Monday, November 8, 2010

प्रकृति से एकत्व : नायेदा आपा रचित

# # #

रुला देती थी
जिंदगी
जब भी,
लगती थी
साथ छोडती
छाया भी अपनी,
नज़रें औरों की लिए
हिकारत के नज़ारे ,
दुनियां मेरी
नज़र आती थी
गिरती हुई
औंधे
मुंह,
मैं...
छोड़ देती थी
देखना
दूसरों की नज़रों में....

देखा करती थी
पेड़ को,
जो छाया,
फल और
फूल देता है
दरियादिली से..
बिना किसी
आसक्ति के...
महसूस करती थी
धरती को
जो बनाती है बूटा
बीजों को..
कर के अंकुरित,
बिना सोचे
तनिक भी-
किसने बोया है ?
भोगेगा कौन ?
बिलकुल माँ के
दुलार की तरहा...
जो प्रेम करती है
अपने बच्चों को
बिना किसी अपेक्षा के ...
और
क्षमा भी करती है
यदि कर देता है
बालक कोई
व्यथित उसके
ह्रदय को....

सुनती थी
चहचहाना
पक्षियों का,
जो घोलता है माधुर्य
भोर के मधुरिम
माहौल में,
पंछी गातें हैं जो
मौज में अपनी,
बिना किये परवाह
किसी दाद
और
वाह-वाह की....

छू लेती थी
कोमल सुन्दर फूलों को
जो मुस्काते है
रहते हुए संग काँटों के भी..
फैलाते हैं महक
बिना किसी
लालच के,
निबाहते हैं मैत्री
प्रवंचक भ्रमर से भी...

देखती थी मैं
कल-कल बहती
नदिया को
जो बिना किसी
व्यवधान और कुंठा के
बही जाती है
मिलने समंदर से
जो रहता है
बहुत सुदूर
और
किये जाती है हरित
साथ देनेवाले
खेतों और बगीचों को,
देती है जो ताकत अपनी (बिजली)
पड़ोसियों को
और
बुझाती है प्यास
जाने-अनजानों की....

निरखती थी मैं,
हिम-आच्छादित पर्वतों के
शिखरों को
जो आत्मसम्मान में
सिर उठाये
खड़े होतें हैं
अडिग

और
अपने ऊपर
आस-पास
देते है जगह
वृक्षों को,
बर्फ को,
जीवों को,
हमारे आराध्य
देवी-देवताओं को
और
स्वयं की खोज में निकले
ऋषि मुनियों को....

प्रकृति के साथ यह मैत्री
ले आती थी पुन:
मुझे
निकट स्वयं के,
जगा कर मुझ में
प्रेम और करुणा
दे जाती थी मुझे
एहसास
इन्सान होने का...
आज मैंने बसा लिया है
प्रकृति को खुद में,
वृक्ष,
पंछी,
धरती,
नदिया,
पर्वत हैं
अंतर में मेरे ,
सामने मेरी आँखों के
और

समाये हुए
मेरी साँसों में,
दे रहे हैं
प्रेरणा मुझे
हंसने की,
आनन्द
जीने का
शक्ति
जीवन की,
पहचान
खुद की
और
प्रेम
शर्त-रहित बिलकुल,
स्वयं के प्रति भी
एवम्
समस्त चेतन-अचेतन के
प्रति भी...

यह हर्ष है
एक उत्सव ,
मानव-प्रकृति के
मिलन का,
और है प्रतिफल
दैविक योग का
जो है
संगीतमय,
अजर,
अमर,
शास्वत...

No comments:

Post a Comment