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निकल कर
ऊँचे घर से
बह चली थी
मासूम नदी,
बांध लिया था
चंचला को
प्रेमी दीवाने ने
किनारों सी बाँहों के
आलिंगन में,
बहे जा रही थी
कल कल
गाते हुए
गीत प्रीत के
होकर
और उन्मत
और उत्साहित
और उमंगित,
मुड़ गये थे
किनारे भी
संग उसके प्रवाह के,
क्या हो जाती
विद्रोहिनी
लहरें उसकी
और
डुबो देती
अवरोधक तटों को
या
यह थी कोई
स्वीकारोक्ति
गति के अधिकारों की
या
यह था कोई औदार्य प्रेम का
या
कोई सहज अंतरनिर्भरता
प्रेमियों की
या
कुछ और अनकही ?
निकल कर
ऊँचे घर से
बह चली थी
मासूम नदी,
बांध लिया था
चंचला को
प्रेमी दीवाने ने
किनारों सी बाँहों के
आलिंगन में,
बहे जा रही थी
कल कल
गाते हुए
गीत प्रीत के
होकर
और उन्मत
और उत्साहित
और उमंगित,
मुड़ गये थे
किनारे भी
संग उसके प्रवाह के,
क्या हो जाती
विद्रोहिनी
लहरें उसकी
और
डुबो देती
अवरोधक तटों को
या
यह थी कोई
स्वीकारोक्ति
गति के अधिकारों की
या
यह था कोई औदार्य प्रेम का
या
कोई सहज अंतरनिर्भरता
प्रेमियों की
या
कुछ और अनकही ?
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