Saturday, January 22, 2011

सृजन...

(रेवाजी को सप्रेम !)

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बैठी हूँ लेकर
भावों को,
कागज को
कलम को,
मौसम भी माकूल है
माहौल भी है शांत,
प्रतीक्षा है
केवल मात्र
विचारों की,
किन्तु
वे भी तो हैं
मनमौजी
ठीक मेरी तरह,
नहीं आयेंगे ना
दौड़ते हुए वे,
चला आता है जैसे
नन्हा बछड़ा
गैय्या के निकट
या
स्कूल से निकली
मेरी बेटी
मेरे करीब,
ढल रही है
सांझ,
जाऊं तो
कैसे जाऊं
इस पल
पीछे उन आवारों के ,
आ भी गये यदि
निगौड़े
जैसे तैसे,
नहीं मिलेंगे
शब्द
देने वाले
अर्थ उनको,
मिले बिना
सारे संजोग
असंभव है ना
सृजन..

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