Sunday, November 7, 2010

समापन क्रंदन का : नायेदा आपा रचित

(दुनियावी रिश्तों के ओबजर्वेशन पर आधारित एक रचना)
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ना मैं
मसीहा हूँ
और
ना हो तुम
संकीर्ण
सोचों के
एक खुदगर्ज़ इन्सान...
हो गयी है
आदत
मुझ को तेरी
तुझ को मेरी..
(फिर)
क्यों हँसते है
हम पर
ये अजनबी,
बहुत हुए
गिले तेरे,
शिकवे हमारे
और
जग की हँसाई....
आओ न छोड़े
औढ़े हुए
सवालों को,
रूठने और
मनाने को,
सतही उसूलों को,
आँखों से बहते
वक्ती आंसुओं को,
चन्द अधूरे सत्यों को,
थोड़े बेमानी झूठों को,
पहन लें फिर से नकाबें,
करें समापन
इस क्रंदन का,
हो जाएँ
संग फिर से…

जिंदगी के
दौर में,
दो और दो
हो सकतें हैं
पांच भी,
बर्फ की छुअन
दे सकती है
ठंडक भी
तपती हुई
आंच भी...
कौन है जिसने
पूर्णता है पायी,
अवतारों को भी तो
कमजोरियां सतायी,
फिर हम तो है
अदम और हव्वा
की औलादें,
हम से है
किस बात की
भरपाई......

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