Thursday, November 11, 2010

हुनर और गुरुर...



(यह रचना नेनो नहीं है, एक लोक कथा को बुना है मैंने अल्फजों में...पुनरावलोकन भी किया, कई जगह पुनरावर्ति है शब्दों की, बोलचाल में कम में आनेवाले अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल भी हुआ है... जो तकनीक की नजर से थोडा ख़राब लग सकता है किन्ही पारखी नज़रों को, मगर नज़्म की मांग है, मेरे जेहन और कलम ने क़ुबूल की है. कुम्हार को हमारे यहाँ 'प्रजापत' भी कहा जाता है..ब्रहमांड निर्माता प्रजापति ब्रह्मा की तर्ज़ पर...हर बात में छोटा-मोटा दर्शन है. आशा है आपका स्नेह मेरी इस लम्बी पेशकश को भी मिलेगा..महक का सलाम !)
# # #
घड़े
घोड़े
मूरत बनाता है
कुम्भकार !
'परफेक्ट'
'जीवंत'
'अद्वितीय'
मिलते हैं
'कम्प्लिमेंट्स'
अति उदार....

फूल कर
हो जाता है
कुप्पा
कुम्हार,
लगता है
सोचने
हर लम्हा
जादूगर हूँ मैं
करता हूँ मैं,
कमाल है मेरी
उँगलियों में,
सम्पूर्ण सृजक हूँ मैं..
बस लिए
यही चिंतन
बनाता है
घड़े
घोड़े
मूर्तियाँ,
फर्क आ जाता है
उनमें
लगती है फीकी
अब उसकी
कृतियाँ...

लोग आते हैं
कहते हैं
चू रहा है घड़ा
लंगड़ा सा है घोड़ा
कृत्रिम सी है मूरत,
नहीं मिलती है
इसकी
राधाकीशुन से सूरत...

कहता है
प्रजापति
"जलते हैं लोग
समझ नहीं पाते हैं लोग
जो करता हूँ मैं
कर सकता है
भला कोई..
लग गयी है
देखो बुरी नज़र
हुनर को मेरे,
मैं तो वैसे ही गढ़ता हूँ
सब कुछ
साँझ और सवेरे..."
किन्तु
मन का चोर
ज्यूँ मुंडेर पर बैठा मोर,
कहे जाता है
कुछ तो गलत है भाई
है 'समथिंग रोंग',
और पीसती है उसकी
लुगाई...

और
करती है
'कनक्लुड'
कुम्हारी
आफत की मारी
'ट़ेन्स्ड-स्ट्रेस्ड'
शौहर की भुक्तभोगी
बीवी
बेचारी...

नहीं खाती
हुनर को
नज़र बुरी किसी की,
तारीफ
करती है
हौसला अफजाई
कलाकार की,
मगर
समा गया है गुरूर
फ़ित्रत में
कुम्हार की,
कट गया है मरदूद
माटी से,
जगह मिलन के
हो रही है
बातें तकरार की...
समझो
प्रजापत
बात व्यवहार की,
कृति मांगती है
मन-तन का एकत्व
बात यही है
सार की...

होने लगी थी
फिर से
भावों की वृष्टि
बदल गयी थी
हमारे नायक की
दृष्टि,
होने लगी थी
मित्रों
पूर्ववत सृष्टि...

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