Sunday, November 14, 2010

असलियत यूँ खुली....किस्सा मुल्ला नसरुद्दीन का.

(यह किस्सा बिलकुल काल्पनिक है और एक लोक कथा पर आधारित है...इसका किसी भी जिंदा या मुर्दा इन्सान से कोई ताल्लुकात नहीं है..कोई भी समानता अगर नज़र आये तो इसे महज एक संयोग समझा जाये या ऐसा सोचनेवाले/समझनेवाले का भ्रम. इसका उदेश्य बस ज्ञान वर्धन और स्वस्थ मनोरंजन है.)

हमारी यूनिवर्सिटी के फिलोसोफी डिपार्टमेंट के हेड हुआ करते थे डॉक्टर हफिज्ज़ुल्ला काज़मी साहेब. बड़े ही जहीन, विद्वान और शरीह इन्सान थे काज़मी साहेब, किसी शाही खानदान से ताल्लुक रखते थे और शौकिया प्रोफेसरी करते थे. हाँ अपने इल्म और काम के लिए बिलकुल समर्पित थे. एक दफा उनकी मुलाक़ात एक पढ़े लिखे, स्मार्ट इन्सान से किसी सफ़र के दौरान फ्लाईट में हो गयी...बन्दा प्रेजेंटेबल था..बातें भी लच्छेदार करता था..उसने काज़मी साहेब को बुरी तरह इम्प्रेस कर दिया. काज़मी साहब ने तहेदिल से उनसे गुज़ारिश की थी कि वेह जब भी हैदराबाद तशरीफ़ लायें उनके मेहमान बने...

ये नवपरिचित सज्जन थोड़े अभिमानी से लगे थे काज़मी साहब को मगर उन्होंने सोचा यह उनका जोशीला अंदाज़ है. उनकी ठसक उनको उनकी शख्सियत का एक पोजिटिव हिस्सा लगी. चलिए उन्हें एक नाम दे देते हैं, ताकि किस्से को फोलो करने में आसानी हो.हाँ तो इनका नाम था जनाब कसीस.

कसीस साहब का भाषाओँ पर बहुत अच्छा आधिकार था...और उन्होंने खूब पढ़ा था हर भाषा में. लगभग सभी करेंट अफेयर्स पर वे बात करने में माहिर थे. रख रखाव भी अच्छा था...वेल ड्रेस्ड...मजाल कि अचकन पर तनिक सा सल नज़र आ जाये. कह रहे थे सउदी से आये हैं..वहां किसी तेल कंपनी में मुलाजिम है..मगर अदब में बहुत इंटरेस्ट रखते हैं, मज़हबी बातें भी खूब करते थे कसीस साहब...खासकर इस्लामी और सूफी फिलोसोफी पर. कहते थे कि हिन्दुस्तानी मूल के थे उनके पूर्वज. बंटवारे से पहले शायद ब्रिटेन में बस गये..और फिर ब्रिटिश पासपोर्ट पर चले आये सउदी. अविभाजित भारत कि लगभग सभी भाषाएँ धडल्ले से बोलते थे, हर भाषा ऐसे बोलते थे जैसे मादरी जुबान हो. हर भाषा में उन्होंने नज्में लिखी थी, जिन्हें सुनकर प्रोफेस्सर काजमी बहुत प्रभावित हुए थे. बात बात में कसीस साहब ने पूछा था कि क्या प्रोफ बता सकेंगे कि कसीस मूलतः भारत के किस प्रान्त से हैं... कसीस हर भाषा इस तरह बोलते थे कि प्रोफ सहह्ब नहीं बता पा रहे थे कि वे कौन है. उन्होंने सोचा कसीस साहब कि मेहमानवाजी भी होगी, और अपने सारे कॉस्मोपोलिटन दोस्तों की मदद यह तय करने में भी ले सकेंगे कि कसीस क्या चीज है. तभी उन्होंने उन्हें हैदराबाद आने का न्योता दिया था.

कसीस आ धमके उनके बंगले पर. रोज़ तरह तरह के पकवान बनते...खातिर होती कसीस साहब की ..कोई दिन सिन्धी भाषा का होता...सिन्धी दोस्त आते..कसीस इतनी अच्छी सिन्धी बोलते और सिंधियों जैसे मैनर्स दिखाते कि सिन्धी यारों को कहना होता : कसीस साहब सिन्धी है, प्यार से कहने लगे 'चनिया' है. यह माज़रा बंगाली, गुजराती, तमिल. तेलगु, पंजाबी, राजस्थानी, कश्मीरी, मलयालम, उर्दू, खड़ी बोली, उड़िया, कन्नड़ इत्यादि सभी भाषाओँ और भाषा भाषियों के साथ हुआ. बंगाली कहे भई यह तो शत प्रतिशत बाबू मोशाय है, क्या हुआ सूत पहन रखा है आज..लगता तो ऐसा ही है कि ढीली धोती और पंजाबी (कुरते) में है, गुजराती कहे यह तो आपणो गुज्जू भाई छे, मारवाड़ी कहे कि यो भायो तो धरती धोराँ री रो बाशिंदों है...पश्तो वाले कहे कि यह खबिश तो 'पठान' है, पंजाबी कहे चाहे इस पार का हो या उस पार का-मुंडा पंजाबी है..जब 'चप्पो चप्पो' करके तेलगु बोलता और तेज़ मिर्ची खाता तो आंध्र वाले कहते यह तो अपना 'गुण्डी' है...केरला के लोगों ने कन्क्लूड किया कि जब इसने 'अछुथंड' (गाड़ी के चक्के का धूरा) कैसे कठिन शब्द को समझ लिया और मछुआरे नाविक का मलयालम गीत गाकर सुनाया-राजा रवि वर्मा कि पेंटिंग्स के सौन्दर्य सौष्ठव का वर्णन ठेठ मलयालम में कर दिखाया..भाई यह तो 'मल्लू' है. बस इसी तरह सब के अनुभव रहे. यह तय नहीं हो पाया कि कसीस असल में कौन है..

ऐसे में हमारे 'सर' ने सोचा, जिस बात का कोई भी हल ना निकाल सके उसका हल उनके दोस्त मुल्ला नसरुद्दीन निकाल सकते हैं.

काज़मी साहब के दौलत खाने में एक ग्रांड पार्टी का आयोजन है, शरीक हैं॥बिल्डर छग्गू मल छंगवाणी(सिन्धी), प्रोफेसर अचिन्त्यो बनर्जी (बंगाली)व्यापारी जिग्नेश भाई मेहता (गुजराती), बसप्पा रायचूर (कन्नड़), जी। सुन्दरम (तमिल), डा. आर. लेंगा रेड्डी (तेलगु), सरदार परमिंदर सिंहजी पटियाला (पंजाबी),...प्रोफ विनेश कुमार सिंह (राजस्थानी), डा, ऐ. सी. मोहन कुमार (मलयाली) डा. गोबिंद झा (मैथिली) पंडित सरजू पाण्डेय (बनारस से) ....अन्य कई मित्र और हमारे नायक मुल्ला नसरुद्दीन.

कसीस सब से मुस्कुरा कर मिलते हैं प्रत्येक व्यक्ति से...अपनी नकली सी असली बतीशी निपोरते हुए..सामने वाले की भाषा बहुत ही लछेदार अंदाज़ में अच्छी तरह बोलते हुए...सभी सोचते हैं कि बन्दा उनके यहाँ का है...घुमते घुमते किस सो चार होता है मुल्ला से...मुल्ला से वह फर्राटेदार हैदराबादी उर्दू में बात करता है...मुल्ला बहुत इम्प्रेस होते हैं...और उस से फ्रेंडली हो जाते हैं...दोनों ही साथ साथ सकोच के पेग पेग चढाते हैं...एक स्टेज आती है...दोनों झूम रहे होते हैं....मुल्ला कस कर मय जूतों के अपना पांव कसीस के पांव पार जमा देता है...बहुत जोर से दबाता है मुल्ला पांव को लगभग उसी जोर से जिस से अमीर गरीब को दबाता है...मस्तान/गुंडा आम पब्लिक को...और शायद कुछ गाली जैसा भी होले से मुल्ला बोल देता है कसीस को...बस कसीस शुरू हो जाता है अपनी मातृभाषा में गली गलोज भरी बातें मुल्ला को सुनाने...मुल्ला कहता है सुनिए साहिबान भाई कसीस 'कंजरों' वाली भाषा बोल रहे हैं...'कंजर' है वो...कहने का मतलब चोट लगने प़र इन्सान अपनी औकात प़र आ जाता है...उसके सारे मुल्लमे उतर जाते हैं...वह अपना असली स्वरुप दिखा देता है. सभी लोग मुल्ला का लोहा मानने लगते हैं. कसीस को भी ख़ुशी होती है कि कोई तो ऐसा मिला जो उसको समझ सका. मुल्ला और कसीस फिर साथ साथ कबाब के साथ शराब पीने लगते हैं...पार्टी अपने शबाब पर हो जाती है.

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