
ही ज़रुरत है मुझे
समझने की उनको,
मुझे तो बस
लगता है अच्छा
उसका बोलना,
उसका लहजा
अंदाज़ उसका
छू लेता है
मेरे दिल का पलना,
जुबाँ उसकी आँखों की
समझ पाती हूँ
मैं उसकी
अज़ीज़ दोस्त
और बीबी
दुनिया उसे पढ़े
सराहे
आँखों पे बिठाये
यह है
'हमारी' खुशनसीबी...

उसके
नाविल
ड्रामे
गीत
ग़ज़ल या
कहानियाँ
बसा करते है हमारे
खेत खलिहान के राज में,
जिन्हें कहा करता है वो
बार बार
अपने उसी अंदाज़ में :
जिंदगी एक मुरब्बा(खेत) है
जिमिन्दार(किसान) है
हम दोनों
मैं चला रहा हूँ हल,
तुम बखेरे जा रही हो
बीजों को,
बंधे अंगोछा कमर पर
निराई कर रहा हूँ मैं
और तुम भी बंटा रही हो
हाथ मेरा,
गा रहे हैं हीर
हम तुम संग संग,
झूम रहा है आलम
गुनगुना रही है फिजायें,
लहलहाती फसलें,
फूली सुनहली सरसों,
ये हरे हरे खिले हुए बूटे
अपनी ही जिंदगी नहीं
तो क्या है ?

इन्सान जाये
होकर कहीं से
बन जाये कुछ भी,
अपने जमीन
अपनी माटी की सचाई
कायम है जो सदियों से
झुठला सकता है उसे
कोई कैसे,
बीज प्लास्टिक के
जिंदगी के खेतों में
बो सकता है
कोई कैसे ?

जब जब हुआ करता है
वह उलझन में
आकर मेरे आगोश में
सुलझाता है उसको,
कठिन से कठिन सवालों के
आसां से जवाब
पाता है वो मुझ से,
उसकी हर नज़्म की
पहली तनक़ीद
हुआ करती है मेरी,
पहली दाद
उसके हरशे' की
हुआ करती है मेरी,
मेरी आँखों में
उसकी हर ग़ज़ल
बसा करती है,
क्या हुआ जो महफ़िल में,
तालियाँ औरों की
बजा करती है....

मेरे साथ
गरम चाय का
एक बड़ा सा प्याला
मुझको-उसको
देता है नयी जिंदगी,
घर का बना खाना
नन्हों का साथ
फुरसत के सुबहा शाम
हमारी सांझी बंदगी.......

अलावे इसके भी है जो दुनिया
क्या नहीं हमें वो मुहैया ?
खुश रहना हँसाना
हमारी फ़ित्रत है,
हमारे लिए यही है
जन्नत
यही
कुदरत है......

रिश्तों को कहतें है
'रिलेशनशिप'
मैंने है अब जाना
'गोईंग अराउंड'
और
'ब्रेक ऑफ' के
मायनों को भी पहचाना,
'लोंगिंग' की
छोटी लम्बाई को भी
नापा है मैंने,
लफ्जों की
इस नुमायश की
गहराई को
मापा है मैंने,
दिल से सब जाना
दिल से सब माना,
जिंदगी का कुछ भी
भेद नहीं रहा
हम से अनजाना,
जरूरी है जीने के खातिर
सांसो का आना-जाना,
नफ़स गिनने वालों का
होता छोटा है जमाना....

मुझे किसी दरवेश की
इस बात में मिलता है 'जोय'
ढाई आखर प्रेम का
पढ़े सो पंडित होय......

अर्धांग....(नायेदा आपा रचित)

अर्धांग....(नायेदा आपा रचित)

लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व तमिल महाकवि इलंगोवन ने, जो एक बौद्ध भिक्षु भी थे, ‘शीलप्पदिकारमनामक महाकाव्य की रचना कि जिसमें मानवीय सम्बन्धों, और प्रेम त्रिकोण कि बात हैपुरुष है व्यवसायी कोवलन, दो नारियां हैं माधवी (वेश्या) और कन्नगी ( कोवलन की पत्नी). माधवी कालांतर में मानसिक अवसाद(depression) से ग्रसित हो जाती है. माधवी इलंगोवन को अपनी बात कहती है जो इसी काव्य पर आधारित अमृत लाल नागर जी के उपन्याससुहाग के नुपुरका समापन कथ्य है. प्रस्तुत कविता माधवी के उस कथन को अभिव्यक्त कर रही है.
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पुरुष दंभ और स्वार्थ ने
पापों को किया
उदित, भंते !
इसी मूढ़ता से था
अति पीड़ित
मानव अर्धांग
व्यथित, भंते !

दृष्टि रही
एकांगी
नर की
सती को
आदर
दे ना सका,
वेश्या बना
अठखेल किये
सुख कदापि
दे ना सका.

पुरुष स्वयं
अस्थिर बुद्धि
खाये
झंकोले
घोर, भंते !
करे न्याय
कृन्दन
नारी रूप धरे,
अश्रु में
दृष्टव्य
जल
अग्नि
प्रलय
दव्य
कठोर, भंते !

मैं नारी हूँ
मैं हूँ नारी
करुणा
प्रेम
सर्वांग, भंते!
किन्तु
सदियों से हूँ
मैं बनी,
मानवता का
व्यथित
अर्धांग, भंते !

अभिज्ञान सत्य का....(नायेदा आपा)

अभिज्ञान सत्य का....(नायेदा आपा)


Koran is more a book to be sung than a book to be read. The Koran was not written by a scholar or a philosopher. This is a direct verse from the God, a message to the humanity from the God. Koran has its great rhythm which can only be felt by involving in its sweetness. This poem is one ‘essence’ which I gathered while being with the Koran.

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सुनना
वही
होता है
सटीक
जिसमे होता है
ध्यान
अर्थ का
और
होती हो
तत्परता
स्वीकारने
विवेकशील
तथ्यों को....

अकारण
विरोध और
तर्क
का नहीं
प्रयोजन
पाने हेतु
अभिज्ञान
सत्य का....

यदि
में घड़
रहा हूँ
झूठ
तो होऊंगा
मैं ही
अपने कर्म का
उत्तरदायी,
ना होगा
तुम पर
दायित्व
किंचित
उसका...

यदि तुम
रहे हो
झुठला
सत्य को तो
क्षय है
उसमें
मात्र
तुम्हारा,
ना कि
मेरा...

(बात वेद पर हुई तो कोरान पर भी हो....नायेदा आपा मुस्लिम परिवार में पैदा हुई, हिन्दू से प्रेम विवाह किया, जैन बौध,इसाई दर्शन का भी अध्ययन किया...नास्तिकों की बातों को भी पढ़ा गुना...उनके लिखे में सार आता है सकारात्मक बातों का...शेयर करने से नहीं रोक पायी, इसलिए पोस्ट कर रही हूँ...महक नाम बार बार जाता है यह संयोग है..मुझे शौक नहीं....महक अब्दुल्लाह )