Wednesday, November 3, 2010

चिंता और चिंतन:By नायेदा आपा/अंकित भाई


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हो जाती है ‘चिंता’,
कुछ लोगों को
हो जातें है वे
चिंतातुर और चिंताकुल,
जब भी कुछ हो जाता है घटित ऐसा,
जो हो लीक से हट कर,
बुरा हो या अच्छा,
दे देतें है विस्तार उसे ,
औढ़ा देतें है चद्दर चिंता की
समाज पर---मानवता पर,
स्वयं तो होतें है विचलित,
और करतें है प्रयास
औरों को कम्पित करने का,
होतें है ऐसे हमारे
‘चिंता कुमार’,
हाथ में रहता है जिनके
एक आवर्धक शीशा (मेग्निफयिंग ग्लास),
रहतें है देखते जिस से,
न सिर्फ ख़बरें अख़बार की
बल्कि
इर्दगिर्द होने वाली
छोटी मोटी घटनाओं को भी,
चिंता कुमार
यदि हों साक्षर
और
हो यदि वे
स्थानीय लेखक और कवि
तो करेला और नीम चढ़ा,
या
होती है यह कहावत
चरितार्थ,
खा गया बिच्छु बंदरिया को,
फिर देखिये अल्फाज़ इन के
लगने लगेगा
उलट रही है दुनियां
आनेवाली है क़यामत....
हुआ था कुछ ऐसा ही
दो दिन पहले,
निर्मूल भय का
बाज़ार गर्म था
फैलाया जा रहा
अजीब सा भ्रम था,
जब हुआ था आरम्भ
वैज्ञानिक महा-प्रयोग का
परमाणु क्षेत्र में,
जेनेवा की प्रयोगशाला में
विश्व के वैज्ञानिक मिल कर
खोज रहें है नए आयाम (Dimensions)
करने सिद्ध ‘बिग बेंग' के सिद्धांत को,
कर रहें है अनुसरण
‘बोसोन’ अनुसन्धान का
जनक थे जिसके वैज्ञानिक सत्येन्द्र(१९२४…..).
अनावृत करेगा रहस्य
यह ऐतिहासिक प्रयोग
ब्रह्माण्ड की रचना का
और
करेगा मार्ग प्रसस्त
उर्जा क्षेत्र में नयी संभावनाओं का,
फैला दी थी
प्रलय प्रेमी ‘चिंता कुमारों’ ने
आशंकाएं सृष्टि के विनाश की
चर्चा थी आम और खास में
क्या होगा ?
क्या होगा अब ?
महाविनाश ?
लग रही थी खबर यह चटपटी
अच्छी चंद लोगों को,
क्योंकि थी यह करीब
वर्षों से जमे उनके अंध-विश्वासों के,
नहीं जानना सोचना पड़ रहा था
उन्हें करने प्रसारित प्रतिपादित इस झूठ को,
बन गया था नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सा,
विवेकपूर्ण विश्लेषण
महान वैज्ञानिक और चिन्तक
एपीजे अब्दुल कलाम का भी,
सोचा था मैंने उस दिन,
हमें आवश्यकता है 'चिंतन' की
ना कि 'चिंता' की...
हो सकता है कल्याण हमारा
‘चिंतकों’ से ना कि ‘चिंता कुमारों’ से, जो
राय चंदो (जो बिना समझे अपनी राय दे देतें है) की तरहा
ये पास भी मिलतें है दूर भी.
याद आ रही है ‘नारी शिक्षा अभियान’ के
आरम्भ में
ऐसे ही एक चिंता कुमार की
काव्य अभिव्यक्ति:
“रेशमी सलवार दुपट्टा ऊँचा है,
मत जैय्यो इस्कूल, मास्टर लुच्चा है."

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