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जब से हुई है ना सयानी
नज़र की बेटी पहचान,
हैरान-परेशान है
बेचारे मायने
दोस्त उसके बालपन के,
घूम रहे हैं लाचार
बेगानों से
कभी इधर
कभी उधर.....
कितना साफ़ और सटीक था
सब कुछ पहले
बिलकुल दूध सा सफ़ेद,
अब तो पगली
आकर
नये यार मन के
बहकावे में
लगी है देखने
हीरे जवाहिरात
कांच के बेमोल टुकड़ों में,
और तो और
इस ने ना
फाड़ फाड़ कर
कर दिये हैं चीथड़े
झूठ के माप से
सच के रेशमी थान के..
देख देख कर
कुलच्छ
अपनी औलाद के
जलता है हिया
माँ का,
मगर करे तो करे क्या
लाँघ चुके हैं
दहलीज
बहले बहके से कदम
इस लाडली के...
Wednesday, March 28, 2012
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