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बेनाम को नाम देने के
जरिये महज़ है
महक जायका
इस्तेमाल...
माटी क्यों माटी होती है,
क्यों सोना होता सोना ?
नहीं जवाब कोई मुकम्मल
नहीं पुख्ता कोई पैमाना,
खयालात-ए-ख्वाहिश से
माप तौल कर
कैसा किया बेहाल...
रूह की ठगी
मंज़ूरी पाकर
नाम चिपकाती
इल्म और इरफ़ान,
सहूलियतें
जुटा लेती मंतिक से
सुबूतों का इक जहान,
फरेफ्तगी
कर देती पैदा
दुकरी का जंजाल...
खुदगर्ज़ कोशिशें
थोपी जाती
'खुद ब खुद' के नाम,
मसावात-ए-कुदरत का
होता यूँ ही
काम तमाम,
सराब हिरन को
नहीं देती रोकने
उसकी सरपट चाल..
(इल्म/इरफ़ान=ज्ञान, मंतिक=तर्क, फरेफ्तगी=आसक्ति, दुकरी=द्वन्द, खुद-ब-खुद=सहज, मसावात=समता,सराब=मरीचिका)
Wednesday, April 4, 2012
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