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उठे थे कभी कुछ सवाल
जेहन में मेरे,
पूछ बैठी थी
मैं खुद से ही :
हुई है क्या
पैदाईश
तुम्हारी
मर्ज़ी से
तुम्हारी ?
मिले हैं क्या
तुम्हे
तुम्हारे
पसंदीदा मां बाप ?
है क्या तेरे
दिल के मुताबिक
शक्ल,
रंग,
जिस्म,
उम्र,
फ़ित्रत
और
हालात ?
या
हैं ये सब हादसे ?
या के वुजूद जो
फसल है
बदइन्तेज़मी की ?
तुम चाहते हो ना
हो जाये
इन्तेज़ामात सारे
मुआफिक
तेरे सोचों के...
कितने
लाचार हो तुम ?
मजबूर हो तुम
कितने ?
क्या है नहीं कोई
अपना वुजूद तेरा ?
चाहते हो गर
हल,
लौट चलो
होशमंदगी के
उस दर्जे पर
मिलेंगे जहाँ
माकूल जवाब
इन इजहारजदा
सवालों के,
जिस्म के परे के
एहसासात की
जानिब से,
पहचान पाओगे
खुद को
करके आज़ाद
उन जालों से
बुने हैं जिनको
खुद तुम ने
बेखबरी के
आलम में....
(जो सीखा है मैंने)
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