चन्द सौरठे
(चूँकि इस विधा में मेरा यह प्रथम प्रयास है, भाषा राजस्थानी ब्रज मिश्रित साधुक्कड़ी अपनाई है. तकनीकी भूल होना स्वाभाविक है, सुधिजन जिनको इस विधा की जानकारी है कृपया तकनीकी गलतियां पॉइंट आउट करें और उनके सुधार के लिए सुझाव दे सकें तो मेहरबानी होगी, सादर ! ----महक अब्दुल्लाह खान.)
किसकी जाणू जात, किण किण री सेवा करूँ,
बस थांरो मानूं साथ, जग महकूँ मैं फूल सी.
(किसके बारे में दरयाफ्त करूँ और किस किस की खिदमत करूँ, हे अल्लाह बस तेरा ही साथ मानती हूँ, इसीलिए इस कायनात में फूल के समान महकती हूँ.)
****
करता तणा संसार, माणस थारो-म्हारो करे,
पड़े बगत की मार, जोग जोड़े करतार स्यूं.
(प्रभु की दुनिया है यहाँ, फिर भी मनुष्य 'मेरा है- तेरा है' करता रहता है (भूल कर उसको), जब वक़्त की मार पड़ती है तो इंसान भगवान् से नाता जोड़ने लगता है.)
आखर पढ़ कर दोय, बात करे कुरआन की,
भीतर भीतर रोय, लाल बुझक्कड़ मौलवी.
(दो अक्षर क्या पढ़ लिए मौलवी कुरआन की बातें करने लगा, चूँकि उसे पूरा ज्ञान नहीं इसलिए अन्दर अन्दर रोता है वह तुक्केबाज़ मौलवी.)
गाँठयो हल्दी सूंठ, नांव पंसारी धर दियो,
बिना अक्ल रो ऊंट, पंडत कुहावे खोड़ में.
(हल्दी और सौंठ की चन्द गांठे लेकर बन्दा बैठ गया बाज़ार में और अपने को पंसारी कहने के लिए इन्सिस्ट करने लगा, जैसे की अविकसित इलाके में बेअक्ल सा बरहमन भी पंडित कहलाता है.)
कदमां में अगन जले, धुंवों भयो घणघोर,
रगड़ रगड़ आंख्यां मले,लपट उठी है डूंगरा.
(कदमों के करीब आग लगी हुई है, धुंआ है चारों जानिब, आँखे मल मल कर कोई मूर्ख इंसान पहाड़ पर उठी लपट को निहार रहा है.)
Saturday, December 18, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment