Tuesday, November 3, 2009

शेष कविता......

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दृष्टि ने
फेर ली है
पीठ
खो गयी है
कुव्वत
पहचान पाने की.......

लगने लगे है
एकसे
सब चेहरे
परिचित हों
या
अपरिचित.........

अब तो
कर रहे हैं
सब काम
पड़ोसी कान,
बंध गयी है
सिर्फ शब्दों से
पहचान........

हो गये हैं
व्यर्थ
कागज़ और कलम
किये जा रहे हैं
हम
निरर्थक
'लीकलकोलिये'.........

छूटती है
मुश्किल से
पड़ी हुई लतें
इसीलिए तो
ज़िन्दगी
बन जाती है
आदतें......


लीकलकोलिये=यह एक राजस्थानी शब्द है जो आड़ी तिरछी गोल मोल कई आकर की लिखावट जैसी कि बच्चे करते हैं अथवा पेन को चला कर देखने के लिए हम कागज़ पर करते हैं इत्यादि के लिए प्रयुक्त होता है, जो कोई भी अर्थ नहीं देते. मैंने हिंदी/उर्दू में इस का समानार्थक शब्द खोजने का प्रयास किया मुझे शब्द मिले :धुनकनी, कलमघिसाई, बदखत,घसीटे इत्यादि. मैंने इस शब्द को बेहतर पाया इसलिए इसका इस्तेमाल किया है.

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