Wednesday, March 30, 2011

खेल अपरिचय का...

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छीलते काटते
चेहरों पर
आच्छादित
अनजानेपन का
घास,
दोस्त मेरी ये
पैनी आँखे
घिस कर
हुई उदास...

रचा यह कैसा
खेल
अपरिचय का
लिए हास प्रहास,
कहता है अब
मैं कौन ?
कौन है तू ?
मेरा अपना सांस...

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