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मंथन से
ह्रदय समुद्र के
निकला है
अमृत दर्द का,
भरा है जिसको
मैंने
कविता के घट में,
नहीं है रूचि
इस पियूष में
देवों और दानवों की,
केवल मानव ही तो
जानता है ना
स्वाद
संवेदना की
संजीवनी का...
Monday, April 9, 2012
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